पुरानी व्यवस्था में बूढ़ों के लिए असाधारण सम्मान था, वे उसी परिवार के वयोवृद्ध, बाबा और दादी थे। उनके लिए अपार सम्मान था। कोई भी चीज सबसे पहले उनको दी जाती उसके बाद अन्य सदस्य खाते पीते थे। उनकी उपेक्षा या अवज्ञा नहीं हो सकती थी। परंतु उनके लिए क्रोध के रूप में, कलह के रूप में, या घास-पात, झाड़-झंखाड़ के संदर्भ में आग लगाने का प्रयोग नहीं हो सकता था। वे ऐसे सभी कामों से विरत थे। आग लगाने का काम क्षेत्रविस्तार के लिए चौकसी करने वाले करते थे, या खेतों में उग आए घास-फूस को जलाने का काम विश के लोग करते थे। वृद्धों के लिए यदि यह संज्ञा रूढ़ रही हो तो ज्ञानी, शिक्षक, चिकित्सक और कवि की भूमिकाओं के कारण ही रही होगी। उस दशा में परिवार में भोजपुरी में चार जातिवाचक संज्ञाएं प्रचलित हैं - लइका, जवान, सयान और पुरनिया या बूढ़। बालकों की शिक्षा का एक अनिवार्य नियम है बड़ों की आज्ञा का पालन करना। जिस चौथे वर्ण के शूद्र का प्रयोग होता है उसके लिए प्रजा का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में शूद्र का प्रयोग केवल एक बार हुआ है। संतान और सेवक और सहायक वर्ग के लिए प्रजा का बार बार हुआ है, क्योंकि सेवक भी संतान के समान थी। राजा के लिए उसके शासनाधीन सभी जन उसकी प्रजा थे। मनु के अनुसार भी गृहपति नौकर-चाकर सभी के भोजन कर लेने के बाद भोजन करता है।
दो बातें ध्यान देने की है। पहली यह कि ऋग्वेद से समय से बहुत पहले से चतुराश्रम व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का और वर्णव्यवस्था जाति व्यवस्था का रूप ले चुकी थी। इसके पीछे बाहरी दबाव था, न दैवी विधान, न कर्मफल, न शोषण और उत्पीड़न। इसके मूल में था सुविधा और सुकरता का हाथ।
कोई दूसरा व्यक्ति किसी को कोई ऐसी दक्षता नहीं सिखा सकता है जो उसके पास न हो, न ही उसे कोई पेशा अपनाने को बाध्य कर सकता था। इतनी शक्ति किसी राजा के पास भी नहीं कि वह दंडस्वरूप भी किसी का पेशा बदलवा सके - इसके लिए उसे ऐसे व्यक्ति को किसी ऐसे कारागार मे डालना पड़ता जिसमें उस पेशे के प्रशिक्षक होते और उसके निष्णात होने तक उसकी जीविका का प्रबंध करना होता। दंडित इसे होना था और दंड दंडित करने वाले को भोगना पड़ता।
ऐसी स्थिति में स्मृतियों में आए उन विधानों को जिनमें किसी अपराध के लिए किसी विशेष जाति में डालने के विधान हैं कुछ सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए। किसी विशेष जाति की मर्यादा का उल्लंघन होने और उसे दंडनीय मानने और दंड देने का अधिकार न तो राजा के पास था, न ही ब्राह्मण के पास। यह दंड उस जाति की पंचायत दे सकती थी और इसके नियत विधान थे - 1. सार्वजनिक भर्त्सना और प्रतिषेध; 2. अर्थदंड जो भोज का रूप ले लेता; 3. प्रायश्चित्त और सबसे बड़ा दंड था; 5. जाति-बहिष्कार/ टाट बाहर करना या हुक्का-पानी बंद कर देना। यह विधान ब्राह्मणों से ले कर शूद्रों तक सभी में रहा है। यह देश-निकाला देने से बड़ा दंड है। जाति बहिष्कृत व्यक्ति इसके बाद अपने को किस तरह समायोजित करेगा, यह भी कोई दूसरा नहीं सुझा सकता था।
केवल एक स्थिति में, जिसके कारण हमने ऊपर के क्रम में चौथे को छोड़ दिया था, यह संभावना थी कि किसी को सीधे हीन जाति या वर्ण में डाल दिया जाय। यह था वैवाहिक मर्यादा का अतिक्रमण। यदि यह सिद्ध हो कि कोई जारज संतान है, या किसी स्त्री या पुरुष का हीन वर्ण की स्त्री या पुरुष से है तो उसकी सामाजिक हैसियत स्त्री-पुरुष में जिसकी भी जाति निम्न होती, उनको उसी का वर्ण या जाति का घोषित कर दिया जाता था। पर इस दंड-विधान से जातियां पैदा नहीं हुईं, वे जातियां पहले से थीं। इसमें व्यक्तिविशेष की जातीय हैसियत बदलती है।
दूसरी बात यह कि शूद्रों और सेवकों की सामाजिक हैसियत में अंतर होते हुए इस अंतर के कारण आपसी कटुता नहीं थी। क्यों? यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए था। परंतु उठाया था जब इसकी समझ होती है। जिज्ञासा भी बौद्धिक स्तर के अनुरूप होती है, और दार्शनिक समस्याओं के लिए बोध और विवेक का एक अल्पतम स्तर जरूरी है परंतु इस स्तर पर केवल प्रतिभा के बल पर नहीं पहुंचा जाता। इसके लिए श्रम और व्यवसाय की आवश्यकता होती है। हमारे भीतर किसी अन्य समाज की तरह प्रतिभा की कमी नहीं थी, ज्ञान की कमी और अधिकता हुआ करती है। ज्ञान की परिभाषाएं भी बदलती रहती हैं - एक का ज्ञान दूसरे का अज्ञान हुआ करता है, एक का अमृत दूसरे का विष। एक की महिमा दूसरे के दर्प को चूर कर सकती है, इसलिए यदि प्रभुता दूसरे के हाथ में है तो अपने प्रभुत्व की रक्षा के लिए उसका पहला प्रयत्न पहले की महिमा को ध्वस्त करने का होता है। दूसरे ने ऐसा ही किया। इसके लिए हम उसके कौशल और अध्यवसाय की सराहना कर सकते हैं। जिस चरण पर उसने हाय परास्त किया और अपना आधिपत्य कायम करने में सफल हुआ, उस चरण पर उसकी शक्तियों और अपनी कमजोरियों, विकृतियों को समझना और उनसे सीखना होता है परंतु उनके माध्यम से अपने को जानना नहीं होता। यह आत्मघात है। दयानंद और उनके गुरु विरजानंद में यह समझ थी, जिसे बंगाल पुनर्जागरण की इतर कारणों से जितनी भी सराहना की जाए, उसमें यह तत्व गायब था और भारत का स्वतंत्रता संग्राम बंगाल पुनर्जागरण से परिचालित रहा इसलिए वह उस नवोत्थान से पीछे रह गया जिसका आरंभ उससे पहले और बंगाल पुनर्जागरण से प्रेरित हुए आर्यसमाज ने किया।
पर हम यहां आर्य समाज की महिमा स्थापित करने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं अपितु यह समझने की कोशिश कर रहे हैं स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सीमित प्रतिरोध बना रह गया था, स्वतंत्रता के बाद नेहरूवादी सोच के कारण हमने और हमारे ज्ञान के आढ़तियों ने, पश्चिम जिन क्षेत्रों में आगे बढ़ा हुआ था, उनकी नकल तो की आत्मसात करने का प्रयत्न नहीं किया। अपने को उनकी नजर से देखने की आदत अवश्य डाल ली।
जातियां विभिन्न सेवाओं में से किसी के चुनाव से बनीं, और उपजातियां कबीलाई अहंकार के कारण। आदिम समाज में जीविका-विहीन होने वाले सभी एक समान दुराग्रही नहीं थे, कोई ऐसा दर्शन नहीं था जो सर्वमान्य रहा हो। पर एक चेतना सभी को जोड़ती थी कि यदि वनसंपदा न रही तो वे मिट जाएंगे। इसलिए कृषिकर्मिय़ों के विरोद के दार्शनिक से ले कर व्यावहारित स्तर तक कई रूप थे. परंतु जिन गणों में यज्ञ का दार्शनिक आधार पर विरोध हुआ वे बौद्धक और दार्शनिक स्तर पर कृषि के अग्रदूतों से अधिक कुशाग्र व भी माने जाएं तो दार्शनिक स्तर पर अधिक प्रबुद्ध थे। उशना या शुक्राचार्य असुरों के पुरोधा के रूप में पहले आते हैं और देवों के पुरोधा, बृहस्पति के विषय में वैदिक काल तक आशंका बनी रहती है कि वह हैं क्या?
भगवान सिंह
© Bhagwan Singh
भाग (1)
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