जोश साहब को शायरी घुट्टी में तो नहीं मिली थी, लेकिन जोश मलीहाबादी की साहित्यिक रुचि का प्रस्फुटन उनके बचपन में, ही हो गया था। हालांकि जोश साहब के पिता, भी शौकिया शायर थे। लेकिन जब जोश के बारे में, उन्हें यह पता लगा कि, शब्बीर (जोश का असल नाम) चुपके चुपके से, शेर लिखते हैं तो, वे आपे से बाहर हो गए। जोश ने पिता के हांथों मार भी खाई, लेकिन बाद में, उन्होंने जोश के इस शौक को, स्वीकार भी कर लिया और उन्हें अपने साथ, एक मुशायरे में भी ले गए और वह मुशायरा, जोश के अदबी जीवन का पहला मुशायरा था।
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यों तो नौ बरस की उम्र ही से शे’र की देवी ने मुझे आग़ोश में लेकर मुझसे शे’र कहलाना शुरू कर दिया था। लेकिन आगे चलकर जब शायरी से मेरा लगाव बढ़ने लगा तो शायद इस ख़याल से कि अगर मैं शायरी में डूब गया तो मेरी तालीम नाक़िस2 रह जाएगी, मेरे बाप के कान खड़े हो गए और उन्होंने मुझसे इरशाद फ़रमाया कि ख़बरदार अब अगर तुमने शायरी की तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इसके साथ उन्होंने ज़नाने में बुआ गुलज़ार और मर्दाने में उम्मीदअली को मामूर फ़रमाया कि वे जब मुझे शे’र कहते देखें तो उनकी जनाब में रिपोर्ट कर दें। बाप के इस हुक्म और ज़नाना-मर्दाना की ख़ुफ़िया पुलिस ने मुझे बौखला दिया।
भाग्य का यह फ़रमान कि शायरी कर, शरीयत का यह हुक्म कि ख़बरदार शायरी के क़रीब भी न फटक। मैं इस कशमकश में पड़ गया कि अपनी फ़ितरत का हुक्म मानूँ कि अपने बाप का ख़ारिजी3 फरमान क़बूल करूँ।
सोचने लगा, मैं अपनी ज़ात से जुदा क्योंकर हो जाऊँ। शे’र कहता हूँ तो बाप बिगड़ते हैं, नहीं कहता तो दिल पर बिगाड़ आते हैं। क्या करूँ और क्या न करूँ? शे’र कहूँ तो बाप डाँट पिलाएँ, अपने दस्तरख़्वान पर खाना न खिलाएँ और शे’र न कहूँ तो दिमाग़ के परखचे उड़कर रह जाएँ।
इसलिए मैं शायरी छोड़ नहीं सका। चोरी-छिपे शे’र कहता, इधर-उधर देखता हुआ किसी गोशे में जाकर उन्हें लिखता और पर्चे अपने सन्दूक़चे के अंदर बन्द कर देता और स्मगलरों की तरह इस सन्दूक़चे को अपनी माँ के हवाले कर देता था कि वह इसे छिपाकर रख दें। मेरी माँ को मेरी इस हालत पर बड़ा तरस आता था। मगर वह उदास हो जाने के सिवा और कर ही क्या सकती थीं।
लेकिन इस एहतियात के बावजूद मैं अंदर और बाहर ऐन मौक़े पर शे’र कहता पकड़ा गया। मेरा जेब-ख़र्च बंद हुआ, बाप ने अपने साथ खाना खिलाना तरक4 कर दिया और अक्सर थप्पड़ भी मारे। अपनी हर ज़िल्लत के बाद मैंने बार-बार कान पकड़-पकड़कर क़समें खाईं कि अब कभी शे’र नहीं कहूँगा। अब खाई सो खाई, अब खाऊँ तो राम दुहाई। लेकिन जैसे ही मेरे दिल में शायरी की रुगरुगाहट होने लगती थी, मेरी तमाम क़समें चूर-चूर होकर रह जाया करती थीं और हज़रते-वहशत का यह शे’र मुझ पर लागू होता था,
मजाले तर्के-मुहब्बत न एक बार हुई
ख़याले तर्के-मुहब्बत तो बार-बार आया ।
० शे’र कहने की इजाज़त
एक बार मैं अपने सन्दूक़चे में जेब से पुर्ज़े निकाल-निकालकर रख रहा था कि बुआ गुलज़ार ने देख लिया। वह भाँप गईं। मियाँ को ख़बर कर दी। मियाँ आए। मेरी माँ से कहा, “शब्बीर का सन्दूक़चा कहाँ है?” मेरी माँ का रंग हल्दी का-सा हो गया। मियाँ का ख़ौफ इस क़दर था कि वह इनकार नहीं कर सकीं और मेरा सन्दूक़चा उनके सामने रख दिया। मियाँ ने मुझसे कुंजी मांगी। काँपते-लरज़ते हाथों से मैंने कुंजी दे दी। उन्होंने सन्दूक़चा खोला। मेरे पुर्ज़े एक-एक करके निकाले। मैं अपने बाप को इस तरह देखने लगा जिस तरह गाय अपने बछड़े को छुरी के नीचे देखकर काँपती है। जब उन्होंने मेरे तमाम पुर्ज़े चर-चर फाड़कर फेंक दिए, मेरे मुँह से एक दर्दनाक चीख निकली और मैं बेहोश हो गया। मेरी माँ दीवानावार मुझसे चिमटकर रोने लगीं। मियाँ के हवास उड़ गए। दादी जान ने आकर मेरे बाप को डाँटा कि क्या बच्चे को मार डालेगा?
डॉक्टर अब्दुल करीम को मेरे बेहोश हो जाने की ख़बर की गई। वह तुरन्त आ गए। मेरी नब्ज़ देखी और कहा, “ख़ाँ साहब, घबराइए नहीं। मैं दवा साथ लाया हूँ।” उन्होंने मेरा मुँह खोलकर दवा पिलाई। रईस की अन्ना ने मुँह पर छींटे मारे और दस-पन्द्रह मिनट के बाद मुझे होश आ गया। मेरे बाप ने मुझे सीने से लगाकर इरशाद फ़रमाया, “बेटा, मैंने तुम्हें शे’र कहने की इजाज़त दे दी है। मैं ख़ुद तुझे इस्लाह दिया करूँगा। इधर आकर दम-भर के लिए इस पलंगड़ी पर लेट जा।” मैं लेट गया तो मेरा जी बहलाने के लिए उन्होंने मुझसे कहा—बेटा इस शे’र के मानी बयान कर,
वो जल्द आयेंगे या देर में शबे-वादा
मैं गुल बिछाँऊ कि कलियाँ बिछाऊँ बिस्तर पर ।
अब शे’र की इजाज़त मिल जाने के बाद मेरी तबियत बहाल हो चुकी थी। मैंने ज़रा-सा ग़ौर करके अर्ज़ किया—“शायर से उसके दोस्त ने वादा किया है कि आज मैं आऊँगा। अब शायर इस असमंजस में है कि मैं गुल बिछाऊँ कि कलियाँ। अगर वह ठीक वक़्त पर आने वाला है तो मैं खिले हुए फूल और अगर देर में आने वाला है तो बेखिली कलियाँ बिछा दूँ।”
मियाँ ने पूछा, “डॉक्टर साहब, मानी सही बयान किए हैं शब्बीर ने?” डॉक्टर साहब ने कहा, “इससे ज़्यादा सही मानी बयान नहीं किए जा सकते।” मियाँ ने कहा, “मुझे आपकी राय से इत्तफ़ाक़ है। लेकिन तर्ज़े-बयान5 में उसने दो ठोकरें खाई हैं।” डॉक्टर साहब ने कहा, “साहबज़ादे, फिर तशरीह6 कर दीजिए!” मैंने फिर एक-एक लफ़्ज़ दोहरा दिया। डॉक्टर ने कहा, “मेरे नज़दीक तो साहबज़ादे ने कहीं ठोकर नहीं खाई है।” मियाँ ने हँसकर कहा, “आप लाख सुख़न-संज (शे’र समझने वाले) और हाली के हम वतन सही फिर भी जाए-उस्ताद ख़ालीस्त। सुनिए, उसकी पहली ग़लती तो यह है कि उसने ‘खिले हुए फूल’ कहा है। कली जब चटककर खिल जाती है तो उसे फूल कहा जाता है। खिलावट तो फूल की ऐन ज़ात है। इसलिए ‘खिले हुए फूल’ कहना हश्वो-जवाइद (व्यर्थ) में दाख़िल है। दूसरी ग़लती यह है कि उसने कली को ‘बेखिली कली’ कहा है। हालाँकि कली को तो इसीलिए कली कहते हैं कि वह अभी चटककर खिली नहीं है और बेखिलापन उसकी ऐन ज़ात है।” डॉक्टर साहब ने कहा, “बेशक आपका ख़याल दुरुस्त है। फूल और कली के साथ किसी सिफ़त की कोई ज़रूरत नहीं।” इसके बाद मियाँ ने इरशाद फ़रमाया—अच्छा, एक और शे’र के भी मानी बता दो तो मैं तुम्हारी शे’र-फ़हमी को मान जाऊँगा —
आ रहे हैं लाश के वो साथ-साथ
अब हमारी क़ब्र कितनी दूर है।
शे’र सुनकर मैं उलझन में पड़ गया। दोनों मिसरों में कोई रब्त (संबंध) ही नज़र नहीं आया और सोचने लगा। दस-पन्द्रह मिनट सोचने के बाद मैं ख़ुशी से उछल गया। बिस्तर से उठ बैठा। मैंने कहा, “शायर के जनाज़े में उसका दोस्त शरीक है। शायर को यह ख़याल सताने लगता है कि उसके दोस्त को पैदल चलने में तकलीफ़ हो रही होगी। इसलिए वह उकताकर पूछ रहा है कि अब हमारी कब्र किस क़दर फ़ासले पर रह गई है।” मियाँ ने झुककर मुझे सीने से लगा लिया। डॉक्टर साहब ने भी बहुत दाद दी और इस बात को स्वीकारा कि उन्हें यह शे’र निरर्थक लग रहा था। मियाँ ने कहा, “तुम्हें इस शे’र में फ़न के नुक़्ताए-नज़र से कोई ऐब तो नज़र नहीं आ रहा है?” मैं बेचारा फ़न से वाक़िफ़ ही कब था। मैंने कहा, “कोई ऐब नहीं है।” मियाँ ने फ़रमाया, “इसके पहले मिसरे में ताक़ीद है।” और फिर मिसालें देकर समझाया कि ताक़ीद क्या चीज़ होती है।
डॉक्टर ने कहा, “ख़ाँ साहब, आप साहबज़ादे को शायरी से बाज़ तो नहीं रख सकते। लेकिन यह बात ज़रूर समझा दीजिए कि पढ़ाई खत्म करने से पहले इस मश्ग़ले (काम, हॉबी) पर ज़्यादा वक़्त सर्फ़ न किया जाए।”
मियाँ ने फ़रमाया, “मैं तालीम से भी आगे की बात सोच रहा हूँ। यानी शायरी वह चीज़ है जो शायर को इस बात की इजाज़त ही नहीं देती कि वह शे’र कहने और शायराना ज़िन्दगी बसर करने के अलावा दुनिया का कोई और काम भी कर सके। यह वह बद बला है कि शायर के दिल में दौलत को इस क़दर हक़ीर कर देती है कि वह उसकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखता। नतीजा यह कि वह मुफ़्लिसी9 का शिकार होकर रह जाता है…” इतना कहकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने मेरी तरफ़ निगाह करके दुआ के लिए हाथ बुलंद फ़रमाए कि ऐ अल्लाह मेरे शब्बीर को तबाही10 से बचाना और उस पर ऐसी करम की निगाह रखना कि रोज़गार की ख़ातिर इसे दूसरों का मुँह न देखना पड़े।”
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इस तरह जोश साहब की काव्य यात्रा शुरू हुई। उनका पहला मुशायरा लखनऊ में हुआ था, जिसमें उनके पिता जी भी मौजूद थे। उसका भी एक दिलचस्प किस्सा है। अगले भाग में आप उसे पढ़ेंगे।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
भाग (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/05/2.html
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