Friday, 19 May 2023

दिल्ली के, एलजी सीएम बीच टकराव का एक कारण, अहम भी है / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल का मामला हल कर दिए जाने के बाद भी उपराज्यपाल द्वारा दिल्ली सरकार की एक सिफारिश को लंबे समय तक लंबित रखे जाने की शिकायत आ रही है और, यह शिकायत, आज फिर से जब सुप्रीम कोर्ट में की गई तो अदालत ने फिर उपराज्यपाल को आड़े हाथों लिया। सुप्रीम कोर्ट ने आज, शुक्रवार को दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति के प्रस्ताव को पांच महीने से अधिक समय तक लंबित रखने के लिए दिल्ली के उपराज्यपाल को जमकर फटकार लगाई। 

दिल्ली सरकार द्वारा, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, न्यायमूर्ति राजीव कुमार श्रीवास्तव को डीईआरसी (दिल्ली विद्युत रेगुलेटरी अथॉरिटी) के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करने के प्रस्ताव को मंजूरी देने में एलजी की ओर से देरी किए जाने के कारण, दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की।  भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई की। 

लाइव लॉ के अनुसार पूरा प्रकरण इस प्रकार है। जीएनसीटीडी की ओर से पेश एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड शादान फरासत के निर्देश पर वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ अभिषेक मनु सिंघवी ने पीठ को सूचित किया कि, "एलजी को प्रस्ताव भेजे हुए पांच महीने बीत चुके हैं।  हालांकि, एलजी यह कहकर अपने फैसले में देरी कर रहे थे कि नियुक्ति करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति की आवश्यकता है या नहीं, यह पता लगाने के लिए उन्हें कानूनी राय की आवश्यकता है।"
इस संदर्भ में, सीनियर एडवोकेट, अभिषेक मनु सिंघवी ने बताया कि, "विद्युत अधिनियम की धारा 84 (2) के अनुसार, नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति के मूल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श की आवश्यकता थी।"
मुख्य न्यायाधीश ने उसी पर सहमति व्यक्त करते हुए मौखिक टिप्पणी की, "यदि नियुक्त किया जा रहा व्यक्ति मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश था, तो किससे परामर्श किया जाएगा? यह मद्रास उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होगा। यह कोई अन्य उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश क्यों होगा?"

एलजी की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, एलजी एंट्री 1, 2 और 18 से संबंधित मामलों (सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस या भूमि) पर स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं। यह वे विंदु हैं, जिनमे एलजी को अधिकार और शक्तियां हैं। उन्होंने आगे कहा, "अन्य मामलों में, यदि कोई मतभेद है, तो राज्यपाल राष्ट्रपति को संदर्भित कर सकता है। और उस निर्णय के लंबित रहने तक, राज्यपाल अपने दम पर कार्य कर सकता है।"
इस पर CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, "गवर्नर इस तरह एक सरकार का अपमान नहीं कर सकते... असाधारण मामलों में संदर्भित करने की शक्ति का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।"

विद्युत अधिनियम 2003 की धारा 84(2) के प्रावधान को स्पष्टता प्रदान करते हुए, जो राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान करता है, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने आदेश लिखवाते हुए कहा, "इस प्रावधान का मूल भाग इंगित करता है कि राज्य सरकार किसी भी व्यक्ति को 'जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है और रह चुका है' में से किसी भी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है। हालांकि, नियुक्ति उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जानी है। जहां एक मौजूदा न्यायाधीश  नियुक्त किया जाना है तो, उस मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद, किया जाएगा, जहां से न्यायाधीश लिया जाना है। इसी तरह, जहां तक एक पूर्व न्यायाधीश का प्रश्न है, उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाएगा जहां न्यायाधीश ने पहले सेवा की थी। इन स्पष्ट प्रावधानों के मद्देनजर, डीईआरसी के अध्यक्ष की नियुक्ति दो सप्ताह में तय की जाएगी।"

विवाद की पृष्ठभूमि इस प्रकार है। डीईआरसी के पूर्व अध्यक्ष, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, न्यायमूर्ति शबिहुल हसनैन ने 09.01.2023 को 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर, स्वतः रिटायर हो गए। याचिका में कहा गया है कि, "इसके परिणामस्वरूप, 04.01.2023 को सेवानिवृत्त मप्र उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति राजीव कुमार श्रीवास्तव को नियुक्त करने का प्रस्ताव दिल्ली के उपराज्यपाल के समक्ष रखा गया था। बताया गया कि तब से उपराज्यपाल ने सरकार द्वारा भेजे गए प्रस्ताव पर कोई कार्रवाई नहीं की है।  इसके अलावा, डीईआरसी पिछले 5 महीनों से, बिना किसी अध्यक्ष काम कर रहा है।  यह संकेत दिया गया था कि, अधिनियम, 2003 के अनुसार, न्यायमूर्ति श्रीवास्तव की नियुक्ति के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति पहले ही प्राप्त की जा चुकी थी।  ऐसा प्रतीत होता है कि उपराज्यपाल ने प्रस्ताव पर कोई कार्रवाई करने के बजाय कानून और न्याय मंत्री को पत्र लिखकर 'उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श' वाक्यांश के स्पष्टीकरण की मांग की थी।"

यह याचिका गुजरात राज्य बनाम यूटिलिटी यूज़र्स वेलफेयर एसोसिएशन पर आधारित थी, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक अधिकारी की उपस्थिति या कानून की प्रैक्टिस में पर्याप्त अनुभव रखने वाले और उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य होने की बात कही थी।  निर्णायक कार्य करना अनिवार्य है। उसी के मद्देनजर यह तर्क दिया गया कि चूंकि डीईआरसी में कोई भी न्यायिक सदस्य मौजूद नहीं है, इसलिए उसे किसी भी न्यायिक कार्यों को करने से रोकना पड़ा।

याचिका में कहा गया है कि इन परिस्थितियों में उपराज्यपाल या तो सरकार के प्रस्ताव पर सहमति दे सकते हैं या इसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।  इसने उल्लेख किया, क्योंकि यह मुद्दा सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस या भूमि के आरक्षित विषयों से संबंधित नहीं था, अतः उपराज्यपाल के पास, इस  मामले में, कोई स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं थी, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के एनसीटी बनाम भारत संघ (2018) के केस में व्यवस्था दी है। डीईआरसी के अध्यक्ष का चयन और नियुक्ति, सरकार की विशेष एक्जीक्यूटिव अधिकारों और शक्तियों के भीतर है।  याचिका में आरोप लगाया गया है कि उपराज्यपाल की ओर से की जा रही निष्क्रियता भी रूल्स ऑफ बिजनेस के नियमों का उल्लंघन थी। जिसके अनुसार, सात कार्य दिवसों की अवधि के भीतर, सरकार द्वारा भेजे गए प्रस्ताव पर, एलजी को अपने विचार दर्ज करने का प्राविधान है। मतभेद के मामले में पंद्रह कार्य दिवसों के भीतर मामले को सुलझाने और फिर इसके बाद इसे मंत्रिपरिषद के समक्ष रखा जाना चाहिए।  जिसका निस्तारण/निर्णय दस कार्य दिवसों के भीतर करना है। यदि फिर भी मतभेद बना रहता है तो मामला राष्ट्रपति के पास भेजने का स्पष्ट प्राविधान है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और डीईआरसी के अध्यक्ष की नियुक्ति की पत्रावली, एलजी के पास छह महीने तक, बिना किसी कार्यवाही के लंबित रही। 

दिल्ली सरकार ने दायर याचिका में कहा है कि, "... अध्यक्ष के बिना कार्य करने के लिए डीईआरसी न केवल दिल्ली की निर्वाचित सरकार के जनादेश को नकारता है, बल्कि प्रशासनिक और नियामक असमंजस की स्थिति भी पैदा होती है, जिसके कारण, डीईआरसी, दिल्ली एनसीटी के अंतर्गत, प्रभावी शासन और प्रशासन के लिए आवश्यक कई महत्वपूर्ण कार्य संपन्न नहीं कर पा रहा है।"

एक बार जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह तय कर दिया गया कि, पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि से जुड़े मामलों को छोड़ कर, दिल्ली एनसीटी से जुड़े शेष अन्य प्रशासकीय मामलों में, दिल्ली की निर्वाचित सरकार का क्षेत्राधिकार रहेगा और  उपराज्यपाल, दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल के फैसले के अनुसार कार्य करेंगे, तब उपराज्यपाल द्वारा बार बार किए जा रहे ऐसे, हठपूर्ण आचरण का कोई औचित्य नहीं है। मिथ्या अहम की इस मानसिकता से सबसे अधिक प्रभाव, दिल्ली एनसीटी के नागरिकों पर पड़ता है। 

० विजय शंकर सिंह 

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