चीन से लेकर मिश्र तक - भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक, तुर्की - सभी जगह कभी न कभी अफ़ीम की खेती हुई है। ठंढे मुल्कों ने भी, जैसे रूस और यूगोस्लाविया, अफ़ीम की खेती कर रखी है। प्राचीन भारत के साहित्य में अफ़ीम के उल्लेख नहीं मिलते हैं लेकिन मध्ययुग से अफ़ीम की खेती और चिकित्सा या मनोरंजन के लिए इसके प्रयोग के पर्याप्त दृष्टांत हैं।
आज भी राजस्थान में सम्माननीय अतिथि को अफ़ीम की एक गोली देने की प्रथा कई क्षेत्रों / परिवारों में है। शायद दस बारह वर्ष पहले जसवंत सिंह जी ने अपने एक समारोह में अफ़ीम मिश्रित चाय बाँटी थी। राजपूत सेनानी प्रायः युद्ध के लिए निकलते समय अपने मन को शांत करने के लिए थोड़ी अफ़ीम ले लेते थे।
अब अफीम की खेती पर मनाही है। बस उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में सरकार से लाइसेंस लेकर इसकी खेती होती है और नियमतः पूरी की पूरी फसल सरकार खरीद लेती है। भारत सरकार की दो ओपियम फ़ैक्ट्री हैं - ग़ाज़ीपुर और नीमच में। वहॉं अफ़ीम में मिलने वाले अलकोलॉइड निकाले जाते हैं, मुख्यतः मॉर्फीन, चिकित्सकीय उपयोग के लिए।
० अफ़ीम के पौधे
अफ़ीम के पौधे साढ़े तीन -चार फीट के होते हैं, पत्ते थोड़े बड़े और कुछ भूरे-हरे रंग के। वार्षिक पौधा है यानी हर वर्ष लगाना पड़ता है। इसके फूल आकर्षक होते हैं- सफेद, लाल, पीले या बैगनी-गुलाबी रंग के चार पुष्पपत्र। फल गोल होता है जिसे डोडा या बोड़ी कहते हैं। इसके पतले तने पर या पत्तियों पर भी कुछ रोएं रहते हैं मगर फल पर नहीं।
फल के पक जाने पर उसके अंदर अफ़ीम के बीज मिलते हैं जिन्हें पोस्ता दाना या खसखस कहते हैं। ये सफेद, गोल दाने निर्दोष होते हैं, उनमें कोई नशा नहीं होता। बंगाली पाककला में पोश्तो के बहुत प्रयोग हैं। बंगाल के बाहर कुछ कम लेकिन पूरे भारत में कुछ मिठाइयों के ऊपर खसखस डालने के रिवाज हैं।
खसखस के दानों से अफ़ीम के पौधे उगाए जा सकते हैं। सामान्यतः अंकुरण बहुत अच्छा नहीं होता लेकिन सुना था कि एक बंगाली वृद्धा ने अपने आँगन में कुछ वर्ष कुछ पौधे इसी तरह लगाए थे।
० अफ़ीम
जिसे हम अफ़ीम के नाम से जानते हैं वह अफ़ीम के पौधे का 'दूध' है। तना या फल पर हल्के हाथ से तेज चाकू से चीरा लगाने पर जो लसलसा सफेद द्रव निकलता है उसे ही जमा लिया जाता है। ताजी अफ़ीम नरम होती है,अंदर से नम; उसे कोई रूप दिया जा सकता है। सूखने पर इसका रंग कुछ लाली लिए हुए भूरा होता है। इसकी खास गन्ध होती है जिसे जानकार पहचान लेते हैं और इसका स्वाद कड़वा होता है।
अफ़ीम की रासायनिक रचना बहुत जटिल होती है। इसमें करीब पचीस अलकोलॉइड मिलते हैं। अलकोलॉइड प्रायः विषाक्त रसायन हैं जो वनस्पतियों में मिलते हैं। वे प्रायः क्षारीय होते हैं और ग्रीक शब्द अल्कली (अर्थ क्षार) पर उन्हें अलकोलॉइड कहा गया। मॉर्फीन पहला अलकोलॉइड है जिसे शुद्ध रूप में निकाला जा सका था। अफ़ीम में मिलते पचीसों अलकोलॉइड में मॉर्फीन सबसे मुख्य है। अन्य हैं कोडीन, नारकोटीन, थेबेन आदि। अफ़ीम में प्रायः 9 से 15 प्रतिशत मॉर्फिन होता है।
अफ़ीम (ओपियम) से निकली दवाओं को ओपीओयड कहा जाता था। अब ओपीओयड उन सभी दवाओं को कहा जाता है जो हमारी देह में उन जगहों पर प्रवेश करते हैं जहाँ अफ़ीम से निकले अलकोलॉइड करते हैं। ऐसी संश्लिष्ट (सिन्थेटिक) दवाओं को भी ओपीयओड कहते हैं यद्यपि अफ़ीम से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता।
० मॉर्फीन
इस दवा का नाम नींद और सपनों का यूनानी देवता मॉर्फिअस के नाम पर पड़ा है। अफ़ीम के ज़हरीले / नशीले गुण मुख्यतः इसी अलकोलॉइड से आते हैं। इसका चिकित्सीय प्रयोग दर्दनाशक के रूप में होता आया है। यह हमारे मस्तिष्क के उस भाग को 'दबाता' (शिथिल करता) है जो दर्द की अनुभूति लेता है। साथ ही यह उल्लास का भाव भी जगाता है। मॉर्फीन का प्रयोग चिकित्सीय ही अधिक होता है। चिकित्सा के दौरान कुछ लोग इसके आदी हो जाते हैं फिर उन्हें इसकी तलब सताने लगती है। लेकिन मॉर्फीन से निकली एक अन्य दवा हेरोइन का प्रयोग अब बस मनोरंजक के रूप में होता है।
० हेरोइन
मॉर्फीन से हेरोइन बनती है। बनाने की प्रक्रिया जटिल नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान के बीहड़ इलाकों में भी हेरोइन बनाने वाली प्रयोगशाला मिल जाएंगी। (तालिबान उनसे ज़कात भी लेते हैं।) इसे एसिटाइल मॉर्फीन भी कहते हैं। मॉर्फीन को एसिटिक एनहाइड्राइड के साथ उबालकर इसे पहली बार बनाया गया था।
जर्मनी की बेयर कम्पनी ने पहली बार इसे व्यावसायिक स्तर पर बनाया और इसे बतौर खाँसी की दवा बेचा भी।
(क्रमशः)
सचिदानंद सिंह
© Sachidanand Singh
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