बर्बर, रहस्यमय और उचाट- 20वीं सदी के सार को इन तीन शब्दों के माध्यम से व्याख्यायित करने वाले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित महानतम उपन्यासकार, कवि, नाटककार और मूर्तिशिल्पी गुन्टर ग्रास (Guenter Grass) का जन्म 16 अक्टूबर, 1927 को पोलैंड में और निधन 13 अप्रैल, 2015 को हुआ था।
गुन्टर ग्रास द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1944 में सेना में भर्ती हुए, अमेरिकी सैनिकों ने उन्हें बन्दी बना लिया। युद्ध की समाप्ति पर 1946 में वे रिहा किये गये। 1950 से लेखन की शुरुआत करने वाले ग्रास को उनके पहले ही उपन्यास 'द टिन ड्रम' (1959) से ज़बरदस्त प्रसिद्धि मिली। यूरोप के जादुई यथार्थवाद की यह प्रतिनिधि रचना मानी जाती है।
गुन्टर ग्रास एक वामपंथी लेखक थे और जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सक्रिय सदस्य भी। 'द टिन ड्रम' पर इसी नाम से एक फ़िल्म भी बनी, जो काफ़ी सराही गयी और उसे कई पुरस्कार मिले। 1999 में ग्रास को नोबेल पुरस्कार दिया गया। 'कैट एंड माउस', 'डॉग इयर्स', 'क्रैबवॉक', 'ह्वाट मस्ट बी सेड' आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
'द टिन ड्रम' में प्रतिनायक की दृष्टि और शब्दों के माध्यम से ग्रास ने सदी के विकास का जीवन्त चित्रण किया है। विकास की यह प्रक्रिया कृषि से औद्योगिकता, पारम्परिकता से विश्वजनीनता और सामंतवाद से उत्तर-आधुनिकता की ओर अग्रसर होती है। उपन्यास के कथानक से गुज़रता हुआ पाठक आधुनिकता की ओर बढ़ता है।
उपन्यास औद्योगीकरण की यांत्रिक गति, असीमित उत्पादन, विज्ञान के प्रति जागृति, वाणिज्य की मोर्चेबंदी, सिकुड़ती-सिमटती दुनिया, लोकतंत्र और सर्वसत्तावाद के वायरस का प्रसार, मशीन की चिकनी सुन्दरता, वैश्विक झगड़े और विवाद, नफ़रत के फलते-फूलते कारोबार, मृत्यु और स्वचालन, असंतोष और आधुनिकता तथा इतिहास के अंत का उद्घोष- सब कुछ को जैसे दर्ज़ करता चलता है।
20वीं सदी का महाआख्यान रचते हुए गुन्टर ग्रास उसे एक उन्मादग्रस्त और आत्महंता सदी के रूप में देखते हैं, जहां मनुष्य ने सपनों से ऊंची उड़ान भरी और अकल्पनीय गहराइयों में गोते भी लगाये।
सामूहिक पागलपन और व्यक्तिगत चेतना, संज्ञाहीन आवेग और असम्बद्ध व्यंग्योक्ति, आतंक और परिहास के दरम्यान रची जाती व्यापक चकाचौंध और नरसंहारों का यथार्थ चित्रण करते हुए ग्रास मनुष्य की संघर्षशीलता के बचे रहने की उम्मीद नहीं छोड़ते। 'द टिन ड्रम' उपन्यास में ग्रास विश्वास के साथ यह समझाने की कोशिश करते हैं कि मानव समाज में कला के पास ही ऐसी शक्ति है कि वह नफ़रत, हिंसा और युद्ध को पराजित कर सके।
फ़ासीवाद के इस दौर में गुन्टर ग्रास को याद करना एक उम्मीद की रोशनी पा लेने जैसा है, जिन्होंने अपनी पूरी ताक़त के साथ नाज़ीवाद से लोहा लिया और उसके पाखंड को रचनाओं से लेकर दिनचर्या तक उजागर करते रहे। ऐसे योद्धा लेखक और रंगकर्मी को सलाम!
© राजेश चन्द्र,
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