Friday, 25 August 2017

एक कविता - त्याग पत्र / विजय शंकर सिंह

सुनो , सुनो, सुनो,
सारी ख़ल्क़ और सारी कायनात,
ज़मीन सुनो और सुनो आसमान,
ईश्वर ने अचानक,
नैतिकता के आधार पर
इस विचित्र दुनिया के
न सुधरे जाने से खिन्न हो
त्यागपत्र दे दिया है !

अब वह कहीं खो गया है
अब वहां कोई नहीं है ।
वीरान पर वह भव्य हवेली,
जहां वह बसता था कभी,
धीरे धीरे
गुंडो , धूर्तों और पाखंडी लोगों की
पनाहगाह बन गयी है ।
अब वहां ' वह ' नहीं रहता है,
वहां रहते हैं,
उनके नाम और चित्रों के आड़ में,
अपनी दूकान चलाने वाले
कुछ लोग ।

ईश्वर ने कहा है,
यह मुनादी सुना दी जाय सबको,
यह पूछने पर कि, आखिर
वह गया कहाँ,
वह है कहाँ ,
वह मिलेगा कब,
वह लौटेगा कब,
खीज कर उसने कहा,
'कोई पूछे तो कह देना,
ईश्वर मर गया है । '

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment