लब बंद है साक़ी मेरी आँखों को पिला दे,
वह जाम जो मिन्नतकश ए सहबा नहीं होता !!
( मिन्नतकश ए सहबा - मदिरा के लिये इच्छुक )
मेरे अधर बंद हैं। पर मेरी आँखें तो खुली हैं । जिस चषक की मदिरा का कोई चाहने वाला न हो, वह चषक मुझे दे दे , मेरी आँखों को पिला दे ।
फ़ैज़ साहब के अदबी जीवन का यह पहला शेर है । उनके साहित्यिक जीवन का प्रथम पुष्प । 1927 में वह सियालकोट की एक साहित्यिक संस्था ' अख्वानुस्सफ़ा ' के एक जलसे में उन्होंने यह शेर पढ़ा था । उस समय वे इंटरमीडिएट के छात्र थे । प्रेमचंद जयंती के अवसर पर प्रेमचंद के ही हमख़याल शायर फ़ैज़ का यह शेर आप को ज़रूर पसंद आयेगा ।
#vss
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