मणिपुर में सरकार ने हिंसा पर काबू पाने के लिए ‘शूट एट साइट’ का ऑर्डर दिया है। हालांकि यह केवल एक्ट्रीम केस में ही इस्तेमाल किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि, मणिपुर में मैतेई समुदाय को एसटी कैटेगरी में शामिल करने के खिलाफ एक आदिवासी स्टूडेंट यूनियन ने मार्च बुलाया था। इसमें हिंसा भड़क गई थी। इसके बाद कई जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गा था। इतना ही नहीं पूरे मणिपुर में 5 दिनों के लिए इंटरनेट सर्विस को सस्पेंट कर दिया गया है। फिलहाल मणिपुर में स्थिति तनावपूर्ण है. दंगों को रोकने सेना और असम राइफल्स को भी डिप्लोय कर दिया गया है।
CrPC की धारा 129 के प्रावधानों के अंतर्गत, मौके पर, घटनास्थल की गंभीरता को देखते हुए, उपस्थित मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी गोली चलाने का निर्णय कर सकते हैं, यदि अन्य तरीके दंगाई भीड़ को तितर-बितर करने में विफल रहते हैं तो। शूट एट साइट, यानी देखते ही गोली मारने जैसे आदेश के प्राविधान का कानून में कोई उल्लेख नहीं है। ब्रिटिश राज में, जब मार्शल लॉ लगाया जाता था, जैसा कि पंजाब में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लगाया गया था, तब यह वाक्य प्रयोग में लाया गया था। मार्शल लॉ का कोई प्राविधान आज कानून में है या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन ऐसे आदेश का मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है।
कानून व्यवस्था की समस्या व्यापक बल प्रयोग से नियंत्रित तो की जा सकती है लेकिन, यह नियंत्रण सीमित समय के लिए होता है। यह सीमित समय, महीनों या वर्षों का भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, असम में एक समय बांग्लादेशी नागरिकों के घुसपैठ के समय और पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के समय ऐसे ही हालात थे। अस्सी का पूरा दशक और नब्बे के आधे दशक तक पंजाब में आतंक का राज रहा। बल प्रयोग भी खूब हुआ। आतंकी भी मारे गए, सुरक्षाबल के जवान भी शहीद हुए, पर निर्दोष नागरिक भी कम नहीं मारे गए।
असम समस्या का समाधान असम समझौते के बाद धीरे धीरे असम में, और पंजाब में सीएम बेअंत सिंह और डीजीपी केपीएस गिल के प्रयासों से, आतंकराज का खात्मा भी हुआ। पर बल प्रयोग के साथ साथ पंजाब की जनता से हुई बातचीत के कारण ही यह संभव हुआ। मणिपुर में भी जो जातीय संघर्ष उठ खड़ा हुआ है, यह वहां की जनता के सभी पक्षों के साथ बात किए बिना खत्म नहीं होगा। बल प्रयोग से तात्कालिक राहत मिल सकती है लेकिन समस्या का समाधान सभी पक्षों के बीच, बिना गंभीर बातचीत के संभव नहीं हैं।
(विजय शंकर सिंह)
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