(यह चित्र किसी पक्षी का नहीं बल्कि पक्षी जैसे एक खिले हुए पुष्प का है. इस फूल का नाम है, Hebania radiata हर्बैनिया रैडिएटा। )
ग़ालिब -29.
आगही, दामे शुनीदन, जिस कदर चाहे बिछाएं,
मुद्द'आ अन्का है, अपने आलम ए तकरीर का !!
आगही दामे शुनॆदन - विद्वता से परिपूर्ण और इसका जाल बिछाने वाला.
अन्का - एक पक्षी जो किसी भी जाल में नहीं फंस सकता है.
आलम ए तक़रीर - कथन का भाव. अभिप्राय.
Aagahee, daame shuneedan, jis kadar chaahe bichhaaye,
Mudd'aa ankaa hai, apne aalam e takreer kaa !!
-Ghalib.
मेरी बात सुनने वाला, विद्वता और जानकारी का जितना भी सघन जाल फैलाए, मेरे विचार जो अनका पक्षी की तरह हैं, उसके बिछाए जाल में नहीं फंस सकते हैं. अर्थात कोई कितना भी विद्वान् क्यों न हो मेरी बातों को पूरी तरह से नहीं समझ सकता है. मैं दुरूह हूँ.
ग़ालिब अक्सर ऊपर से निकल जाते हैं. हम लोग भी बाउंसर गेंद की तरह सिर झुका लेते हैं. निकल जाने देते हैं. यह दुरूहता, जटिलता, और अग्येयता उन्हें सबसे अलग और विशिष्ट भी बना देती है. जब शब्दों और भावों का तिलिस्म टूटता है तो जोअन्दर दिखता है, वह चमत्कृत कर देता है. ग़ालिब के शेरों की सबसे बड़ी यही खूबी है, आप उनके वाक्य विन्यास, शब्द स्थान को इधर उधर नहीं कर सकते. इस से उनके शेरों का मिज़ाज तो बिगड़ता ही है, अर्थ भी प्रदूषित हो जाते हैं. बहुत कम शब्द, पर गागर में सागर का भाव लिए यह उनकी विशिष्ट शैली है. यह शैली फारसी जैसी कलात्मक और समृद्ध भाषा से उनके कलाम में आयी है.
लेकिन इस शेर का आशय यह भी नहीं है, कि जो वह कहते हैं और लिखते हैं उसे कोई समझ नहीं सकता है. उनका आशय है कि मैं तो बहुत सीधे तौर पर अपनी बात कहता हूँ. कभी कभी ऋजु भी समझ में नहीं आता है. और जब वह ऋजु अलंकार से परिपूर्ण हो तो और मुश्किल है. काव्यशास्त्र ऐसे ही काव्य को क्लासिक कहता है. छंद, अलंकार, आदि उस काव्य को जटिल तो बनाते हैं पर जब वह जटिलता खुलती है तो उसे पढने का आनंद ही और है. किसी भी गोपन या रहस्य का उदघाटन आनंद देता है. मानव प्रज्ञा स्वभावतः अन्वेषी होती है।
( विजय शंकर सिंह )
आगही, दामे शुनीदन, जिस कदर चाहे बिछाएं,
मुद्द'आ अन्का है, अपने आलम ए तकरीर का !!
आगही दामे शुनॆदन - विद्वता से परिपूर्ण और इसका जाल बिछाने वाला.
अन्का - एक पक्षी जो किसी भी जाल में नहीं फंस सकता है.
आलम ए तक़रीर - कथन का भाव. अभिप्राय.
Aagahee, daame shuneedan, jis kadar chaahe bichhaaye,
Mudd'aa ankaa hai, apne aalam e takreer kaa !!
-Ghalib.
मेरी बात सुनने वाला, विद्वता और जानकारी का जितना भी सघन जाल फैलाए, मेरे विचार जो अनका पक्षी की तरह हैं, उसके बिछाए जाल में नहीं फंस सकते हैं. अर्थात कोई कितना भी विद्वान् क्यों न हो मेरी बातों को पूरी तरह से नहीं समझ सकता है. मैं दुरूह हूँ.
ग़ालिब अक्सर ऊपर से निकल जाते हैं. हम लोग भी बाउंसर गेंद की तरह सिर झुका लेते हैं. निकल जाने देते हैं. यह दुरूहता, जटिलता, और अग्येयता उन्हें सबसे अलग और विशिष्ट भी बना देती है. जब शब्दों और भावों का तिलिस्म टूटता है तो जोअन्दर दिखता है, वह चमत्कृत कर देता है. ग़ालिब के शेरों की सबसे बड़ी यही खूबी है, आप उनके वाक्य विन्यास, शब्द स्थान को इधर उधर नहीं कर सकते. इस से उनके शेरों का मिज़ाज तो बिगड़ता ही है, अर्थ भी प्रदूषित हो जाते हैं. बहुत कम शब्द, पर गागर में सागर का भाव लिए यह उनकी विशिष्ट शैली है. यह शैली फारसी जैसी कलात्मक और समृद्ध भाषा से उनके कलाम में आयी है.
लेकिन इस शेर का आशय यह भी नहीं है, कि जो वह कहते हैं और लिखते हैं उसे कोई समझ नहीं सकता है. उनका आशय है कि मैं तो बहुत सीधे तौर पर अपनी बात कहता हूँ. कभी कभी ऋजु भी समझ में नहीं आता है. और जब वह ऋजु अलंकार से परिपूर्ण हो तो और मुश्किल है. काव्यशास्त्र ऐसे ही काव्य को क्लासिक कहता है. छंद, अलंकार, आदि उस काव्य को जटिल तो बनाते हैं पर जब वह जटिलता खुलती है तो उसे पढने का आनंद ही और है. किसी भी गोपन या रहस्य का उदघाटन आनंद देता है. मानव प्रज्ञा स्वभावतः अन्वेषी होती है।
( विजय शंकर सिंह )
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