जोश मलीहाबादी की शुरुआती शिक्षा, सीतापुर में हुई थी। उनके पिताजी, जिन्हें जोश साहब ने, अपनी आत्मकथा में मियां साहब कह के संबोधित किया है, जोश साहब को, अपने से दूर नहीं भेजना चाहते थे। हालांकि घर पर ही उन्हीने जोश साहब के लिए अरबी, फारसी और अंग्रेजी के लिए शिक्षक नियुक्त कर रखे थे। पर जोश के अनुसार यह तीनों शिक्षक, जिसमे दो मौलाना, जो फारसी और अरबी पढ़ाते थे और एक बाबू गोमती प्रसाद थे, जो अंग्रेजी पढ़ाते थे, जोश से खुद ही डरते रहते थे। जोश पढ़ाई लिखाई में होशियार थे और मलीहाबाद के अपने घर की तालीम के बजाय किसी अच्छे स्कूल में पढ़ना चाहते थे, ने अपने पिता से यह बात कही। पर यहां भी पुत्रमोह आड़े आ गया।
जोश के एक फुफेरे भाई थे, सफदर हुसैन खान, जो सीतापुर में पढ़ते थे और पढ़ने में तेज भी थे। थे तो वे भी बड़े ज़मीदार, पर उनकी सोच प्रगतिशील थी और वे व्यर्थ के ज़मीदारना वैभव प्रदर्शन से दूर रहते थे। जोश ने, उनसे कहा कि, वे भी आगे पढ़ना चाहते है। सफदर खान ने फिर बड़े खान साहब, यानी जोश के वालिद साहब को समझा बुझा कर राजी किया कि जोश को सीतापुर पढ़ने के लिए भेजें। फिर, जोश के वालिद साहब, इस बात पर राजी हो गए और यह तय हो गया कि, जोश को पढ़ने के लिए सीतापुर भेजा जाए।
सीतापुर के स्कूल में दाखिला कराने और ले जाने की जिम्मेदारी सफदर को दी गई। लेकिन सीतापुर में, जोश का दाखिला हो तो गया था, पर उनका वहां मन नहीं लगा। हालांकि सीतापुर में, मलीहाबाद के कई और लड़के पढ़ते थे, जिसमे, जोश का एक दोस्त अबरार भी था। उधर जोश के वालिद साहब, भी उदास रहने लगे। वे चाहते थे कि, सीतापुर के बजाय, जोश का दाखिला, लखनऊ के किसी स्कूल में हो जाय। उन्होंने जोश को सीतापुर से वापस बुला लिया और, फिर उनका दाखिला, लखनऊ के एक स्कूल में करा कर, वहीं उनके रहने की व्यवस्था कर दी।
इस अंश में जोश की सीतापुर यात्रा, स्कूल में दाखिले, वहां से मलीहाबाद वापसी और फिर, लखनऊ के एक स्कूल में दाखिले का दिलचस्प वर्णन है।
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थर्ड क्लास और इक्के का पहला सफ़र
सफदर भाई ने स्टेशन जाते हुए मुझे एक लम्बा लेक्चर पिलाया,जिसका खुलासा यह था कि जमाना अब बड़ी तेज़ी के साथ बदल रहा है। अमीरी की बू अपने सर से निकाल दो मामू ने मुझे फर्स्ट क्लास का किराया दिया है, मगर मैं तुम्हें ले जाऊंगा थर्ड क्लास में मंजूर है तुम्हें? मुझे क्या मालूम था कि थर्ड क्लास के मुसाफिरों को किन-किन बलाओं से दो चार होना पड़ता है। मैंने उनकी तजवीज़ मंजूर कर ली।
मगर थर्ड क्लास में कदम रखा तो जी सन्न से होके रह गया। पाँव के नीचे से जमीन निकल गई। सबसे पहले उस डिब्बे की उस बदबू ने मेरे दिल पर घूंसा मारा, जिससे में कभी दो-चार हुआ ही नहीं था। फिर मैंने देखा कि वह डिब्बा औधा- आंधा-सा है और बेगहों की खुरदरी जलील बचे मुझे मुंह चिढ़ा रही हैं। एक बेंच पर चन्द्र गँवार बिच्छू मार्का तम्बाकू की चिलमें पी-पीकर बुरी तरह खास रहे हैं। नाक में डंक मारने लगी तम्बाकू की बदबू । मरता क्या न करता, सर झुकाकर खरी सीट पर बैठ गया। सीट चुभने लगी, सास मेरे सीने में उलझ गई और इमाम-जामिन गर्म होकर मेरे बाजू पर दाग लगाने लगे। मैं खिड़की से मुँह निकालकर बैठ गया। चारबाग से निकलकर सफदर भाई ने दो खबीस इक्केवालों को इशारे से बुलाया और वे दो कौड़ी के जलील इक्के, अपने गधों के से अफ़्यूनी घोड़ों के साथ चू चू करते जब मेरी तरफ रंगने लगे तो मुझे ऐसा लगा जैसे मुंह काला करके मुझे गधे पर बिठाया जा रहा है। सफ़दर भाई ने मेरी हालत का अन्दाजा लगाकर कहकहा मारा और यह कहकहा घाव पर नमक छिड़कने की तरह मुझे बहुत बुरा लगा। उन्होंने मुझे परेशान देखकर कहा, 'शब्बीर मियां, यह ऑपरेशन बहुत फायदेमन्द है। इससे तुम्हारे दिल में गुरूर का जो मवाद है, वह निकल जाएगा।" मैं चुप हो गया।
इक्का मेरे करीब आया तो मैंने कहा, "सफदर भाई, इस पर बैठें कैसे?" उन्होंने मेरी बग़लों में हाथ देकर मुझे हजार दिक्कत के साथ बिठा दिया और दूसरे इक्के पर सैयद बाबचीं सामान समेत सवार हो गया। इक्के के चिकने गई की बू से मुझे मतली होने लगी। अब चारबाग से हमारे ज़लील इक्के आग़ामीर की ड्योढ़ी की तरफ धीरे-धीरे रंगने लगे। जब हमारा इक्का झाऊलाल के पुल से गुज़रने लगा तो मेरी नजरों के सामने से अपने परदादा का मुहल्ला गुज़रने लगा, जिसके नुक्कड़ के पत्थर पर 'अहाता-ए-फ़कीर मुहम्मद मोट अक्षरों में अंकित था। इस बोर्ड को देखकर मेरे तमाम रोंगटे झन-से हो गए। खयाल आया कि इधर से दादा जान हाथी पर गुजरते और उनकी सवारी के आगे चोबदार बोला करते थे। आज उसी तरफ से उनका पोता एक तुच्छ तोता बना हुआ इक्के में बैठा टरबट्टे-टरखट्टे गुज़र रहा है। शर्म के मारे मैंने अपना मुँह छिपा लिया। खैर, ये दिक्कतें और जिल्लते उठाता हुआ सीतापुर पहुंच गया। मलीहाबाद के तमाम लड़के निहाल हो गए। अबरार ने दौड़कर मेरे गले में बाहें डाल दी।
दूसरे ही दिन मेरा नाम ब्रांच स्कूल में लिखा दिया गया। सफ़दर भाई ने हाई स्कूल के देवता स्वरूप हैड मास्टर घमंडीलाल और बोटिंग के हंसमुख इन्चार्ज घोषबाबू से भी मुझे मिला दिया और मैं हजारों बलवलों के साथ बाकायदा स्कूल आने-जाने और जी लगाकर लिखने-पढ़ने में व्यस्त हो गया।
अभी सीतापुर आए मुश्किल से पन्द्रह-बीस दिन ही गुजरे होंगे। एक रोज शाम के वक्त क्या देखता हूँ कि हमारे घर के दारोगा शेख मुहम्मदअली चले आ रहे हैं। शेख साहब को देखकर में समझा कि मियाँ सीतापुर तशरीफ़ ले आए हैं। लेकिन जब दारोगा साहब ने मियाँ का खत दिखाया तो मालूम हुआ कि मिया ने फक्त दो रोज के लिए मलीहाबाद बुलाया है। दो दिन की छुट्टी लेकर जब रात की ग्यारह बजे वाली गाड़ी से मलीहाबाद आया और अपने मकान की गली में पहुँचा तो देखा कि मियाँ, डॉक्टर अब्दुल करीम और चंद सिपाहियों को लिए, आदत के विपरीत अचकन और टोपी के बगैर फाटक से निकल रहे हैं। जैसे ही मुझ पर उनकी नज़र पड़ी, 'हाय मेरा बेटा' कहकर वह झपट पड़े और मुझे सीने से लगाकर रोने लगे। डॉक्टर अब्दुल करीम ने कहा, "खाँ साहब, आप खुश होने के बदले रो रहे हैं?" मेरे बाप ने इरशाद फ़रमाया, "डॉक्टर साहब, काकोरी के पुल से गुजरते ही रेल हमेशा सीटी देती है। लेकिन आज उसने साठी नहीं दी। मैं यह खयाल करके दीवाना हो गया कि कहीं ख़ुदा न खास्ता पुल तो नहीं टूट गया है। डॉक्टर साहब, जिसका बेटा रेल में आ रहा है, उसके जी से पूछिए कि अपने वक्त पर रेल का सीटी न देना कितने वहम पैदा कर सकता है।'
सीतापुर में मेरी तालीम का सिलसिला साल डेढ़ साल से ज्यादा जारी नहीं रह सका। मेरी जुदाई की ताब न लाकर शायद 1902 में मेरे बाप ने मुझे लखनऊ तलब करमाकर हुसैनाबाद हाई स्कूल में दाखिल करा दिया और मेरी रिहायश के लिए नख्यास (चिड़िया बाज़ार) में सैयद एजाज़ हुसैन साहब के मकान के ऊपर का पूरा खुला हिस्सा किराये पर ले लिया गया। मेरे मकान के नीचे मुंशी वाहिद अली की नथादर्श की दुकान थी। उनकी दुकान के सामने किसी बुजुर्ग की मजार थी जिस पर हर जुमेरात। (बृहस्पतिवार) को चिराग़ा (रोशनी) हुआ करता था और उसके आस-पास हर इतवार को चिड़ियों का बाज़ार लगा करता था। और मेरे मकान के ऐन सामने हज़रत रियाज़ खैराबादी रहते थे।
उस जमाने में मेरे मकान के सामने और हज़रत रियाज़ खैराबादी के मकान की दीवार के नीचे दूर तक घोड़ा - गाड़ियों का अड्डा था, जहां पचीस-तीस गाड़ीवाले रहते थे। हर रोज़ बिला नागा सुबह से चार बजे एक साहब विक्टोरिया रोड की तरफ से 'मौला अली इमाम अली, मुर्तजा अली, गाते हुए जैसे ही मेरे मकान के सामने से गुजरते थे तो गाड़ीवाले ठुमकीदार आवाज़ में नारा लगाया करते थे, नवाब साहब, बकरा हाजिर है।' और वह 'नवाब साहब' उन्हें गालियों पर घर लिया करते थे। पर क्या मजाल कोई अश्लील शब्द जबान पर आ जाए।
जैसे ही गाड़ीवालों की आवाज बुलंद होती थी- "नवाब साहब, बकरा हाजिर है," वैसे ही वह बड़ी सुरीली और ठहरी हुई आवाज़ में कहने लगते थे, ऐ आले रसूल के दुश्मनो ए मुआविया के दुम्बो. ऐ इब्ने ज़याद के ऊँटो, तुम पर लानत, तुम पर आख थ ऐ यजीद के पिल्लो, ऐ इब्ने मलजम के बोकड़ो, ऐ हिंदे-जिगरख्यार के पड़दी, तुम पर लानत, हज़ार बार लानत। आख आख थू, आख थे और उन गालियों पर गाड़ीवालों के कहकहे बुलंद हो जाते थे। और जब वह गालियाँ देते हुए बड़े वाली सराय की तरफ मुड़ने लगते थे तो गाड़ीवालों की आवाज़ फिर बुलंद हो जाती, "नवाब साहब, बकरा हाजिर है, नवाब साहब बकरा हाज़िर है और वह उसी क़िस्म की गालियाँ देते हुए मुड़ जाया करते थे। उस तरफ मेरे गांव के बाशिंदे मिया नौरोज़ बावर्ची का भी यह मामूल था कि जब यह 'नवाब साहब, बकरा हाज़िर है' की आवाज़ सुनते थे तो चारपाई पर उठकर बैठ जाते और बड़बड़ाने लगते थे, "इन साले गाड़ीवालन पर नालत (लानत), रोज-रोज बकरा हाजिर, बकरा हाजिर चीखा करते हैं। यू का वाहियातपना है। साले सबेरे-सवेरे अल्लाह रसूल का नाम
तो लेत नाही, बकरा हाजिर, बकरा हाजिर का गुल मचा देते हैं। थू है उनकी औकात पर।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
भाग (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/05/1.html
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