Saturday, 19 August 2017

एक कविता - पटरी / विजय शंकर सिंह

पटरी पर न रेल है
और न पटरी पर है अर्थ व्यवस्था,
पटरी पर न संविधान की मर्यादा है
और न उनके लोगों की भाषा
पटरी पर न राजनीति के मूल्य हैं
और न लोकतंत्र की विरासत,
पटरी पर खड़ा ,
पटरी के निशान ढूंढ रहा हूँ ,
पटरी उखड़ गयी है या
बहा ले गया सैलाब उसे
आओ उन पटरियों को  बचायें,
जिन पर महफूज़ है,
एक लंबी और नातमान परंपरा,
गंगा की तरह , सब कुछ समेटे,
सतत प्रवाहमान
गं गं गमयति की एक जीवंत धारा !!

© विजय शंकर सिंह

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