ग़ालिब -28.
आईना देख अपना सा मुंह ले के रह गए,
साहब को दिल न देने पर कितना गुरूर था !!
Aaiinaa dekh, apnaa saa munh le ke rah gaye,
Saahab ko, dil na dene par kitnaa guroor thaa !!
-Ghalib.
उन्हें बहुत गुमाँ था कि वह दिल किसी को नहीं देंगे. किसी से प्रेम नहीं करेंगे. पर जब दर्पण देखा और उसमें जो क्शवि दिखी तो सारा अहंकार और संकल्प कि दिल किसी को नहीं देंगे, धरा का धरा रह गया. अपनी ही क्शवि पर वह मंत्र मुग्ध हो उसी से प्रेम कर बैठे.
सौन्दर्य की प्रसंशा का यह अद्भुत बखान है. प्रेयसी को अपने रूप और सौंदर्य पर घमंड था, कि वह किसी से भी प्रेम निवेदन नहीं करेगी. पर जितनी सुन्दर वह खुद को समझती थी, उस से कहीं अधिक वह आईने में दिखी. उसका यह निश्चय की वह किसी को दिल नहीं देगी डिग गया. वह खुद से ही पराजित हो गयी. उन्हें दावा था किसी को चाहते नहीं, पर जब दर्पण में खुद को देखा तो लज्जित हो गए.
इसका एक यह आशय है कि, तुम्हारा सौन्दर्य ही ऐसा है, जो देखता है, तुमसे प्यार कर बैठता है. तुम इसे समझ नहीं पाते थे. पर जब तुम खुद पर रीझे तो तुम्हारा घमंड टूटा और तुम लज्जित हो गए. जब तुम अपने प्रतिबिम्ब पर मुग्ध हो कर उसे दिल दे बैठे, तो मैं जब तुम से प्रेम का इजहार कर बैठा तो, मैंने क्या गलत किया. तुम हो ही ऐसे कि कोई भी तुमसे प्रेम कर बैठे.
ग़ालिब का यह शेर कोमल कल्पना से परिपूर्ण है. आत्म मुग्धता की स्थित असामान्य नहीं है. हम्मे से हर कोई कभी न कभी किसी क्षण इस भाव का शिकार हो जाते है. आत्म मुग्धता अहंकार उत्पन्न करती है. अहंकार, खुद को एक ऐसे लोक में स्थापित कर देता है, जहां हमीं हम हैं दीखता है. पर जब हम आईना देखते हैं, और जो दीखता है, वह उस अहंकार को ही खंडित कर देता है. फिर तो अपना सा मुंह लेके रह ही जाना पड़ता हैं.
( विजय शंकर सिंह )
(यह चित्र -मुग़ल मिनिएचर पेंटिंग्स, जहांगीर आर्ट गैलरी)
आईना देख अपना सा मुंह ले के रह गए,
साहब को दिल न देने पर कितना गुरूर था !!
Aaiinaa dekh, apnaa saa munh le ke rah gaye,
Saahab ko, dil na dene par kitnaa guroor thaa !!
-Ghalib.
उन्हें बहुत गुमाँ था कि वह दिल किसी को नहीं देंगे. किसी से प्रेम नहीं करेंगे. पर जब दर्पण देखा और उसमें जो क्शवि दिखी तो सारा अहंकार और संकल्प कि दिल किसी को नहीं देंगे, धरा का धरा रह गया. अपनी ही क्शवि पर वह मंत्र मुग्ध हो उसी से प्रेम कर बैठे.
सौन्दर्य की प्रसंशा का यह अद्भुत बखान है. प्रेयसी को अपने रूप और सौंदर्य पर घमंड था, कि वह किसी से भी प्रेम निवेदन नहीं करेगी. पर जितनी सुन्दर वह खुद को समझती थी, उस से कहीं अधिक वह आईने में दिखी. उसका यह निश्चय की वह किसी को दिल नहीं देगी डिग गया. वह खुद से ही पराजित हो गयी. उन्हें दावा था किसी को चाहते नहीं, पर जब दर्पण में खुद को देखा तो लज्जित हो गए.
इसका एक यह आशय है कि, तुम्हारा सौन्दर्य ही ऐसा है, जो देखता है, तुमसे प्यार कर बैठता है. तुम इसे समझ नहीं पाते थे. पर जब तुम खुद पर रीझे तो तुम्हारा घमंड टूटा और तुम लज्जित हो गए. जब तुम अपने प्रतिबिम्ब पर मुग्ध हो कर उसे दिल दे बैठे, तो मैं जब तुम से प्रेम का इजहार कर बैठा तो, मैंने क्या गलत किया. तुम हो ही ऐसे कि कोई भी तुमसे प्रेम कर बैठे.
ग़ालिब का यह शेर कोमल कल्पना से परिपूर्ण है. आत्म मुग्धता की स्थित असामान्य नहीं है. हम्मे से हर कोई कभी न कभी किसी क्षण इस भाव का शिकार हो जाते है. आत्म मुग्धता अहंकार उत्पन्न करती है. अहंकार, खुद को एक ऐसे लोक में स्थापित कर देता है, जहां हमीं हम हैं दीखता है. पर जब हम आईना देखते हैं, और जो दीखता है, वह उस अहंकार को ही खंडित कर देता है. फिर तो अपना सा मुंह लेके रह ही जाना पड़ता हैं.
( विजय शंकर सिंह )
(यह चित्र -मुग़ल मिनिएचर पेंटिंग्स, जहांगीर आर्ट गैलरी)
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