कुछ व्यक्ति ऐसे होते है जिनके बारे में जब पतां चलता है तो मन अभिभूत हो जाता है कि ऐसे भी लोग होते हैं।ऐसा ही एक व्यक्ति था अलेक्जेंडर कोरोसी कसोमा【1784-1842】 मैंने अभी उसकी एक जीवनी पढ़ी।
अलेक्जेंडर हंगरी के ट्रांसवेलनिया इलाके में पैदा हुआ था और बाद में पढ़ने के लिए जर्मनी चला गया।अलेक्जेंडर को अपनी हंगेरियन जाति का इतिहास जानना था ।उंसे कुछ स्त्रोत से पतां चला कि सम्भवतः हंगरी के कुछ लोगो का तिब्बती या मंगोल कनेक्शन है।इसलिए उसने तिब्बत जाने की योजना बनाई।।2 साल की कठिन यात्रा के बाद अलेक्जेंडर 1822 में श्रीनगर होते हुए जांस्कर लद्दाख।पहुंच गया।और वहां के जांगला मठ में उसने तिब्बती भाषा सीखनी शुरू कर दी।
4 साल जांगला के मठ में तिब्बती भाषा सीखी और बौद्ध धर्म के ग्रंथों का अध्य्यन किया।बाद में अलेक्जेंडर कोलकाता आ गया और वहां उसने तिब्बती भाषा का पहला शब्दकोश एवम व्याकरण प्रकाशित करवाया।बाद में बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसायटी का ग्रंथपाल रहा।तिब्बत जाते हुए मलेरिया के कारण उसकी दार्जिलिंग में मृत्यु हो गई ।दार्जिलिंग में उसका स्मारक बना हुआ है।1933 में क्योटो जापान में उंसे बोधिसत्व की उपाधि मिली।
अलेक्जेंडर पूर्ण जीवन अविवाहित रहा।वो जांगला मठ में मिट्टी के फर्श पर बिना कुछ बिछाए सोता रहा वो कई दिन बिना पानी पिये रह सकता था।।और बहुत मेहनती व्यक्ति था।जांस्कर इलाके में जाने वाला वह पहला यूरोपियन था।अलेक्जेंडर ने अपने शोध में लिखा है कि यूरोप में पागान शब्द भगवान शब्द से आया।उसने जाट जाति की उतपति पर भी कुछ बिंदु प्रस्तुत करें हैं।उस जमाने मे उंसे भारत मे ब्रिटिश सैनिकों ने जासूस समझ कर गिरफ्तार भी किया था फिर भी अलेक्जेंडर ने हौसला नही हारा और अपनी ज्ञान की खोज में जीवन खपा दिया।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ,भारत में कार्यरत एक हंगरियन थियोडोर ने उसकी जीवनी लिखी है।आज के जमाने मे जांस्कर जाना बहुत मुश्किल है तो उस समय कितनी दिक्कत हुई होगी अंदाजा लगाया जा सकता है।
लक्ष्मण सिंह देव
© Luxman Singh Dev
#vss
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