फर्जी डिग्री के मामले में पीएम नरेंद्र मोदी पर तरह तरह के आक्षेप लग ही रहे हैं, और दिन प्रतिदिन, उनकी डिग्री पर संशय उठ भी रहा है, पर आज फर्जी डिग्री से जुड़ा एक और मामला सामने आया, जिस पर देश के सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया और डिग्री के वेरिफिकेशन के लिए, एक कमेटी का गठन कर दिया। फर्जी डिग्री रखना, उस आधार पर कोई भी घोषणा करना और शपथपत्र दाखिल करना, न केवल नैतिक रूप से गलत है बल्कि यह धोखाधड़ी, फ्रॉड, कूट दस्तावेज का निर्माण, और जानबूझकर झूठा शपथपत्र देने का भी एक संज्ञेय और दंडनीय अपराध है। यह अपराध, आईपीसी की धाराओं 420/467/468/471 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध है और यह गंभीर अपराधों की श्रेणी में आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने, कानूनी पेशे से संबंधित एक महत्वपूर्ण दिशा में कदम उठाते हुए, 10 अप्रैल 2023, सोमवार को अधिवक्ताओं के डिग्री प्रमाणपत्रों के सत्यापन की प्रक्रिया की देखरेख के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया है। लम्बे समय से यह आशंका व्यक्त की जाती रही है कि, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अंतर्गत पंजीकृत वकीलों में से कुछ की कानून की डिग्रियां फर्जी हैं, और उन्ही फर्जी डिग्रियों के आधार पर कुछ वकील, धड़ल्ले से, वकालत भी कर रहे हैं, और उसी आधार पर हलफनामा आदि भी दे रहे हैं।
जांच पड़ताल के लिए, बनी इस समिति में सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के दो पूर्व न्यायाधीश शामिल होंगे। शीर्ष अदालत ने, वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी और मनिंदर सिंह को भी समिति के सदस्य के रूप में नामित किया गया है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया बीसीआई, को भी इस समिति में तीन सदस्यों को नामित करने के लिए कहा गया है। इस प्रकार इस समिति में, सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज, हाइकोर्ट के दो रिटायर्ड जज, और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ एडवोकेट होंगे तथा बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तरफ से तीन अन्य वकील होंगे। यह कमेटी कुल, आठ सदस्यों की होगी। बीसीआई द्वारा नामित सदस्यों के बारे में अभी जानकारी नहीं मिल पाई है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने अधिवक्ताओं के सत्यापन की प्रक्रिया में आने वाली बाधाओं को ध्यान में रखते हुए यह आदेश पारित किया है। समिति को सुविधाजनक तिथि पर काम शुरू करने और 31 अगस्त तक स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा गया है। पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि, "न्याय के प्रशासन की अखंडता की रक्षा के लिए, स्टेट बार काउंसिल में पंजीकृत अधिवक्ताओं का उचित सत्यापन, अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। यह सुनिश्चित करना, देश के प्रत्येक वास्तविक अधिवक्ताओं का कर्तव्य है कि, वे यह सुनिश्चित करने की मांग में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ सहयोग करें कि, वकालत, लीगल प्रैक्टिस, के प्रमाण पत्र का आधार, लॉ की डिग्री का, प्रमाण पत्र के साथ विधिवत सत्यापन किया जाय। जब तक कि, यह सत्यापन, समय-समय पर नहीं किया जाता है, तो इस बात का बड़ा खतरा हो सकता है कि न्याय का प्रशासन, स्वयं एक गंभीर संकट में पड़ जाएगा।"
निश्चित रूप से फर्जी डिग्री के बढ़ते चलन और उस पर की जा रही प्रशासनिक अकर्मण्यता से, यह व्याधि एक संक्रामक रूप ले रही है। बात सिर्फ बीसीआई और वकालत के पेशे की नहीं है, बात शिक्षा और अन्य विभागों में भी अक्सर फर्जी डिग्री की बात सामने आने की है। कुकुरमुत्ते की तरह से उग गए शिक्षा संस्थान, ऐसी डिग्रियों के ही बल पर जी खा रहे हैं। उनकी शिकायत पर कार्यवाही भी होती है, पर यह व्याधि कम भी नहीं हो रही है। सुप्रीम कोर्ट का बीसीआई के लाइसेंस शुदा वकीलों की डिग्री के सत्यापन का फैसला एक बड़ा और जरूरी फैसला है। यह काम आसान भी नहीं है, पर पुरानों के सत्यापन के साथ साथ, नए रजिस्ट्रेशन की अर्जियों पर, बिना उनका संबंधित विश्वविद्यालय से सत्यापन कराए, पंजीकरण किया ही नहीं जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने बीसीआई के बयान पर चिंता व्यक्त की कि "बिना सत्यापन के वकील कुछ राज्य बार काउंसिल के सदस्य तक बन गए हैं और ऐसे व्यक्तियों ने न्यायिक अधिकारियों के पदों पर भी काम किया हो सकता है।"
पीठ ने अपने फैसले में, जोर देकर कहा कि "न्यायिक प्रक्रिया तक पहुंच उन व्यक्तियों को नहीं दी जा सकती है जो वकील होने का दावा करते हैं लेकिन उनके पास वास्तविक शैक्षणिक योग्यता या डिग्री प्रमाण पत्र नहीं है।"
बीसीआई ने यह भी कहा है कि, "डिग्री प्रमाणपत्रों के सत्यापन में विश्वविद्यालयों द्वारा मांगे गए शुल्कों के कारण सत्यापन प्रक्रिया में कठिनाई आती हैं।" बीसीआई की इस कठिनाई को, ध्यान में रखते हुए, अदालत ने निर्देश दिया कि, "सभी विश्वविद्यालयों और परीक्षा बोर्डों को बिना शुल्क लिए डिग्री की सत्यता की पुष्टि करनी चाहिए। सभी विश्वविद्यालय और परीक्षा बोर्ड शुल्क लिए बिना डिग्रियों की सत्यता की पुष्टि करेंगे और राज्य बार काउंसिल द्वारा मांग पर बिना किसी देरी के कार्रवाई की जाएगी।"
इस मामले की शुरुआत साल 2015 में हुई थी जब, बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वास्तविक वकीलों की पहचान करने के लिए बीसीआई सर्टिफिकेट और प्लेस ऑफ प्रैक्टिस (सत्यापन) नियम 2015 को अधिसूचित किया था, जो अदालतों और न्यायाधिकरणों के समक्ष सक्रिय रूप से मुकदमेबाजी कर वकीलों के संबंध में हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों के समक्ष, बीसीआई ने, नियमों को चुनौती दी और बाद में सभी मामलों को अंततः सर्वोच्च न्यायालय में, एक साथ सुनवाई के लिए, स्थानांतरित कर दिया गया। न्यायालय ने नवंबर 2022 में राज्य बार काउंसिलों को जारी किए गए बीसीआई, के निर्देश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एक वकील द्वारा दायर एक आवेदन में वर्तमान आदेश पारित किया, जिसमें याचिकाकर्ता ने दावा किया कि राज्य द्वारा की जा रही सत्यापन प्रक्रिया को बाधित करने से सत्यापन प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बीसीआई के अध्यक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता मनन कुमार मिश्रा ने पीठ को बताया कि, "मंशा सत्यापन को रोकना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि डिग्री प्रमाणपत्रों की वैधता और वास्तविकता की पुष्टि किए बिना सत्यापन नहीं किया गया है। कठिनाइयों का सामना तब करना पड़ा जब विश्वविद्यालयों ने डिग्री प्रमाणपत्रों के सत्यापन के लिए फीस की मांग की। इस पृष्ठभूमि में, बीसीआई ने डिग्रियों के सत्यापन की देखरेख के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन का सुझाव दिया।"
बीसीआई प्रमुख का यह तर्क उचित है कि, सत्यापन शुल्क की मांग के कारण इतना व्यापक सत्यापन करना एक कठिन कार्य है। अब सुप्रीम कोर्ट ने, सत्यापन के लिए राज्य को निर्देश दिया है।
वकीलों की बढ़ती संख्या पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी कहा कि "अधिवक्ताओं की संख्या, जो उस समय, साल 2015 में 16 लाख थी, वर्तमान में लगभग 25.70 लाख होने का अनुमान है। बीसीआई के बयान के अनुसार, 25.70 लाख अधिवक्ताओं में से, लगभग 7.55 लाख फॉर्म सत्यापन के उद्देश्य से प्राप्त हुए थे और 1.99 लाख घोषणा वरिष्ठ अधिवक्ताओं और एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड से प्राप्त हुए थे। इस प्रकार प्राप्त प्रपत्रों की कुल संख्या लगभग 9.22 लाख है। इन आंकड़ों से, पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य बार काउंसिल में नामांकित अधिकांश अधिवक्ताओं ने अपने सत्यापन प्रपत्र जमा नहीं किए हैं।"
अधिकांश वकीलों ने सत्यापन के लिए फॉर्म ही नही भरे। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि, या तो वे फर्जी डिग्री वाले हैं या उन्होंने अभी तक सत्यापन फॉर्म भरे ही नही। इस प्रकार अभी अधिकांश वकीलों से सत्यापन फॉर्म प्राप्त ही नही हुए। बीसीआई ने यह आशंका जताई कि जिन वकीलों ने सत्यापन फॉर्म नहीं दिए हैं, वे वकालत करने के लिए योग्य नहीं हैं और ऐसे व्यक्तियों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें बाहर किया जाना चाहिए।
इसी संदर्भ में पीएम डिग्री से जुड़े एक मामले का उल्लेख करना भी समीचीन होगा जिसका फैसला अभी हाल ही में, गुजरात विश्वविद्यालय बनाम मुख्य सूचना आयुक्त सीआईसी के मुकदमे में दिया गया है। गुजरात हाईकोर्ट ने शैक्षणिक डिग्री के मामले को व्यक्तिगत मामला माना है, और उसे सार्वजनिक करने के खिलाफ अपना फैसला दिया है। यहीं यह सवाल उठता है कि यदि डिग्री बीसीआई या किसी संस्थान या चुनाव आयोग में हलफनामा देकर यदि सार्वजनिक पटल पर रख दी गई हो, और उस पर संशय हो तो क्या उस संशय का सार्थक समाधान नहीं किया जाना चाहिए? या उसी संशययुक्त डिग्री को ही, बिना उक्त आपराधिक कृत्य की संभावना को समाप्त किए, मान लिया जाना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट का बीसीआई में पंजीकृत वकीलों की कानून की डिग्री के सत्यापन का आदेश और उसके क्रियान्वयन के लिए गठित कमेटी का निर्णय एक महत्वपूर्ण फैसला है। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है फिर भी बीसीआई को, नए पंजीकृत के लिए प्राप्त आवेदनों के डिग्री सत्यापन के कार्य को अनिवार्य कर देना चाहिए। जिससे नए पंजीकरण के आवदकों का सत्यापन, पंजीकरण के पहले हो जाय और इनका कोई बैकलॉग इकट्ठा न हो सके।
(विजय शंकर सिंह)
शानदार फैसला व व्यवस्था।
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