Wednesday, 12 April 2023

मीडिया, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और सांप्रदायिक राजनीति / विजय शंकर सिंह

बिहार के पत्रकार, मनीष कश्यप पर तमिलनाडु सरकार ने रासुका, एनएसए के अंतर्गत कार्यवाही की है। मनीष पर आरोप है कि, उसने एक फर्जी वीडियो शूट किया जिसमें उसने तमिलनाडु में बिहारी श्रमिकों और अन्य उत्तर भारतीय कामगारों को मारते पीटते हुए दिखाया गया। जैसे ही इसकी जांच हुई, सचाई सामने आने लगी, और यह पूरा फर्जीवाड़ा खुल गया। तमिलनाडु पुलिस ने मनीष कश्यप के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और उसकी गिरफ्तारी हुई और उसे रिमांड प्राप्त कर के, तमिलनाडु लाया गाया। अभी भी वह जेल में है। पुलिस की तफ्तीश चल रही है। इसी बीच यह खबर आई कि तमिलनाडु सरकार ने, मनीष कश्यप को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, NSA के अंतर्गत निरुद्ध कर दिया। इसका विरोध पत्रकार बिरादरी ने भी किया और अन्य लोगों ने भी। तमिलनाडु सरकार के, एनएसए में निरुद्ध करने के पीछे अपने तर्क और प्रमाण होंगे, जो वह न्यायालय में जरूरत पड़ने पर प्रस्तुत करेंगे। मुझे अब तक की अप टू डेट स्थिति का पता नहीं है इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। 

अब आइए एनएसए के प्राविधान पर। एनएसए कोई आपराधिक धारा नहीं है, बल्कि यह एक निरोधात्मक प्राविधान है। इसे प्रिवेंटिव एक्शन preventuve action कहा जाता है। यह किसी बड़े अपराध या ऐसा अपराध को सार्वजनिक जीवन को अस्त व्यस्त ध्वस्त करके लोकव्यवस्था के लिए, खतरा बन जाय, को रोकने के लिए पुलिस की संस्तुति पर, जिला मजिस्ट्रेट द्वारा लगाया जाता है और जिस पर एनएसए तामील किया जाता है, उसे, क्यों वह निरुद्ध किया जा रहा है, यह सब विंदुवार बताया भी जाता है। जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जारी एनएसए के आदेश की पुष्टि राज्य सरकार पंद्रह दिन में करती है। राज्य सरकार की पुष्टि के बाद, उक्त एनएसए निरुद्ध आदेश को संबंधित हाईकोर्ट में चुनौती दी जाती है। हाईकोर्ट, एनएसए के अंतर्गत निरुद्ध व्यक्ति को भी तलब करती है और साथ ही संबंधित जिले के जिला मजिस्ट्रेट और एसएसपी को भी। अदालत डीएम/एसएसपी से निरुद्धि का आधार पूछती है और जब संतुष्ट हो जाती है तो एनएसए के निरुद्धि आदेश को, अनुमोदित कर देती है, अन्यथा उसे रद्द कर निरुद्ध व्यक्ति को रिहा कर देती है। यह एक कानूनी प्रक्रिया है। 

अब सवाल उठता है एनएसए किस आधार पर लगाया जाय। इसके लिए एक शब्द आता है पब्लिक ऑर्डर यानी लोक व्यवस्था। एक और बहुचर्चित शब्द है, लॉ एंड ऑर्डर यानी कानून व्यवस्था। दोनो में मूल फर्क यह है कि लोक व्यवस्था का भंग होना एक बड़ी कानून व्यवस्था टूटने का मामला है जबकि कानून व्यवस्था का दायरा सीमित है। एनएसए के लिए पुलिस को यह साबित करना पड़ता है कि, जिस व्यक्ति के खिलाफ एनएसए लगाया जा रहा है, उसके कृत्यों से शहर या जिले की लोक व्यवस्था भंग हो रही है या हो सकती है। इस संभावना की पुष्टि के लिए उस व्यक्ति के भाषण, ट्वीट, उससे जुड़ी घटनाएं, आदि के रिकॉर्ड रखे जाते हैं और उसे शासन तथा अदालत में प्रस्तुत भी किया जाता है। यह भी बताया जाता है कि, इन कृत्यों से जगह जगह कानून व्यवस्था की समस्या उत्पन्न हो रही है। इसलिए लोक हित में इस व्यक्ति की निरुद्धि आवश्यक है जिससे बिगड़ रही लोक व्यवस्था को संभाला जा सके। यह भी एक सामान्य कानूनी प्रक्रिया है।  

यहां यह देखा जाता है कि, किस घटना, साजिश या कृत्य से, लोक व्यवस्था पर क्या असर पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, यदि एक ही समय, एक ही थाने पर, एक व्यक्ति की हत्या और गौकशी की अलग अलग सूचनाएं पहुंचेंगी तो पुलिस की प्राथमिकता क्या रहेगी? हत्या सबसे संगीन अपराध है जाहिर है वही प्राथमिकता में होगा। लेकिन गौकशी, भले ही संगीन अपराध न हो, लेकिन सांप्रदायिक कारणों से, यह घटना,  हत्या की घटना से भी तेजी से, सांप्रदायिक तनाव पैदा कर दंगा फैला सकती है और उसका असर व्यापक रूप से, लोक व्यवस्था पर पड़ सकता है, इसलिए व्यावहारिक रूप से यह घटना, प्राथमिकता में पहले आयेगी। यदि हत्या के घटनास्थल पर एक थाने की पुलिस पहुंचेंगी तो, गौकशी के घटना स्थल पर पूरा जिला और गंभीर मामला हुआ तो डीएम एसएसपी भी पहुंचेंगे। क्योंकि गौकशी की त्वरित प्रतिक्रिया तेज और व्यापक होगी। 

हत्या का मुल्जिम पकड़ा जाय या तात्कालिक रूप से न भी पकड़ा जाय तो भी उसका असर उतना नहीं होगा जो गौकशी के मुल्जिमों की देर से गिरफ्तारी पर होगा। क्योंकि गौकशी का उद्देश्य ही है, समाज में सांप्रदायिक तनाव और दंगा फैलाना, जबकि हत्या का उद्देश्य निजी रंजिश से लेकर अन्य कुछ भी हो सकता है। यदि वह हत्या किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति या  घटना का प्रतिफल नही है तो, उसका बहुत असर पड़ता भी नहीं है। पर इसके विपरीत गौकशी की घटना का व्यापक असर पड़ता है। हाल ही में आगरा में हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता द्वारा गौकशी की घटना का संदर्भ लिया जा सकता है। जैकशी का मुल्जिम, प्राथमिकता के आधार पर गिरफ्तार भी होगा, और उसके खिलाफ एनएसए में भी कार्यवाही होगी क्योंकि उसके जमानत पर छूटने के बाद भी, समाज में तनाव फैलने की संभावना बनी रहती है। क्योंकि उसका उद्देश्य ही समाज में तनाव फैलाना है। जबकि हत्या के मामले में, अमूमन ऐसा कम होता है। 

लोक व्यवस्था के भंग होने का मुख्य आधार ही व्यापक सांप्रदायिक और जातिगत भेदभाव और इस आधार पर होने वाले दंगे हैं। समाज में अमन चैन बना रहे और साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रहे, यह हर सरकार की प्राथमिकता होती है और यही प्राथमिकता राजनीतिक दलों और जागरूक नागरिकों की भी होनी चाहिए। लेकिन यहां भी बीजेपी की सरकारें एक ऐसी अपवाद स्वरूप सरकार है जो जानबूझकर ऐसे तत्वों को सरक्षण देती है जो दंगाई मानसिकता के हैं और दंगे फैलाते हैं। पिछले कुछ समय से देश में सांप्रदायिक तनाव फैलाने में, राजनीतिक लोग तो लिप्त हैं ही, साथ ही मीडिया भी है। कुछ न्यूज चैनल, जैसे, न्यूज 18, आजतक ज़ी न्यूज़, सुदर्शन सहित कुछ चैनल और इनके एंकर जैसे, अमीश देवगन, अमन चोपड़ा, सुधीर चौधरी, सुरेश चाहवानके आदि हैं जिनके पिछले दस साल के प्रोग्राम का अध्ययन किया जाय तो उनका घृणित उद्देश्य साफ तौर पर सामने आ जायेगा। साफ तौर पर यह दिख रहा है कि, यह देश का सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने और समाज में नफरत फ़ैलाने की एक सोची समझी साजिश है। यह न्यूज चैनल इस अपराध में शरीके जुर्म है। 

इस नफरत की साजिश का लाभ किसे मिल रहा है या इस आधार पर कौन अपना जनाधार बढ़ा है, यह किसी से छिपा नही है। मेरा सीधा मानना है कि इसका लाभ आरएसएस बीजेपी की सोच और विचारधारा को मिल रहा है। सत्ता को मिल रहा है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार बार हेट स्पीच पर नाराजगी दिखाने के बावजूद भी इन दंगाई मानसिकता के चैनल और एंकर के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई। चैनल के मालिकों को भी इस आरोप से अलग नहीं किया जा सकता है कि उन्हें यह पता नही कि उनके मिडिया चैनल समाज में क्या जहर फैला रहे हैं। आप संदर्भ के लिए सुदर्शन न्यूज़ की क्लिपिंग और यति नरसिंहानंद जैसे लोगों के बयानों का अध्ययन कर सकते हैं। 

देश की खुफिया एजेंसियों चाहें वह, आईबी हो या स्थानीय स्तर पर एलआईयू, इन सबका दायित्व है कि वे ऐसे वक्तव्यों, हरकतों और गतिविधियों पर नजर रखें और वे न सिर्फ, ऐसी गतिविधियों पर नजर रखते हैं बल्कि, इसकी सूचना भी अपने उच्चाधिकारियों और सरकार को देते रहते हैं। सांप्रदायिकता के जहर और विभाजनकारी राजनीति की हम बहुत बड़ी कीमत भारत विभाजन के रूप में चुका चुके हैं, और आजादी के बाद होने वाले कई बड़े दंगों में भी यह दुख समाज ने भोगा है। 

हाल ही में राम नवमी के जुलूस में जो शर्मनाक घटनाएं देश भर में हुई, उनकी परतें खुलने लगी है। चाहे वह दंगा बिहार शरीफ का हो, या जमशेदपुर का, या हावड़ा का, या वह आगरा की गौकशी का मामला हो, हर जगह हिंदू महासभा और बजरंग दल के लोगों के नाम सामने आ रहे हैं। वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार भी किए जा रहे हैं और उनके खिलाफ कार्यवाही भी की जा रही है। आखिर इन दंगाइयों को शह कहां से मिल रही है और यह किस संगठन के साथ नाभिनाल से जुड़े हैं, इसे हम सब समझ रहे है। और इन दंगाइयों का एक और उद्देश्य है, देश में जो वर्तमान आर्थिक हालात, जैसे, बेरोजगारी, महंगाई, बैंको की पूंजीपतियों द्वारा संगठित लूट, विदेशी निवेश के नाम पर मनी लांड्रिंग कर के लाए जा रहे काले धन का निवेश, सार्वजनिक संपत्ति की को पूंजीपतियों द्वारा हड़पना, आदि आदि, उससे लोगों का ध्यान भटकाना और आप के घर परिवार के युवाओं के दिमाग में विभाजनकारी विचारधारा और सांप्रदायिकता से पगा हुआ जहर भर देना ताकि वे हवाओं में भी सामाजिक सद्भाव के बजाय, सांप्रदायिक और जातिगत विद्वेष ही ढूंढे। यह एक बड़ा खतरा है जो आप के घर में पैठ रहा है। इससे बचें।

(विजय शंकर सिंह)


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