Monday 8 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (5)

(चित्र: सेना की कमान संभालते ज़ार निकोलस)

जिस समय रासपूतिन की हत्या की साज़िश चल रही थी, उस समय बोल्शेविक क्या कर रहे थे? अगर लेनिन को 1917 में कोई तख़्ता-पलट करनी थी, तो 1916 तक कोई मास्टर-प्लान तो मन में होगा? ज़ार, ज़ारीना या रासपूतिन पर किसी हमले की साजिश, या गाँव-गाँव घूम कर जनता को भड़काना? अगर हम भारत के आंदोलनों से तुलना करें कि मंच लगा कर हज़ारों की भीड़ को उकसाया जाता है। रूस में तो ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था। 

लेनिन जन-नेता बन कर नहीं उभरे थे। जैसे भारत में गांधी, बोस, नेहरू, पटेल आदि को सुनने भीड़ उमड़ती थी, लेनिन ने तो जनता-मंच पर खड़े होकर अब तक कुछ बोला ही नहीं था। उनसे अधिक भाषण तो मजदूरों के लीडर के रूप में त्रोत्स्की दे चुके थे, और उनके भाषण भी भड़काऊ और जोशीले होते थे। लेनिन लिख-पढ़ खूब रहे थे, गोष्ठियाँ की, गुप्त योजनाएँ बनायी, यूराल के पहाड़ों में बोल्शेविकों का गढ़ बनाया; लेकिन ऐसी स्थिति नहीं थी कि रूस की सड़कों पर घूम जाएँ तो लोग ‘लेनिन, लेनिन’ चिल्लाने लगें। दस में से आठ लोग उन्हें पहचानते भी शायद न हों।

युद्ध की शुरुआत में लेनिन लगभग अकेले पड़ गए। उन्होंने युद्ध का विरोध किया था, जबकि अधिकांश क्रांतिकारी और समाजवादी युद्ध के समय अपने देश के साथ थे। लेनिन को लगा कि वह ग़लत तो नहीं कर रहे? उन्होंने पुन: मार्क्स और हेगेल, दोनों को पढ़ना शुरू किया कि सही रास्ता क्या है। अगर अपना देश युद्ध लड़ रहा हो, तो क्या हमें सभी समस्याओं को भूल कर राजा का साथ देना चाहिए? अगर जर्मनी रूस पर कब्जा कर लेता है, तो यह देश के लिए अच्छा कैसे हो सकता है? लेनिन इस द्वंद्व में थे। उनका अंतिम निष्कर्ष यही रहा कि इस युद्ध में मरने वाले लाखों रूसी हैं, सभी संसाधन रूस के प्रयोग हो रहे हैं, देश आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है। इसका विरोध किया ही जाना चाहिए।

1916 तक लेनिन के जो विरोध में थे, वह उनसे सहमत होने लगे। न सिर्फ़ रूस में, बल्कि ऑस्ट्रिया या जर्मनी में भी समाजवादी अब युद्ध का अंत चाहते थे। त्रोत्स्की जो पहले लेनिन-विरोधी मेन्शेविक खेमे में थे, वह भी लेनिन के साथ आ गए। कहीं न कही, लेनिन के इस ‘इंस्टिंक्ट’ ने साथ दिया कि पूरे युद्ध के दौरान उन्होंने अपना स्टैंड नहीं बदला। अब बोल्शेविक को धीरे-धीरे कुछ तवज्जो मिलने लगी थी। लेकिन अब भी इतनी औक़ात नहीं थी कि सभी समाजवादी या मार्क्सवादी उनकी बात मान लें, या उन्हें अपना नेता चुन लें।

एक पंक्ति में कहूँ तो लेनिन रूस के पहले च्वाइस नहीं थे। वह कतार में थे।

यूँ भी च्वाइस का तो प्रश्न ही नहीं था। ज़ार निकोलस अब भी रूस के राजा थे। ज़ारीना रानी थी। वे अगर गद्दी त्याग भी देते, तो ड्यूमा (संसद) था। चुनाव होते, प्रधानमंत्री चुना जाता। उसमें लेनिन की पार्टी को कितने वोट मिलते, यह आगे स्पष्ट होगा। मगर, इतनी बात तो साफ हो ही गयी होगी कि रूस की समस्त जनता बोलशेविकों के साथ तो क्या, उन्हें जानती भी नहीं थी।

यह बातें इसलिए कहनी ज़रूरी लगी क्योंकि हम दुनिया की पहली और सबसे बड़ी मार्क्सवादी मॉडल जन-क्रांति की बात कर रहे हैं। एक मन में हौवा बना रहता है कि लाखों लोग क्रांति कर रहे होंगे, और लेनिन आगे झंडा लिए या किसी टैंक या जीप पर खड़े हाथ हिलाते चल रहे होंगे। अगर ऐसी क्रांति देखनी है तो जब चीन के माओ आंदोलन की बात होगी, तो शायद कुछ झलक दिखे। रूस तो फिलहाल प्रथम विश्व-युद्ध लड़ रहा था, और जनता तमाम नाराज़गियों के बावजूद काफी हद तक ज़ार के साथ ही खड़ी थी। 

इसलिए जो लोग सीट-बेल्ट लगाए बैठे हैं कि अब धमाका होगा, वह सीट-बेल्ट खोल लें। ऐसा कुछ नहीं होने वाला। लेनिन की इंट्री बहुत बाद में होगी। यह क्रांति एक क्लाइमैक्स नहीं, बल्कि एक एंटी-क्लाइमैक्स थी। इस क्रांति के एक्स-फैक्टर तो कुछ और ही लोग थे, जो इसमें षडयंत्रकारी रोमांच ला रहे थे। वही जाने-अनजाने लेनिन के लिए मंच भी सजा रहे थे। 

ज़ार परिवार के दामाद फेलिक्स युसुपोव पर ज़िम्मेदारी थी कि उन्हें रासपूतिन की हत्या करनी है। ऐसे कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। ट्रैप तैयार था- फेलिक्स की खूबसूरत पत्नी राजकुमारी इरीना। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/4.html
#vss 

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