Saturday 22 April 2023

अडानी समूह से जुड़े मनी लांड्रिंग के सवालों पर सरकार की चुप्पी अब भी बरकरार है / विजय शंकर सिंह

"ये घर मुझे 19 साल के लिए हिंदुस्तान की जनता ने दिया, मैं उनका धन्यवाद करना चाहता हूं। सच की आवाज़ और जनता के मुद्दे दोगुने ज़ोर से उठाता रहूंगा।"
राहुल गांधी ने अपना सरकारी आवास, खाली करने के बाद, बंगले की चाभी, संबंधित अधिकारी को सौंपने के बाद, यह बात प्रेस से कही।

यही यह सवाल उठता है कि, क्या कोई अन्य, पूर्व सांसद भी किसी सरकारी बंगले में अब नहीं रह रहा है? यदि रह रहा है तो, उससे अब तक सरकारी आवास क्यों नहीं खाली कराया गया? क्या उसे आजीवन बंगले में रहने की अनुमति दी गई है? यदि ऐसी अनुमति दी गई है क्या ऐसी अनुमति का कोई प्राविधान है? आदि आदि यह सब जिज्ञासाएं उठेंगी। 

सांसद न होने के बाद भी सरकारी बंगले में रह रहे कुछ नेताओं की लिस्ट भी देख लें, 
० भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी (2019के बाद से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं) 
० भाजपा के ही डॉ. मुरली मनोहर जोशी (2019 के बाद से किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं)
० बसपा सुप्रीमो मायावती (2017 के बाद से किसी सदन की सदस्य नहीं हैं)
० कांग्रेस के पूर्व दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद (किसी सदन के सदस्य नहीं हैं)
० कांग्रेस नेता आनंद शर्मा (अप्रैल 2022 में ही इनका राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हो चुका है.) 
० बीजेपी के वाईएस चौधरी (अप्रैल 2022 के बाद से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं)
जबकि, राहुल गांधी की सदस्यता 24 घंटे में रद्द किए जाने के तुरंत बाद उनसे नोटिस देकर एक महीने के अंदर ही सरकारी आवास खाली करा लिया गया..! 

मोदी सरनेम धारी मुकदमे में अधिकतम सजा, संसद से अयोग्यता और अब सरकारी बंगला खाली कराने के मामलों में कोई भी कार्यवाही अनियमित नहीं हुई है। कानून ने अपना काम किया है। फिर भी यह घटनाएं जितनी तेजी से घटी हैं, उनसे अनेक संशय खड़े होते हैं। और उन पर चर्चा भी चल रही है। 

अडानी और मोदी जी के रिश्ते क्या हैं, इस पर सवाल उठ रहे हैं, और इस सवाल को जितना ही दबाने की कोशिश की जा रही है, यह सवाल उतनी ही तेजी से प्रासंगिक होते जा रहे हैं। दरअसल अडानी - मोदी के रिश्ते पर जब बात उठती है तो यह प्रधानमंत्री जी के अडानी से निजी रिश्तों तक जाकर केंद्रित हो जाती है। यह सवाल, अडानी और सरकार, या अडानी और बीजेपी या अडानी या आरएसएस रिश्तों तक उतनी नहीं पहुंचती है, बल्कि अडानी मोदी रिश्तों तक ही सीमित रहती है। 

यह कहा जा सकता है कि, पीएम के देश के शीर्षस्थ उद्योगपति के साथ रिश्ते, मित्रता हों तो इसमें आपत्ति क्या है। और सच पूछिए तो, इसमें आपत्ति कुछ भी नहीं है। पूंजीवादी लोकतंत्र में सत्ता का उद्योगपति समूहों से निकटता कोई हैरानी की बात नहीं है। हमारा अर्थतंत्र, बजट, टैक्स ढांचा, विकास की योजनाएं आदि आदि, भले ही जनहित के नाम पर लाई जाती हों, पर वे पूंजीपतियों को ही केंद्र में रख कर गढ़ी जाती हैं। उन्ही के हित में कर व्यवस्था से लेकर कामगारों से जुड़े कानून को, रूप दिया जाता है। ऐसे तंत्र में सत्ता हो या विपक्ष, दोनो के ही संबंध पूंजीपतियों से रहेंगे। उनके गुट होते है। लॉबिंग होती है। पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में, इससे बचा नहीं जा सकता है। 

पर आपत्ति और संशय तब उठते हैं, जब  कोई खास पूंजीपति, इसी निकटता या मित्रता का लाभ लेकर अपनी पूंजी और हैसियत दिन दूनी और रात चौगुनी गति से बढ़ाता चला जाता है, और सरकार, उसी शीर्ष मित्रता के कारण, उसी पूंजीपति के हित में, नियमों को शिथिल करती जाती है। अपवाद के उदाहरण बनाती है। और तो और सरकारी जांच एजेंसियों सीबीआई ईडी आदि का इस उद्देश्य से दुरुपयोग करने लगती है, जिससे अंततः लाभ उसी एक पूंजीपति को पहुंचने लगता है। यह सब ठंडे दिमाग से रचे गए एक साजिश के अंतर्गत होता है और ऐसा हुआ भी है। आज के संदर्भ में, उस एक चर्चित पूंजीपति का नाम गौतम अडानी है और नियमों में शिथिलता, उस पूंजीपति को एयरपोर्ट से लेकर, कोयला खदान देने तक लगभग हर बड़े मामले में दी गई है। रहा सवाल, सीबीआई, ईडी इनकम टैक्स विभाग के सेलेक्टिव दुरुपयोग कर, मुंबई एयरपोर्ट, सहित कुछ अन्य एयरपोर्ट और सीमेंट कंपनिया जिस तरह से अडानी समूह ने हथियाई हैं, उनके विस्तृत विवरण की तह में आप जायेंगे तो, यह सब, आप सच पाएंगे। आर्थिक पत्रकारिता से जुड़ी पत्रिकाएं और अखबार,  इन पर रोज लेख लिख रहे है। यह सिलसिला अब भी जारी है। 

पर इस रिश्ते पर, सवाल तब उठा जब गौतम अडानी के भाई विनोद अडानी, जो एक आर्थिक अपराधी है ने, फर्जी शेल कंपनियों के माध्यम से, मनी लांड्रिंग कर के धन भारत भेजा और उसे रक्षा क्षेत्र में निवेश किया।  सवाल तब उठा, जब अडानी के शेयर के ओवर प्राइसिंग घोटाले का राज खुला और सच सामने आया। सवाल तब उठा जब इस सारे मामले में सेबी SEBI खामोश रहा और जब हंगामा हुआ तो उसने दिखावे के लिए कार्यवाही शुरू की। सवाल तब उठा जब, सरकार के सीलबंद लिफाफे में दिए गए प्रस्तावित जांच कमेटी के नामों को सुप्रीम कोर्ट ने डस्टबिन में फेंक कर खुद ही कमेटी गठित कर दी। सवाल तब उठा जब संसद में दिए गए राहुल गांधी के भाषण को लोकसभा के स्पीकर ने सदन के कार्यवाही से निकाल दिया। सवाल तब उठा जब संसदीय इतिहास में सत्तारूढ़ दल ने सदन की कार्यवाही लगातार बाधित सिर्फ इसलिए की कि, विपक्ष अडानी मामले पर बहस न करे। सवाल तब उठा जब जेपीसी गठन  की मांग सरकार ने नहीं मानी। और सवाल तब उठा, जब इस पूरे अडानी मामले पर पीएम नरेंद्र मोदी खामोश रहे और आज तक खामोश हैं। यह सारे सवाल अब भी उठ रहे हैं। जिंदा है। और आगे भी जिंदा रहेंगे।

इतने अधिक सवाल और एक अकेला जो सब पर भारी है, वह अब तक खामोश है। उनकी यह खामोशी या तो किसी अज्ञात डर का परिणाम है या तूफान के गुजर जाने की उम्मीद में, रेत में मुंह छुपाने की कवायद, यह तो समय ही बता पाएगा। पर यह सारे सवाल अभी खत्म नहीं हुए है, बल्कि इनके साथ और भी सवाल जुड़ने लगे हैं। मैं, सत्यपाल मलिक के पुलवामा खुलासा और मोदी जी की डिग्री पर उठ रहे सवालों की बात कर रहा हूं। सवालों की तासीर ही उनके प्रतीक की तरह अंकुश की तरह होती है। असहज करती रहती है। पर देर सबेर इन सवालों के जवाब प्रधानमंत्री जी को देना ही होगा। वे न भी दे तो, पारिस्थितिक साक्ष्य और दस्तावेज उनके और गौतम अडानी के बीच की निकटता को और प्रमाणित करेंगे। 

इन सवालों को पूछना जारी रखिए। पूंजीपति या उद्योगपति समूहों की भूमिका देश के विकास में रहती है और रहेगी, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन उन्हें, कानून तोड़ कर, काले धन की, शेल कंपनियों के द्वारा मनी लांड्रिंग कर के निवेश करने, सरकारी जांच एजेंसियों के दुरुपयोग कर, सरकार के दम पर, सरकारी बैंको, वित्तीय संस्थानों से लोन लेकर फिर उसे डकार जाने जैसी अनेक अनियमितता की आड़ में, समृद्ध होने छूट नहीं दी जा सकती है, और न दी जानी चाहिए। 

(विजय शंकर सिंह)

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