Thursday 18 November 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - तीन (15)



स्विट्ज़रलैंड से शुरू होकर रूस सीमा पर खत्म होने वाली लेनिन की ट्रेन यात्रा इतिहास का एक अद्भुत नाटकीय मोड़ है। जैसे साम्राज्यवाद किसी कहार की तरह स्वयं मार्क्सवाद की दुल्हन को डोली में बिठा कर ले जा रहा हो। एक स्टेशन पर तो जर्मनी के युवराज की ट्रेन रोक कर लेनिन की ट्रेन को पास दिया गया! 

उस दृश्य की कल्पना करिए। यूरोप में प्रथम विश्व-युद्ध के पटाखे फूट रहे हैं और उस मध्य एक ट्रेन धीमे-धीमे चल रही है। स्विट्ज़रलैंड से जर्मनी के रास्ते बाल्टिक सागर तक पहुँचती है। वहाँ से एक यात्री जहाज पर डेनमार्क और स्वीडन होते हुए फ़िनलैंड। 

इस ट्रेन के अंदर ही जॉर्ज ऑरवेल की मशहूर एलीगरी कथा ‘एनिमल फार्म’ के कुछ रूपक दिख जाएँगे। इसकी पूरी एक बोगी में सिर्फ़ लेनिन और उनकी पत्नी थे, और बाकी बोगियों में शेष बोल्शेविक बैठ हँसी-ठट्ठा कर रहे थे। यह साम्यवाद ही था, लेकिन ऑरवेल की मशहूर पंक्ति है, “All animals are equal, but some are more equal than others”

लेनिन का अपना रोब था, और उनके बोगी में यूँ ही कोई नहीं धमक सकता था। वहाँ बैठ कर वह एक पुस्तिका पूरी कर रहे थे- ‘अप्रिल थीसिस’। इसमें वह दस बिंदु लिखे थे, जिसके माध्यम से छह महीनों में बोल्शेविक द्वारा तख़्ता-पलट किया जाना था और तानाशाही स्थापित करनी थी। इसमें उन्होंने कार्ल मार्क्स का बुर्जुआ पूँजीवाद वाला स्टेप बायपास कर दिया, और सीधे सर्वहारा क्रांति वाली सीढ़ी पर चले गए। 

मगर इस पुस्तिका पूरी करते वक्त दूसरे बोगी में बैठे बोल्शेविक का शोर-गुल और धुआँ उन्हें परेशान कर रहा था। वह उनकी बॉगी में गए और एक युवक के मुँह से सिगरेट छीन कर फेंकते हुए कॉलर पकड़ कर कहा, “अब सभी शांत रहेंगे। मैं ज़रूरी काम कर रहा हूँ। कोई इस बोगी में सिगरेट नहीं पीएगा। जिसे पीना है, शौचालय में बंद होकर पीए”

अब शौचालय में लाइन लग गयी। वे लेनिन के पास शिकायत लेकर आए, तो लेनिन ने साम्यवाद का एक पाठ वहीं उस ट्रेन में अपनाया। उन्होंने काग़ज के दो तरह के टिकट बनाए- एक शौचालय में शौच करने का, दूसरा सिगरेट पीने का। वह स्वयं टिकट-मास्टर बन गए, और एक-एक कर टिकट बाँटते। यह कम्युनिस्ट देशों की तानाशाही राशन-व्यवस्था का पहला प्रोटोटाइप था।

अंतत: जब ट्रेन फिनलैंड पहुँची, तो वहाँ स्वागत के लिए बड़ी भीड़ खड़ी थी। यह ज़्यूरिख़ जैसी भीड़ नहीं थी, जो उनको गालियाँ दे रही थी, बल्कि यहाँ तो साम्यवाद और लेनिन की जयकार हो रही थी। वहीं उन्हें रूसी अखबार ‘प्रावदा’ की प्रति मिली। वह इसे देख कर प्रसन्न हुए कि उनका कम्युनिस्ट अखबार चालू हो गया।

लेकिन, अखबार पलटते ही वह गुस्से में चिल्लाए, “यह क्या लिखा है इसमें? युद्ध चलते रहना चाहिए? ये बेवकूफ़ संपादक है कौन?”

मिमियायी आवाज़ में एक बोल्शेविक ने कहा, “कामरेड कामानेव और कामरेड स्तालिन!” 

स्तालिन साइबेरिया प्रवास से मुक्त होकर अपने गुरू लेनिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेनिन ने पेत्रोग्राद पहुँचते ही कामानेव को बुलाया और डाँटते हुए कहा, “यह क्या बकवास छापा है? हमें युद्ध का साथ नहीं देना। हमें रूस को युद्ध से बाहर करना है।”

लेनिन एक दशक के बाद लौटे थे, और कभी उनकी तस्वीर ‘प्रावदा’ में नहीं प्रकाशित हुई थी। रूस की जनता ने पहली बार लेनिन का चेहरा देखा था। वह एक मंच पर खड़े हुए और वहाँ खड़ी भीड़ को कहा, 

“साम्राज्यवाद के दिन अब खत्म हो रहे हैं। यूरोप का पूँजीवाद आखिरी साँसें ले रहा है। इस युद्ध ने हमें सिर्फ़ तबाही दी है। जनता को क्या चाहिए? खाने के लिए ब्रेड या युद्ध? इस नयी सरकार में आपको भरोसा होगा, मगर मुझे कतई नहीं है। ज़ारशाही खत्म हुई, लेकिन ज़मींदारी तो खत्म नहीं हुई। लोग भूखे मर रहे हैं। 

साथियों! हम लड़ेंगे, लेकिन युद्ध नहीं। हम लड़ेंगे शोषण के ख़िलाफ़। हम लाएँगे इस दुनिया में समाजवादी क्रांति।”

यह अप्रिल का महीना था। छह महीनों में रूस ही नहीं, दुनिया बदलने वाली थी। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - तीन (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/11/14.html 
#vss

No comments:

Post a Comment