Friday, 12 May 2023

कुंती ने जब कर्ण को यह रहस्य बताया कि वह कुंती का ही पुत्र है और उसे मनाने का प्रयास किया कि, वह महाभारत युद्ध में पाण्डवों की ओर आ जाय, तब का यह प्रसंग, नरेंद्र कोहली के उपन्यास कुंती से लिया गया एक अंश...

“मैं याचक बनकर आयी हूँ अंगराज!” कुन्ती ने कहा, “इसलिए मुझे याचना की पूर्वपीठिका स्पष्ट करनी होगी।” 

कर्ण के मन में आया कि वह तत्काल वहाँ से चल दे। वह जानता था कि कुन्ती की याचना कृष्ण के आग्रह से भिन्न नहीं होगी। वह पुनः उसी द्वन्द्व में पड़ना नहीं चाहता था।…किन्तु अपने सामने खड़ी इस नारी को, एक साधारण याचक मान झटक कर वह जा भी नहीं सकता था।…आज तक उसने जिस कुन्ती को देखा था, वह पाण्डवों की माता थी, उसके शत्रुओं की माता।…आज जो कुन्ती उसके सम्मुख खड़ी थी, वह उसकी अपनी जननी थी।…उसने कुन्ती को अगणित बार देखा था; किन्तु अपनी जननी को तो वह पहली ही बार देख रहा था।… 

कर्ण मौन खड़ा था। कुन्ती उसके बोलने की प्रतीक्षा दीर्घकाल तक नहीं कर सकती थी। बोली, “राधेय! तुम्हारा पालन-पोषण अधिरथ के घर में हुआ है; किन्तु क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी जननी मैं हूँ? तुमने मेरी कुक्षि से जन्म लिया है पुत्र!”

कुन्ती कल्पना कर रही थीं कि यह सूचना पाते ही वह दौड़कर आतुरतापूर्वक उनसे लिपट जायेगा और कदाचित कुछ रोष जताते हुए यह भी कहेगा कि आज तक उससे यह सम्बन्ध छिपाया क्यों गया था।…या फिर सम्भव है कि वह क्रुद्ध होकर फट पड़े कि जब वे जानती थीं कि वह उनका पुत्र है और उनके निकट है, तो उन्होंने उसे इतना तड़पाया क्यों? 
किन्तु कर्ण मौन ही नहीं, निस्पन्द खड़ा उन्हें देखता रहा। 
कुन्ती अवाक् रह गयीं : वे अब ऐसा क्या कहतीं, जिससे उत्तेजित होकर, कर्ण कुछ बोल पड़ता--पक्ष में, विपक्ष में; प्रसन्नता में, क्रोध में। ब्रह्मास्त्र तो वे पहले ही छोड़ चुकी थीं। अब छोटे-मोटे शस्त्रस्त्रों का क्या काम?…जब कर्ण पर्याप्त समय तक कुछ नहीं बोला, तो कुन्ती ही पुनः बोलीं, “तुम कुछ बोलते क्यों नहीं पुत्र? क्या तुम्हारे लिए यह सूचना कोई अर्थ नहीं रखती। क्या तुम अपनी खोई हुई माता और भाइयों को पाकर प्रसन्न नहीं हो?” 
“यह सब कुछ कृष्ण मुझे पहले ही बता चुके हैं।” कर्ण सर्वथा ऊष्मारहित स्वर में बोला, “किन्तु मैं सोचता हूँ कि जो सूचना आप सबने वर्षों तक मुझसे छुपाये रखी, अब अकस्मात् ही वह इस प्रकार क्यों उद्घाटित की जा रही है?” उसने रुककर कुन्ती की ओर देखा, “क्या महत्त्व है, इस सूचना का मेरे लिए? इससे मुझे यह ज्ञात नहीं हुआ कि मेरे माता-पिता कौन हैं। इससे मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरी इस दुर्दशा के लिए उत्तरदायी कौन हैं। कौन है वह, जिसने अपने मिथ्या सामाजिक सम्मान के लिए एक नवजात शिशु के सुख-सुविधा, कीर्ति-यश की बात तो जाने दीजिए, उसके जीवन की भी चिन्ता नहीं की। बहा दिया उसे नदी की धारा में, डूबने, मरने के लिए। आज मुझे यह ज्ञात नहीं हुआ कि मुझे जन्म किसने दिया, मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरी हत्या का प्रबन्ध किसने किया।” 

इस बार कुन्ती की प्रतिक्रिया, कर्ण की अपेक्षा से सर्वथा प्रतिकूल हुई। उसने सोचा था कि लज्जित होंगी, लड़खड़ा जायेंगी, उसे शब्द नहीं मिलेंगे, सम्भव है कि नयनों से अश्रु टपकने लगें। कदाचित वे पश्चात्ताप प्रकट करें। सम्भवतः क्षमा माँगे…किन्तु कुन्ती का चेहरा तो क्षोभ के मारे कठोर ही नहीं, कुछ प्रदीप्त भी हो उठा, “तो खड्ग निकालो। कर दो मेरा वध। प्रतिशोध नहीं लोगे? वैसे भी तुम्हारी तो हत्यारिणी हूँ मैं। माता तो मैं उनकी हूँ, जिन्हें आजीवन पीड़ित, अपमानित और वंचित करना, तुम्हारे अस्तित्व का एकमात्र लक्ष्य रहा है। मेरा वध कर दोगे, तो तुम्हें पीड़ा भी नहीं होगी, वे वंचित भी होंगे और स्वयं को अपमानित भी अनुभव करेंगे। उससे तुम्हें अपार हर्ष होगा। तुम्हारे मित्रों को स्वर्गिक आनन्द मिलेगा।” 

“मेरी शूरवीरता एक असहाय वृद्धा की हत्या कर गौरवान्वित नहीं होगी।…” कर्ण का मन वहाँ से तत्काल चल देना चाहता था, बिना किसी चर्चा और संवाद के, किन्तु उसके पग धरती में जैसे कीलित हो गये थे। कुन्ती की पूरी बात सुने बिना, उनकी भर्त्सना कर, उन्हें अनुत्तरित किये बिना चले जाने में क्या सुख था। 

“तुम्हारी शूरवीरता तो केवल एक असहाय युवती को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर गौरवान्वित होती है न।” कुन्ती की आँखों में से जैसे कोई हिंस्त्र जीव झाँक रहा था, “अपनी वीरता का अधिक बखान मत करो। तुम नहीं जानते कि मैं तुम्हारी जननी हूँ; किन्तु मैं जानती थी कि मैंने तुम्हें जन्म दिया है…और अपने पुत्र की वीरता देख-देख कर, एकान्त में सिर पटक-पटककर वर्षों रोती रही हूँ मैं।…

” कर्ण की आँखें आश्चर्य से फैलकर कुछ और बड़ी हो गयीं। इस माता को अपने पुत्र…कर्ण जैसे पुत्र…की वीरता पर गर्व नहीं है?…पर वह अपने पुत्र के कृत्यों से पीड़ित होती रही है?…कर्ण की आँखों में दमित आक्रोश प्रकट हुआ…ये लोग आज तक उसका तिरस्कार किसी और पद्धति से करते रहे थे। आज इस नयी पद्धति का आविष्कार किया है इन्होंने। 

“वह मेरा प्रतिशोध था।” कर्ण का स्वर पूर्णतः आश्वस्त था, “उसने अपने स्वयंवर में मुझे सूतपुत्र कहा था।” 

“वह तो यही जानती थी कि तुम अधिरथ के पुत्र हो; तो वह तुम्हें ऋषिपुत्र कैसे कह देती।” कुन्ती के स्वर में झंझावत का सा वेग था, “महाराज धृतराष्ट्र जब संजय को ‘सूतपुत्र’ कहते हैं, तो संजय उनके परिवार की स्त्रियों को अपमानित करने पर उतारू नहीं हो जाता।” 

“धृतराष्ट्र संजय का सम्मान करते हैं; किन्तु उसने मेरा अपमान करने के लिए वह सब कहा था। यदि वह मेरा अपमान न करती तो मैं उसका अनादर क्यों करता?” कर्ण की वाणी का बल क्षीण हो रहा था, “अन्यथा मैं स्त्रियों का बहुत सम्मान करता हूँ।” 

“प्रतिशोध ही लेना था तो वीर पुरुषों के समान लेते। निकाल लेते खड्ग और उसके रक्षकों को सम्मुख युद्ध में वध कर, उसका हरण कर लाते।” कुन्ती बोली, “यह प्रतिशोध है तुम्हारा। राजसभा में बुलाकर, उसके वीर पतियों को धर्म के बन्धन में बाँध, एक असहाय स्त्री के नारीत्व से प्रतिशोध…।” कुन्ती की दृष्टि कर्ण पर लक्ष-लक्ष धिक्कारों की वर्षा कर रही थी, “और मैं जानती हूँ, कितना सम्मान करते हो तुम स्त्री का। जो स्त्री तुम्हारे विरुद्ध कहे, तुम्हारी कामनापूर्ति में विघ्न बने, उसे तुम वेश्या कह कर पुकारते हो। उसे सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर, उसकी पीड़ा से आनंदित होते हो, उसके अपमान से गौरवान्वित होते हो।” कुन्ती के स्वर में जैसे कोई तरल तप्त धातु बह रही थी, “अपने अपमान का दुःख है तुमको…जो अपमान तुम लोगों ने पांचाली का किया है, जो अपमान तुम लोगों ने पाण्डवों का किया है…द्यूतसभा में उनके वस्त्र उतरवा दिये और महावीरों के सम्मुख उनकी पत्नी को ‘वेश्या’ कहकर, उसे नग्न करने का प्रयत्न किया, उसे रति-निमन्त्रण दिया।…उसे दूसरा पति चुन लेने को कहा…उस अपमान से बड़ा अपमान किया था पांचाली ने तुम्हारा?…तुम्हारे उस नीच कर्म को देख कर भी क्या प्रतिक्रिया थी पांडवों की? उन्होंने युद्ध की प्रतिज्ञा की, धर्म की प्रतिज्ञा की और चुपचाप चले गये उठकर। यदि वे भी धर्म को भूलकर, अपने अपमान का प्रतिशोध लेने को तत्पर होते, अपने शस्त्र उठा लेते, तो देखती मैं तुम लोगों की वीरता।…और तुम्हें यह भी सूचित कर दूँ, महावीर! कि उसने तुम्हारा अपमान नहीं किया था, केवल तुमसे विवाह करने की अनिच्छा प्रकट की थी। यदि यह अपमान था तो तुम जानते ही होगे कि प्रत्येक स्वयंवर में नारी, सम्मान तो केवल एक ही पुरुष का करती है, शेष सबका तो अपमान ही होता है।” 

“यदि पांचाली मुझसे विवाह नहीं करना चाहती थी, तो यही कहती। उसने जाति की बात क्यों कही?” कर्ण का दमित आक्रोश फिर से उफन आया था; किन्तु उसकी वाणी में विश्वास का बल नहीं था।"

“इसलिए कि वह यह नहीं कह सकती थी कि वह उस आततायी से विवाह नहीं करेगी, जो निर्दोष लोगों को उनकी निद्रावस्था में जलाकर मार डालने का षड्यन्त्र करता है, करवाता है; और ऐसे षड्यन्त्र करनेवालों का साथ देता है।”
 
“उस कांड के लिए मुझसे बड़ा दोषी दुर्योधन है। पांचाली ने उसे क्यों नहीं रोका?” कर्ण कुछ और बिफरकर बोला, “क्यों नहीं लगाया उस पर आरोप? मेरी ही जाति…।” 

“चुप रहो तुम!” कुन्ती ने उसे डाँटा, जैसे माँ अपने नन्हे बच्चे को डाँटती है, “तुम आज तक यही करते आये हो। केवल अपनी रट लगाए रहते हो, दूसरे की सुनते नहीं। अपना हर पक्ष जानते हो, दूसरे का पक्ष जानना नहीं चाहते।…आज तुम पहले मेरी बात सुनो।” 

कर्ण सहम गया। आज तक उसे इतनी ममता से किसी ने नहीं डाँटा था। वह चाहे कुन्ती को माता का सम्मान देने को प्रस्तुत नहीं था; किन्तु यह सत्य था कि वे उसकी जननी हैं। इसीलिए कुन्ती ने उसे इस प्रकार डाँटने का साहस किया था।… कर्ण उन्हें अपनी माँ माने या न माने, वे तो उसे अपना पुत्र मानती ही हैं।…मानती क्या हैं वह उनका पुत्र है।… 

“सुन रहा हूँ मैं।” इस बार कर्ण का स्वर कुछ दबा हुआ था। 

“दुर्योधन को रोकने की आवश्यकता नहीं थी पांचाली को।” कुन्ती बोली, “उसमें सामर्थ्य ही नहीं था कि वह स्वयंवर की प्रतिज्ञा पूरी कर सकता। इसलिए उसका स्वयंवर में सम्मिलित हो, असफल अपमानित होना अधिक बड़ा दंड था। तुम्हारे सफल होने की सम्भावना थी, इसी भय के कारण उसने तुम्हें रोक दिया।” कुन्ती ने रुककर उसकी ओर देखा, “और सूत एक व्यवसाय है, जाति नहीं। अपने व्यवसाय से सम्बन्धित होने पर वही अपमान का अनुभव करता है, जो स्वयं को हीन मानता है। तुम सूत के व्यवसाय को हीन मानते हो; अधिरथ और संजय, ऐसा नहीं मानते। तुम राधेय कहलाने में आज अपमान का अनुभव नहीं करते; कल यदि तुम्हारे मन में, यह भाव उठे कि राधा एक साधारण स्त्री है, हीन स्त्री है, तुम्हारी माता होने के योग्य नहीं है, तो तुम राधेय पुकारे जाने पर भी अपमान का अनुभव करोगे…।” 

कर्ण को कोई उत्तर नहीं सूझा।…सत्य ही कह रही हैं कुन्ती।…आहत तो उसका अहंकार होता था…अन्यथा धनुर्धर के रूप में अर्जुन की श्रेष्ठता की चर्चा सुनकर, वह क्यों तड़प उठता था।…अधिरथ के परिवार में पलने और बढ़ने के बाद भी ‘सूतपुत्र’ सुनते ही, उसके तन-बदन में आग क्यों लग जाती थी।…उसका मन कभी इस प्रकार स्वयं से तटस्थ होकर, अपने ऊपर अभियोग लगाने, अथवा लगाए गये अभियोग पर विचार करने को तैयार नहीं हुआ था…पर आज…कर्ण को लगा कि उसके अहंकार का कोई कगार टूटकर गिर गया था। मन कैसा तो विगलित-सा हो गया था। वह अपने अधरों में ही फुसफुसाया, “आप अब तक कहाँ थीं देवि! मुझे समझाने पहले क्यों नहीं आयीं?” 

“देवि क्यों कहता है, हत्यारिणी कह।” कुन्ती के तेवर जैसे वक्र थे; किन्तु उसका स्वर कुछ और भीग आया था, “तू अपनी व्यथा की बात कहता है पुत्र! कभी उस कुन्ती की व्यथा पर भी विचार कर।…बहुत छोटी थी, जब मेरे जनक शूरसेन ने मुझे अपने पितृष्वसीय कुंतिभोज को दे दिया था। पिता कुंतिभोज के घर में क्या अवस्था रही होगी मेरी, सोच! दुर्वासा जैसे औघड़ और क्रोधी ऋषि को प्रसन्न रखने का दायित्व सौंपा गया था मुझे।…पिता का आदेश! उनके सम्मान की रक्षा!…दुर्वासा को मैं किसी भी प्रकार अप्रसन्न नहीं होने दे सकती थी। उनके रोष को रोकना था, जैसे भी हो…यह उनकी ही मन्त्रणा थी कि तेरा जन्म हुआ।…यह कैसे सम्भव था पुत्र! कि मेरे जैसी अबोध बालिका मात्र, उस प्रासाद में रहते हुए, अपने पिता से अपना गर्भ छिपा लेती, उनके अज्ञान में ही प्रसव हो जाता और अपने नवजात शिशु को मरने के लिए मैं अश्व नदी के जल में प्रवाहित कर आती?…पर इसमें तेरा भी क्या दोष। तुझे तो राधा और अधिरथ ने यही बताया होगा कि तू उन्हें गंगा की धारा में बहता हुआ मिला।…मेरे पिता कुंतिभोज ने उन्हें यही कहने को कहा होगा।” 

कर्ण चौंका, “तो क्या उन्होंने मुझे गंगा की धारा में नहीं पाया?” 

कुन्ती के अधरों पर एक मन्द मुस्कान आ बैठी, “कभी उस सारे भूगोल पर दृष्टि डाली होती, तो तुझे इस कथा के सत्य का ज्ञान हो गया होता।” 

कर्ण ने कुछ नहीं कहा। मौन अधरों और उपेक्षापूर्ण नयनों से कुन्ती की ओर देखता रहा। 
“भोजपुर से अश्व नदी में बहाई गयी एक मंजूषा, सुरक्षित बहती हुई आकर चर्मणवती में बहने लगती है। चर्मणवती उसे बहाकर यमुना में ले जाती है। यमुना उसे प्रयाग में गंगा को सौंपती है; और चम्पानगरी में अधिरथ उसे गंगा की धारा में से निकालता है। वह एक साधारण मंजूषा थी अथवा चतुर और दक्ष नाविकों द्वारा चालित कोई सैनिक अथवा व्यापारिक बेड़ा, जो सहस्त्रों योजन तैरता हुआ, सुरक्षित चम्पानगरी तक जा पहुँचा?” कुन्ती ने कर्ण की ओर देखा, “तुमने कभी इस कथा का बौद्धिक विश्लेषण किया होता, तो स्वयं ही समझ जाते कि यह सम्भव नहीं है, वह मात्र एक कथा है…।” 

“क्यों? सम्भव क्यों नहीं है?” कर्ण ने क्षीण स्वर में प्रतिवाद किया, “ईश्वर की इच्छा हो तो कुछ भी सम्भव हो सकता है।” 

“न मैं ईश्वर से विवाद करती हूँ, न उसकी इच्छा का विरोध।” कुन्ती बोलीं, “किन्तु ईश्वर की बनाई इस प्रकृति के भी कुछ नियम हैं। सहस्त्रों योजन की यात्रा में किसी लहर ने उस मंजूषा को नहीं डुबोया, कहीं जल उसमें प्रविष्ट नहीं हुआ, किसी महामत्स्य अथवा ग्राह ने उस पर आक्रमण नहीं किया, कोई डोंगी, कोई नौका अथवा जलपोत उसके मार्ग में नहीं आया, किसी भँवर ने उस मंजूषा को नहीं घेरा, उस नवजात शिशु को इतने दीर्घ काल तक न भूख ने पीड़ित किया, न प्यास ने। वह तो जैसे अमृत पी कर सोया हुआ था।…सहस्त्रों योजनों की उस यात्रा में, मार्ग में किसी और मनुष्य ने उस मंजूषा को नहीं देखा, किसी ने उसे नहीं रोका…। वह सीधी अधिरथ के पास जा पहुँची, जैसे उसपर अधिरथ का नाम और पता लिखा हुआ था।” 

“मैंने कहा न कि यह ईश्वर की इच्छा थी।” कर्ण कुछ रोषपूर्वक बोला, “वह मेरे जीवन की रक्षा करना चाहता था।” 

“जब अपने जीवन की रक्षा को तू ईश्वरीय विधान मानकर सन्तुष्ट है, तो जननी द्वारा अपने त्याग और अधिरथ सूत के घर पालन-पोषण को भी ईश्वरीय विधान क्यों नहीं मानता? उसके लिए तू अपनी माँ से क्यों रुष्ट है?” कुन्ती की दृष्टि जैसे कर्ण के हृदय के आर-पार देख रही थी, “पर तू वह क्यों मानेगा, जिसमें किसी दूसरे को अपना अपराधी घोषित कर, उसे दण्डित न कर सके। वैसे भी तुझे अभ्यास हो गया है, स्वयं को एक दिव्य पुरुष मानने का। तू सूर्यपूत्र है। अलौकिक रूप पाया है तूने। मंजूषा में रख कर जल में प्रवाहित किया गया और ईश्वर स्वयं हाथों से मंजूषा को खेकर, अधिरथ के पास ले गये, और आदेश दिया, ‘इसका पालन-पोषण करो। यह दिव्य सन्तान है। बड़े होकर बहुत सारे असाधारण कार्य करने हैं इसे। कुलवधुओं का अपमान करना है…माता को हत्यारिणी घोषित करना है…भाइयों का वध करने की प्रतिज्ञा पूरी करती है इसे।’…पर वे तेरी मंजूषा मेरे पास क्यों लाते। मैं तो हत्यारिणी हूँ। मुझ हत्यारिणी की गोद में, तुझ जैसा एक दिव्य पुरुष कैसे पलता।” 

कर्ण सिर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा। कुछ क्षणों के पश्चात् उसने दृष्टि उठाई, “तो सत्य क्या है माता?” 

कुन्ती चौंकी…कर्ण ने उसे माता कह कर सम्बोधित किया था।…इसका कुछ तो अर्थ होगा…उसका मन कहीं तो थोड़ा पिघला होगा…

“सत्य यह है पुत्र! कि मेरे पिता महाराज कुंतिभोज, न अपनी पुत्री की कानीन सन्तान को समाज के सम्मुख स्वीकार करना चाहते थे, न उसकी हत्या का पाप अपने सिर लेना चाहते थे। इसलिए किन्हीं सूत्रों से सन्तानहीन राधा और अधिरथ से सम्पर्क कर, तुम्हें उन्हें सौंप वे सन्तुष्ट हो गये। मैं तब इस स्थिति में नहीं थी कि उनके मन को जान पाती, अथवा उनके द्वारा की गयी सारी व्यवस्था की जानकारी प्राप्त करने में सफल हो पाती। मैं तो बस इतना ही जान पायी कि तुझे हस्तिनापुर के किसी अधिरथ सूत को सौंपा गया है।…” कुन्ती बोलीं, “पिता चाहते थे कि मैं तुम्हें भूल जाऊँ; पर मैं तुझे कैसे भूल सकती थी। मैंने अपने स्वयंवर में हस्तिनापुर के युवराज का वरण किया, ताकि हस्तिनापुर आ सकूँ। तुझे खोज सकूँ। जानती थी कि हस्तिनापुर की सम्राज्ञी होकर भी तुझे पुनः प्राप्त नहीं कर सकती। तुझे न तो मेरा पितृकुल स्वीकार करेगा, न श्वसुरकुल।…किन्तु मन चाहता था कि तुझे देख सकूँ। दूर से ही सही, पर निहार सकूँ।…तुझे गोद में न भी ले सकूँ, तो तेरे सम्मुख तो बैठ सकूँ।…तेरे मुख से अपने लिए ‘माता’ सम्बोधन न भी सुन सकूँ, तो तुझे ‘पुत्र’ कह कर तो पुकार सकूँ।” कुन्ती का स्वर रुँध गया। वे आगे बोल नहीं सकीं। 

कर्ण का प्रतिशोध जैसे पिघलने लगा था। वह आकर कुन्ती के सम्मुख खड़ा हो गया। उसने अपनी तर्जनी से कुन्ती के अश्रु पोंछे, “पर ऐसा क्यों हुआ माता? कुंतिभोज मुझे स्वीकार क्यों नहीं कर सकते थे? पराशर ने कृष्ण द्वैपायन व्यास को स्वीकार किया था कि नहीं?” 

“पराशर ऋषि थे। ऋषि प्रत्येक जन्म को दिव्य मानता है। दुर्वासा भी यही मानते थे।” कुन्ती बोलीं, “किन्तु कुंतिभोज राजा हैं। राजपरिवारों में कानीन पुत्रों को मान्यता नहीं मिलती पुत्र! शान्तनु ने कृष्ण द्वैपायन व्यास को अपना पुत्र स्वीकार नहीं किया। सत्यवती भी मेरे समान अपने पति तथा श्वसुरकुल को अपनी कानीन सन्तान की सूचना नहीं दे सकीं। वे अपने हाथों से उसका पालन-पोषण नहीं कर सकीं। महाराज शान्तनु की मृत्यु के पश्चात् व्यास समर्थ ऋषि हो कर, इस वंश की सहायता के लिए ही हस्तिनापुर के राजप्रासाद में प्रवेश पा सके। यदि महाराज शान्तनु ने दीर्घायु पायी होती, अथवा कुरुवंश सन्तानहीनता के संकट में नहीं पड़ा होता, तो शायद माता सत्यवती भी महर्षि को राजप्रासाद में बुलाने का साहस न कर पातीं।…” 

“पर यदि ऋषि स्वीकार करते हैं, तो राजवंशों को इसमें क्या आपत्ति है? धर्म के नियामक तो ऋषि ही हैं।” 

“तुम नहीं जानते क्या?” कुन्ती वितृष्णा से मुस्कराई, “ऋषि का चिन्तन समाजहित से प्रेरित होता है और राजवंश का स्वार्थ से। ऋषि के पास देने के लिए केवल ज्ञान है, जो कि वह किसी भी योग्य पात्र को दे सकता है। एक को दे देने से उसका ज्ञान चुक नहीं जाता, कि दूसरे को उत्तराधिकार में कुछ दे न सके।…राजा के पास राज्य है, जिसे वह अपनी मृत्यु के पश्चात् भी अपनी सन्तान के माध्यम से अपने ही पास रखना चाहता है। यदि कानीन पुत्र को पुत्र मान लिया जाये, तो वह सारे पुत्रों में ज्येष्ठ होगा। और राजा को अपनी औरस सन्तान के होते हुए भी अपना राज्य अपने कानीन पुत्र को ही देना पड़ेगा…हाँ! औरस पुत्र का जन्म न हो तो राजा क्षेत्रज अथवा दत्तक को स्वीकार करता है; किन्तु कानीन पुत्र को वह तब भी मान्यता नहीं देता।” 

सहसा कर्ण चौंका…वह समाजशास्त्र पर चर्चा करने के लिए तो यहाँ नहीं रुका था। आज उसके सम्मुख वह स्त्री खड़ी थी, जिसे वह आज तक अपने शत्रुओें की माता जानता आया था; और आज वह कह रही है कि वह उसकी जननी है…आज तक जिससे घृणा करता रहा था, आज वह बता रही है कि उसे उससे कितना प्यार करना चाहिए था।…कर्ण अपने मन की दृढ़बद्ध धारणाएँ नहीं मिटा सकता था। उसके मन के विरोध, उपालम्भ और कष्ट—इस एक सूचना से धुल तो नहीं गये थे।…वह इस स्त्री को माँ का सम्मान कैसे दे सकता था? किन्तु वह अपने मन को उसके चरणों में लोटने से रोक भी कैसे सकता था। उसके मस्तिष्क में निरन्तर विस्फोट हो रहे थे, “जन्म के समय कुछ नहीं कर सकीं, तो बाद में हस्तिनापुर आकर क्यों नहीं खोजा मुझे?” 

“खोजना तो बहुत चाहा तुझे।” कुन्ती बोलीं, “किन्तु क्या कह कर खोजती तुझे? मैं तो बस एक नाम जानती थी कि तू अधिरथ के घर में है।…किन्तु अधिरथ कौन है? कहाँ है? तेरा नाम क्या है?” 

“क्यों, तुम किसी से भी पूछकर अधिरथ के घर आ सकती थीं। मुझे बता सकती थीं।” कर्ण का आक्रोश जैसे चुक ही नहीं रहा था। कुन्ती के तर्कों से वह सागर की लहरों के समान पीछे हट जाता था; और थोड़ी देर में दूसरी लहर के रूप में पुनः लौट आता था। 

कुन्ती अपने क्षोभ के मध्य भी हँसी, “यदि इस प्रकार पूछ-पड़ताल कर, मैं अधिरथ के घर पहुँचकर, तुझे गोद में उठाकर कहती, ‘पुत्र! मैं तेरी जननी हूँ।’ तो उस रहस्य की रक्षा कैसे होती, जिसके लिए तुझे स्वयं से पृथक् करना पड़ा था? अपने पितृकुल और श्वसुरकुल के सम्मान की रक्षा कैसे करती मैं?” कुन्ती कुछ रुकीं, किन्तु उन्होंने कर्ण को बोलने का अवसर नहीं दिया, “मैंने तुझे तब जाना, जब तू रंगशाला में अर्जुन से भिड़ चुका था और अधिरथ ने आकर, तुझे पुत्र के रूप में सम्बोधित किया था।…” 

“तो तभी बता देतीं तो कौन-सा आकाश गिर पड़ता?” 

“आकाश गिरने के लिए नहीं बना पुत्र! इसलिए वह तो नहीं गिरता, न ही गिरा; किन्तु मेरे मन-मन्दिर में बने अनेक स्वर्णिम प्रासाद गिर गये। मेरी आशंकाएँ ध्वस्त हो गयीं, मेरी इच्छाएँ जलकर क्षार हो गयीं।” कुन्ती बोलीं, “तब तक तू दुर्योधन का परम मित्र बन चुका था। उस दुर्योधन का, जिसने भीम को विष खिलाकर, अचेतावस्था में उसे बाँधकर, नागों से दंशित करवाने के लिए गंगा की धारा में डाल दिया था…तब तक तू अर्जुन का शत्रु बन चुका था…तू आचार्य द्रोण से रुष्ट हो चुका था।…भगवान परशुराम से झूठ बोलकर षड्यन्त्रपूर्वक, उनकी विद्या चुराने का अपराधी बन चुका था।” 

“क्यों? मुझे द्रोण से विद्या सीखने का अधिकार क्यों नहीं था? क्योंकि मैं सूतपुत्र था?…” कर्ण विषाक्त वाणी में बोला, “कितना अपमानित हुआ हूँ मैं कितना…।” 

“मैं आचार्य का पक्ष नहीं लेती। उसकी कोई बाध्यता नहीं है मेरे लिए; किन्तु विद्या का दान तो गुरु की इच्छा से मिलता है, उसकी सेवा करने पर मिलता है। हम किसी के कंठ पर अपना चरण धर कर, उससे बलात् विद्या नहीं सीख सकते…। विद्या दस्युवृत्ति से नहीं मिलती पुत्र! सेवावृत्ति से मिलती है।” 

“किन्तु मैं सुपात्र था।” कर्ण बोला, “क्षत्रियों का ऐसा कौन-सा गुण है, जो किसी और मैं है और मुझमें नहीं है?” 

“कौन कहेगा कि एकलव्य सुपात्र नहीं था। तू अपनी तुलना एकलव्य से कर।” कुन्ती बोली, “गुरु ने उसका तिरस्कार किया, तो उसने हठ नहीं की। नीचता पर नहीं उतरा वह। किसी से झगड़ा नहीं किया। मनुष्य की धातु उसके असफलता के क्षणों में ही पहचानी जाती है।…एकलव्य किसी और गुरु के पास नहीं गया। आचार्य को ही अपना गुरु माना और साधना की। जिस गुरु ने उसका तिरस्कार किया था, उसी को उसने गुरुदक्षिणा दी।…मैं नहीं कहती कि आचार्य ने उचित किया। यह भी नहीं कहती कि प्रत्येक व्यक्ति को एकलव्य का सा आचरण करना चाहिए…केवल तुझे बता रही हूँ कि तेरे साथ कोई अत्याचार नहीं हुआ। कोई ऐसा अन्याय अथवा अधर्म नहीं हुआ कि तू पाण्डवों के प्राणों का ग्राहक हो गया। आज तक तू उनका शत्रु बना हुआ है और उनका वध करने को प्रयत्नशील है।” 

“तो पाण्डवों ने कौन-सा मेरे साथ उचित व्यवहार किया।” कर्ण कटु स्वर में बोला, “भीम और अर्जुन ने क्या कहनी-अनकहनी नहीं कहीं मुझे। वे मेरे प्राणों के ग्राहक नहीं हैं क्या?” 

“कितनी बार उन्होंने तेरे प्राण लेने का प्रयत्न किया? कितनी बार उन्होंने तेरी हत्या का षड्यन्त्र रचा? कितनी बार उन्होंने सेना ले कर तेरे वध का अभियान किया?” कुन्ती का तेजस्वी स्वर गूँजा, “तेरा तिरस्कार आचार्य ने किया और तू अर्जुन का शत्रु हो गया, क्योंकि वह आचार्य को प्रिय था। तू क्या समझता है कि तू अर्जुन का वध कर देगा तो आचार्य तुझसे प्रेम करने लगेंगे? अर्जुन उनका सर्वाधिक प्रिय शिष्य है, फिर भी उन्होंने अश्वत्थामा को उससे अधिक शिक्षा दी है। तू उससे ईर्ष्या क्यों नहीं करता? उसके वध के लिए षड्यन्त्र क्यों नहीं रचता?” 

“पाण्डवों से तो मेरी शत्रुता इसलिए है, क्योंकि वे मेरे मित्र दुर्योधन के शत्रु हैं।” कर्ण बोला। 

“पाण्डव दुर्योधन के शत्रु नहीं हैं। दुर्योधन पाण्डवों का शत्रु है। दुर्योधन ने उनके प्राण लेने के प्रयत्न किये, उसने उनका राज्य छीना, उन्हें अपमानित किया और उसकी प्रतिक्रिया में पाण्डवों ने क्या किया?” कुन्ती का स्वर जैसे उसके वक्ष को चीरता हुआ निकल रहा था, “आज भी युधिष्ठिर पाँच ग्राम ले कर सन्धि के लिए तत्पर बैठा है। वह आज भी दुर्योधन को अपना भाई मानता है। उसके मन में आज भी दुर्योधन के लिए घृणा नहीं है।” 

“और भीम?” 

“भीम ने अवश्य प्रतिज्ञाएँ की हैं; किन्तु वह भी धर्मराज की आज्ञा से बाहर नहीं है।” 

उन दोनों के मध्य एक सन्नाटा सा छा गया। कर्ण कुछ कह नहीं रहा था; किन्तु उसका मन कुन्ती से सहमत नहीं हो पा रहा था। उसे मौन देख कर कुन्ती ही बोलीं, “अब जब तू सब कुछ जान ही गया है तो अपनी वृद्धा माँ को सहारा दे, अपने भाइयों की भुजा थाम, छोड़ दे अपनी तामसिक हठ। कुरुवंश को उसके सम्पूर्ण नाश से बचा।” 

“यह सम्भव नहीं है माँ! मैं दुर्योधन को नहीं छोड़ सकता।” कर्ण बोला, “मेरा मन अब भी यही कहता है कि हस्तिनापुर में सबने मेरी महत्वाकांक्षाओं का दमन किया, मेरा तिरस्कार किया। बस एक दुर्योधन ही था, जिसने अपनी मित्रता निभाई। मुझे मान, सम्मान दिया, धन दिया, पद दिया…। मैं उससे विश्वासघात नहीं कर सकता।” 

कुन्ती ने कुछ नहीं कहा। 

“क्यों? तुम सहमत नहीं हो माँ।” 

“नहीं।” कुन्ती का स्वर कठोर था, “तेरी महत्वाकांक्षाएँ अपने स्थान पर ठीक थीं; किन्तु यदि किसी की महत्वाकांक्षा पूरी न हो, तो उसे यह अधिकार नहीं है कि वह अधर्म पर उतर आये; वह दस्यु बन जाये, अथवा दस्युओं के दल में सम्मिलित हो जाये।…युधिष्ठिर जानता था कि धृतराष्ट्र उसे लूट रहे हैं, फिर भी उसने पिता की आज्ञा आ उल्लंघन नहीं किया। वह जानता था कि उसके साथ छल हो रहा है, फिर भी वह अपने वचन से पीछे नहीं हटा। तेरी महत्वाकांक्षा क्या है? दुर्योधन जैसे पापी के चरण धो-धो कर पीना? इस आकांक्षा में कौन-सी महानता है? हाँ अपने महत्त्व की आकांक्षा है।…महत्वाकांक्षा युधिष्ठिर की है, जो इस सारे राज्य को त्याग कर केवल तपस्या करना चाहता है। वह राज्य नहीं चाहता, धर्म चाहता है, सत्य चाहता है, ईश्वर चाहता है। महत्वाकांक्षा तो अर्जुन की है, जो तपस्या के वरदान से मिली उर्वशी को त्याग आया। पांडवों को अधर्म नहीं चाहिए। अधर्म के माध्यम से कोई सुख-सुविधा नहीं चाहिए।…” 

“युधिष्ठिर की बात तो मैं फिर भी कुछ-कुछ समझता हूँ।” कर्ण ने कुन्ती की बात काट दी, “किन्तु मेरे सम्मुख अर्जुन का बखान मत करो। क्या है अर्जुन? एक साधारण-सा निस्पृह प्राणी…क्या महानता है उसमें? उस केंचुए में?…” 

“मेरी बात सुन!” लगा, कुन्ती किसी अलौकिक शक्ति से आविष्ट हो गयी थीं, “जिस पांचाली ने तुझे स्वयंवर में भाग लेने से रोक दिया और तू अपनी क्षुद्रता पर उतर आया कि नारी का ऐसा अपमान करने लगा, उस पांचाली को जय करके लाया था अर्जुन! मेरे एक संकेत पर उसने पांचाली धर्मराज को सौंप दी। तनिक-सा मोह नहीं किया उसने। स्वयंवर में उसने जिसे स्वयं जीता था, उस पांचाली को भाई के साथ एकान्त में देख लेने मात्र के अपराध में बारह वर्षों तब इन्द्रप्रस्थ से बाहर भटकता रहा वह। हिमालय पर वर्षों तपस्या कर पाशुपतास्त्र पाया उसने। किसी गुरु से झूठ बोल, पाखंड कर, धनुर्विद्या पाने का प्रयत्न नहीं किया।” कुन्ती ने आगे बढ़, उसके हनु के नीचे अपनी तर्जनी रख, उसका मुख ऊपर उठाया, “ऐसा क्या असाधारण है तुझमें कि स्वयं को इतना महान् मानता है तू? असाधारण गिनता है स्वयं को? दिव्य पुरुष समझने लगा है स्वयं को। उषा-सी सुनहली त्वचा पाकर मनुष्य महान् नहीं हो जाता। मनुष्य महान् होता है अपने आचरण से, अपने कर्मों से।…धर्म, अधर्म की पहचान नहीं है तुझको। एक पापी से महत्त्व मिला तो उसी का हो गया। उसे मित्र कहता है तू? जानता है, दुर्योधन की मैत्री क्या है? तेरी आत्मा का हनन। मित्र वह होता है जो मित्र का हित साधता है, उसे धर्म के मार्ग पर ले चलता है, उसकी आत्मा का उन्नयन करता है। तेरे मित्र तेरे साथ क्या कर रहे हैं? या तू उनके साथ मिलकर क्या कर रहा है—राक्षसी कृत्य। नारकीय योजनाएँ। कहाँ जाकर रुकेगी तेरी आत्मा?…रसातल में? एक पाण्डवों का मित्र है कृष्ण…।” 

“ठहरो माँ!” कर्ण का क्षुब्ध स्वर सुनाई दिया, “मैं समझता हूँ कृष्ण और दुर्योधन का अन्तर। मुझे भी कृष्ण मिले होते…।” 

“कृष्ण मिला है, इसलिए पाण्डव धर्म पर नहीं चल रहे।” कुन्ती के तीव्र स्वर ने उसकी बात काट दी, “पाण्डव धर्म पर चल रहे हैं, इसलिए कृष्ण उनका मित्र बना। कृष्ण को धर्म चाहिए। तुझे केवल मैत्री चाहिए। मैत्री चाहे हत्यारों की हो, पापियों की हो, आततायियों की हो।” 

“कैसी माँ हो तुम, जिसे अपने महावीर पुत्र में कोई गुण दिखायी नहीं देता।” कर्ण की सारी कोमलता लुप्त हो गयी थी और उसका स्वर बहुत कठोर हो गया था, “मुझमें कोई गुण नहीं है, तो मुझे खोजती हुई यहाँ तक क्यों आयी हो देवि!” 

उसके इस परिवर्तन से कुन्ती सर्वथा अप्रभावित रहीं। उतनी ही कठोरता से वे भी बोलीं, “भाइयों को एक-दूसरे का रक्त बहाने से रोकना चाहती हूँ। अपने पाँच पुत्रों की जीवन रक्षा की इच्छा से आयी हूँ।…अपने छठे पुत्र को अपनी आत्मा के हनन से रोकना चाहती हूँ।…किन्तु तेरा अहंकार कुछ गले तब न! तेरी हृदय-शिला में अपने भाइयों के लिए स्नेह का कोई उत्स फूटे…।” 

“मुझमें कोई गुण तो देखा होता माँ!” कुन्ती की फटकार से कर्ण का मन जैसे रो पड़ा, उसकी भंगिमा अनुनय करने की सी हो गयी, “कब से प्रयत्न कर रहा हूँ कि मेरे भी किसी गुण को मान्यता मिले। जिसने निर्गुण ब्रह्म को नहीं पहचाना, उसकी शालिग्राम की भक्ति को भी सराहा जाता है। मैंने जिन्हें भाइयों के रूप में जाना ही नहीं, उनके लिए स्नेह कहाँ से लाऊँ। हाँ! जिसे मित्र माना है, जिसे अपने शैशव से प्रेम और सम्मान की दृष्टि से देखा है, उसके प्रति अब कठोर नहीं हो सकता।…जीवन में कोई उदार कर्म किया हो या न किया हो, किन्तु अपनी मैत्री का निर्वाह तो कर रहा हूँ। धर्म के प्रति न सही, किन्तु मित्र के प्रति तो निष्ठा में कोई कमी नहीं है।…” 

कुन्ती हँसीं, जैसे साक्षात् कटुता ही आकर उनके अधरों पर विराजमान हो गयी हो, “कितने गर्व से कह रहा है, पाप के प्रति तो निष्ठा है मुझमें। अच्छा होता कि यह निष्ठा तुझमें न होती।…” 

कर्ण मौन खड़ा कुन्ती को देखता रहा : उसके पास कुन्ती की बात का कोई उत्तर नहीं था। ठीक कह रही थी माँ। कर्ण में निष्ठा तो थी, किन्तु दुर्योधन के प्रति, क्योंकि उसने कर्ण की प्रशंसा की, उसका सम्मान किया, उसे अपना मित्र माना…तो उसकी निष्ठा उसके अपने प्रति थी।…यदि दुर्योधन भी उसका वह मान-सम्मान न करता तो?… 

“तुम जो कुछ भी कहो, माँ! किन्तु अब मैं दुर्योधन को नहीं छोड़ सकता।” कर्ण बोला, “श्रीकृष्ण ने जब से मुझे तुम्हारे विषय में बताया है, तब से ही मेरे मन ने बहुत चिन्तन-मनन किया है; किन्तु मुझे और कोई मार्ग नहीं मिला है। मैं पाण्डवों की-सी वृत्ति अंगीकार नहीं कर सकता। यदि मैं उनके ज्येष्ठ सहोदर के रूप में उनके साथ खड़ा हो गया, तो न मैं युधिष्ठिर के मार्ग पर चल पाऊँगा, न वे अपना मार्ग त्याग मेरे साथ चल पायेंगे। युधिष्ठिर अपना सिंहासन मुझे दे देगा; और मैं उसे दुर्योधन के चरणों में अर्पित कर दूँगा। पाण्डवों को क्या मिलेगा माँ! मुझे अग्रज के रूप में प्राप्त कर? जो राज्य वे दुर्योधन से लड़ कर, उसे जय कर प्राप्त कर सकते हैं—वह भी उनसे छिन जायेगा। वे सर्वथा कंगाल हो जायेंगे। मुझे अग्रज के रूप में पाकर वे कुछ नहीं कर पायेंगे माँ!” 

कुन्ती मौन हो गयीं : कर्ण ठीक कह रहा था।….यह जानकर कि कर्ण उससे ज्येष्ठ है, युधिष्ठिर कभी सिंहासन पर नहीं बैठेगा…और कर्ण, वह राज्य दुर्योधन को दे ही देगा। उसकी आत्मा दासी है दुर्योधन की। कुन्ती इसलिए तो कर्ण को मनाने नहीं आयी थीं कि पाण्डवों की राज्य-प्राप्ति की सारी सम्भावनाएँ ही समाप्त हो जायें और कर्ण के ही समान, ये पाँचों भी, उस अधर्मी दुर्योधन के दास हो जायें।… 

“तू उस अधर्मी दुर्योधन का संग छोड़ दे पुत्र! अपने भाइयों के पास लौट आ।” कुन्ती धीरे से बोलीं, “तुझे मित्र ही चाहिए तो कृष्ण से मैत्री कर।” 

“अब यह सम्भव नहीं है माँ! यह सत्य है कि लता का जन्म भूमि से होता है; किन्तु जिस वृक्ष से लिपटकर वह आकाश की ओर उठती है, यदि उस वृक्ष से उसे पृथक करोगी, तो वह लता छिन्न-भिन्न तो होगी ही, जीवित भी नहीं रह पायेगी।” कर्ण बोला, “यह जानकर भी कि तुम मेरी जननी हो, जैसे मैं अपनी माता को त्याग नहीं सकता, वैसे ही यह जानकर भी कि युधिष्ठिर मेरा सहोदर है, मैं दुर्योधन को त्याग नहीं सकता।” 

कर्ण की आँखों में कुन्ती उसकी असहायता को पढ़ रही थीं। 

“पुत्र, तू पाण्डवों के पक्ष में नहीं आना चाहता, तो मत आ।” कुन्ती बोलीं, “किन्तु दुर्योधन का पक्ष तो त्याग दे। मैं नहीं चाहती कि मेरी ही सन्तान, परस्पर युद्ध कर, एक-दूसरे का रक्त बहाए।” 

“तुम बहुत देर से आयी हो माँ!” कर्ण ने कुन्ती की ओर अपनी पीठ कर ली थी, “मेरे मन में बहुत कटुता थी तुम्हारे लिए। माँ के वात्सल्य का अमृत जो नहीं पाया था। वंश का चाहे कोई महत्त्व न हो, जाति चाहे जन्म से नहीं कर्म और आचरण से निर्धारित होती हो; किन्तु मैंने उसी के कारण बहुत विष पीया है। मेरा रक्त बहुत विषाक्त हुआ है।…अब शायद तुम्हारे स्नेह का अमृत मेरे दग्ध हृदय को कुछ शान्ति दे, मेरे आचरण में परिवर्तन आये; किन्तु क्षत्रिय होकर मैं युद्ध से पीछे नहीं हट सकता। यदि मेरा और अर्जुन का युद्ध न हुआ, तो हम दोनों ही क्षत्रिय समाज में कलंकित होंगे कि युद्ध से पलायन के लिए हम दोनों ने इस सम्बन्ध की कल्पना कर ली है।” कर्ण ने रुक कर कुन्ती की ओर देखा, “सत्य कहूँ तो इस युद्ध के लिए दुर्योधन भी उतना उत्सुक नहीं था, जितना मैं था। इस युद्ध का सूत्रधार मैं ही हूँ माँ! मेरे ही भरोसे दुर्योधन ने इस युद्ध को आमन्त्रित किया है। अब यदि मैं ही युद्ध से पलायन कर गया, तो मैं कौन सा पुण्य कमाऊँगा माँ! अब तक बहुत से पाप किये हैं मैंने किन्तु युद्ध का त्याग उन सबसे बड़ा पाप होगा।” 

“तो ठीक है। युद्ध में अपने सहोदरों का वध करके पुण्य कमा।” कुन्ती का स्वर पर्याप्त प्रखर हो गया, “अपनी मैत्री के प्रमाण में अपने सहोदरों के शव दुर्योधन को भेंट कर। सहोदरों के रक्त से अपनी मित्रता की लता को सींच।…इस धरती पर से धर्म का बिरवा उखाड़ फेंक और अधर्म के वृक्ष की छाया में सदा के लिए बैठा रह। पुण्य-सलिला को पाट दे और पाप के सागर में निमग्न हो जा।” 

“नहीं माँ! अब यह नहीं होगा। अपने संचित कर्मों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता। कर्म-बन्धनों को मैं काट नहीं सकता; किन्तु कोई नया कुकर्म नहीं करूँगा।” कर्ण के नेत्रों में आकाश की सी स्वच्छता थी। उसके मुखमण्डल पर सात्विक तेज था, “तेरे वात्सल्य का अमृत, मेरे रक्त के विष का कुछ तो निराकरण करेगा ही। …मैं पिछले दो दिनों में बहुत बदल गया हूँ माँ! यह परिवर्तन तुम्हें मेरे आचरण में भी दिखायी देगा।” 

कुन्ती एकटक अपने उस पुत्र को देख रही थीं, जो इस समय सचमुच ही कुछ दिव्य हो आया था। 

“मैं दुर्योधन को त्याग नहीं सकता माँ! मैंने अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा की है। मैं अपनी प्रतिज्ञा से स्खलित नहीं हो सकता।” उसने कुन्ती की आँखों में देखा, “किन्तु एक वचन तुम्हें भी देता हूँ। मैं शेष चार पाण्डवों का वध नहीं करूँगा। वे मेरे हाथ में आ भी गये, तो उन्हें जीवित छोड़ दूँगा। उन्हें जीवन का दान दूँगा।” 

कुन्ती समझ नहीं पायीं कि वे प्रसन्न थीं अथवा अप्रसन्न। यह उनकी कोई उपलब्धि थी अथवा पूर्ण पराजय… 

“तो मैं केवल चार पाण्डवों की माता रहीं जाऊँगी?” 

“नहीं माँ! तू पाँच पुत्रों की माता रहेगी। यदि मैं अर्जुन के हाथों मारा गया तो तू पाँच पाण्डवों की माता रहेगी और यदि विधि ने अर्जुन की अल्पायु लिखी है…यदि युद्ध में उसे मेरे हाथों वीरगति प्राप्त हुई, तो भी तेरे पाँच ही पुत्र जीवित रहेंगे।…” कर्ण ने कुन्ती के चरण स्पर्श किये और अपने अश्रु छिपाता हुआ, आगे बढ़ गया। 

(नरेंद्र कोहली के उपन्यास, 'कुंती' से) 
० विजय शंकर सिंह 

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