ग़ालिब -27.
आईना क्यों न दूं, कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ, कि तुझसा कहें जिसे !!
Aaiinaa kyon na doon, ki tamaashaa kahen jise,
Aisaa kahaan se laaoon, ki tujh'saa kahen jise !!
-Ghalib.
मैं तुम्हे दर्पण ही क्यों दे दूं, जिस से तमाशा दिखे. मैं तेरे जैसा कोई कहाँ से लाऊँ, जो तुझ जैसा ही हो.
यह शेर इश्क हकीकी है या इश्क मजाजी, प्रेयसी की प्रसंशा में कहा गया है, या ईश्वर की अनुपमेयता में, इस पर आप दुविधा में पड़ सकते हैं. लेकिन बात बहुत गहरी कही गयी है. प्रेयसी द्वारा यह गर्वोक्ति कि, मुझ सा कोई है तो बताओ. और ग़ालिब का सहज आत्मसमर्पण, कि कहाँ तुझ सा पाऊंगा कि लाकर तुम्हारे सामने रखूँ. बेहतर है दर्पण ही दे दूं. तुम खुद ही अपने समान हो. कोई भी तुम्हारे सादृश्य नहीं है. अगर इसे ईश्वर पर लागू करते हैं तो वह तो अनुपमेय है ही.
( विजय शंकर सिंह )
आईना क्यों न दूं, कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ, कि तुझसा कहें जिसे !!
Aaiinaa kyon na doon, ki tamaashaa kahen jise,
Aisaa kahaan se laaoon, ki tujh'saa kahen jise !!
-Ghalib.
मैं तुम्हे दर्पण ही क्यों दे दूं, जिस से तमाशा दिखे. मैं तेरे जैसा कोई कहाँ से लाऊँ, जो तुझ जैसा ही हो.
यह शेर इश्क हकीकी है या इश्क मजाजी, प्रेयसी की प्रसंशा में कहा गया है, या ईश्वर की अनुपमेयता में, इस पर आप दुविधा में पड़ सकते हैं. लेकिन बात बहुत गहरी कही गयी है. प्रेयसी द्वारा यह गर्वोक्ति कि, मुझ सा कोई है तो बताओ. और ग़ालिब का सहज आत्मसमर्पण, कि कहाँ तुझ सा पाऊंगा कि लाकर तुम्हारे सामने रखूँ. बेहतर है दर्पण ही दे दूं. तुम खुद ही अपने समान हो. कोई भी तुम्हारे सादृश्य नहीं है. अगर इसे ईश्वर पर लागू करते हैं तो वह तो अनुपमेय है ही.
( विजय शंकर सिंह )
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