बचपन मे एक काल्पनिक पात्र था लकडसुंघवा । दोपहर में खास कर जब जेठ की दोपहर होती थी और धूप के साथ साथ लू चलती थी तो गांव के बड़े से आधे कच्चे और आधे पक्के मकान में हम बच्चों को डरा कर कैद कर दिया जाता था । कहा जाता था,
" बहरे मत जाया सभें, लकडसुंघवा आयी और धय के ले जायी । "
उस लकडसुंघवा का डर देर तक मन मस्तिष्क पर बैठा रहता था । आज ज़रूर उस डर पर हंसी आती है। लकडसुंघवा को किसी ने देखा नहीं था और यह भी सच है कि वह किसी को धर यानी पकड़ कर ले भी नहीँ गया था । लेकिन वह एक भय का संचार ज़रूर करता था ।
भय भी बहुधा अतार्किक और कल्पना प्रसूत ही रहता है। विशेष कर भूत प्रेत और अन्य मायावी चीजों का भय । लकडसुंघवा का जो रूप बताया जाता था, वह एक अधेड़ उम्र का उल जलूल कपड़े पहने बेतरतीब दाढ़ी बढाये और कंधे से एक बड़ा सा झोला लटकाये रहता था । उसी झोले में वह लकड़ी रखता होगा जिस से वह बच्चों को सुंघा कर बेहोश कर धर ले जाता होगा । हिंदी के शुरुआती दौर के उपन्यास चन्द्रकांता , चंद्रकांता संतति और भूतनाथ में देवकीनंदन खत्री ने ऐयारों द्वारा लोगों को लखलखा सुंघा और उसकी मुश्कें बांध कर पकड़ ले जाने का उल्लेख बार बार किया है। मुझे लगता है लकडसुंघवा की अवधारणा या तो उसी टेकनीक से समाज मे आयी होगी जो देवकीनंदन खत्री के उन उपन्यासों में वर्णित है, या उन्ही ऐयारों से ही समाज ने लकडसुंघवा की कल्पना रची होगी ।
पर आज न लकडसुंघवा है, और न भय और न ऐसे काल्पनिक डराने वाले पात्रों से डरने वाले बच्चे । वक़्त बदल चुका है। कच्चा घर भी अब बहुत कुछ पक्का हो गया है और जो कुछ बचा है वह , घर नहीं अजायबघर जैसा अब लगता है। कुंए अतीत हो रहे हैं । लोटा डोर, घर्रा, गगरा, आदि शब्द भी शब्दकोश के उन पन्नों में सिमट गये हैं जो मुश्किल से ही खुलते हैं। सच तो यह है कि शब्दकोश ही अब मुश्किल से खोले जाते है । अब शब्दों के अर्थ गूगलेश्वर की कृपा से, जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली, जैसे हो गए हैं । यह परिवर्तन सुखद है या दुःखद यह तो सबकी अपनी अपनी सोच पर निर्भर करता है। पर यह परिवर्तन हुआ है।
लकडसुंघवा का डर अब भले ही न रहा हो पर भय की ग्रन्थि अब भी शेष है। यह ग्रंथि ही मूल है। लकडसुंघवा तो उस ग्रन्थि का परिणाम या कारक है। जब तक वह ग्रंथि रहेगी लकडसुंघवा आता जाता रहेगा । उस ग्रन्थि से मुक्त होना आवश्यक है। वह ग्रन्थि हर प्रकार की प्रगति में बाधक है। इसी लिए बुद्ध ने अभय को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। अभय हुये बिना किसी भी आज़ादी की बात करना एक छलावा है। इस लकडसुंघवा जैसे काल्पनिक भय के संचारी भाव से हम सब मुक्त हों। आमीन ।
© विजय शंकर सिंह
Wednesday, 2 August 2017
लकडसुंघवा / विजय शंकर सिंह
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment