Thursday, 17 August 2017

एक कविता - खामोशी / विजय शंकर सिंह



तुम जब खामोशी ओढ़ लेते हो ,
और भी गूढ़ और जटिल हो जाते हो,
अनानास के पके फल की तरह,
जटिल और कठोर छिलके लिए ,
पर, अंदर भरे, 
रस और नरम गूदे से भरपूर,
मीठा और पौष्टिक !
कोई अंदर पैठे कैसे ,
कैसे उतरे कोई भीतर,
स्वाद पाये कहाँ से,
माधुर्य और मृदुता का।
तुम्ही सुलझा पाओ तो सुलझाओ ,
मैं तो मुंतज़िर हूँ 
अब तुम्ही कुछ कहो , तो कहो !!

( विजय शंकर सिंह )

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