Saturday, 5 August 2017

जब तोप मुक़ाबिल हो तो, डिलीट दबाओ / विजय शंकर सिंह

अकबर इलाहाबादी साहब , मैं आप से माफी मांगता हूँ । आप के कालजयी शेर जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो को थोडा पैरोड़ीनुमा बदल कर मैंने इस लेख का शीर्षक बना दिया है । आप तो मुंसिफ थे । जज थे । आज़ादी आने के पहले ही आप रुखसत हो गए । हम आप से अधिक खुशकिस्मत है कि हमने आज़ाद हवा और आज़ाद देश में आँखे खोली है तो उसी में जी रहे हैं । आप ने अखबार की ताक़त को तोप की ताक़त के ऊपर रखा है । अख़बार की भी कोई ताक़त होती है ? है तो वह महज कागज़ का एक टुकड़ा । और कागज़ भी गुणवत्ता की दृष्टि से हीन । लेकिन अखबार में जो अभिव्यक्त हो रहा है असल ताक़त वही अखबार की होती है ।  उसकी ताक़त उसके शब्द होते हैं जो बलिहाज़ मौके के हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, जुगुप्सा ,आक्रोश, क्षोभ आदि मनोभाव व्यक्त करते रहते हैं और हम सब उनमे अपनी अस्मिता और स्वर ढूंढ लेते हैं । स्वाभिमान और स्वतंत्र चेतना का भाव देश में आज़ादी की लड़ाई के दौरान जिन भी महानुभावों ने हमे दिया था, उन्होंने अखबार की इस  ताक़त को पहचाना था । उन्होंने सब से पहले अखबार ही निकाला । तिलक ने केसरी की स्थापना की । गांधी ने यंग इंडिया और हरिजन के प्रकाशन प्रारम्भ किये । इसके अतिरिक्त देश की अन्य भाषाओं में भी जिसे अंग्रेज़ी लोग वर्नाक्यूलर प्रेस कहते है , ज्ञात अल्पज्ञात पत्र निकले । इस से लोक चेतना जगी और लोगों को दिशा भी मिली ।

तोप सत्ता की ताक़त का प्रतीक है । लोगों ने समझ लिया था कि, उस ताक़त से निपटने के लिये उस से बड़ी ताक़त ईजाद करनी होगी । वह ताक़त अखबार थी । वह ताक़त जन चेतना थी । वह ताक़त जन भावना थी । यह जन चेतना और भावना, आज़ाद खयाली से ही पनप सकती है । तभी यह बात कही गयी कि ' जब तोप मुक़ाबिल हो अखबार निकालो । ' अखबारों ने यह चुनौती स्वीकार भी की और तोपों को बिना गरजे ही उन्हें चौराहों  पर ला कर खड़ा भी कर दिया । केसरी के लेखों से अंग्रेज़ तब तिलमिला गए थे जब आज़ादी के आंदोलन की रूपरेखा भी नहीं तय नहीं हुयी थी । स्वराज्य को जन्मसिद्ध अधिकार भी तब नहीं कहा था तिलक ने । यह कालजयी वाक्य जब तिलक अदालत में केसरी के एक लेख , जिस पर उनके खिलाफ राजद्रोह का मुक़दमा चल रहा था, के सम्बन्ध में अपना पक्ष रख रहे थे  तब कहे थे । उन्होंने राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह का अंतर भी बताया था  । ऐसे ही नहीं अंग्रेजों ने उन्हें फादर ऑफ़ इंडियन अनरेस्ट कहा था । वह चिनगारी सबको दिख गयी थी । शब्दों का नाद तोप के धमाकों पर भारी पड़ा । तिलक पर मुक़दमा चला और उन्हें सजा भी हुयी । उस समय दुनिया का सबसे ताक़तवर साम्राज्य केसरी के सामान्य से कागज़ पर छपे उन लेखों से ही डर गया था जिसकी प्रसार संख्या भी बहुत अधिक नहीं थी । यह एक उदाहरण मात्र है । पत्रकारिता के विद्यार्थी अगर स्वाधीनता संग्राम के समय के देश की पत्रकारिता पर शोध करेंगे तो उन्हें ऐसे बहुत से जुझारू पत्रकार और उदाहरण मिल जाएंगे ।

लेकिन आज यह लेख वर्तमान सन्दर्भ में है । अभी हाल ही में अमित शाह ने राज्य सभा के लिये अपना नामांकन गुजरात से भरा है । उन्होंने नियमानुसार अपना हलफनामा भी भरा । उस हलफनामे में उन्होंने अपनी संपत्ति का व्योरा दिया । चुनाव आयोग को दिए पिछले हलफनामे से इस हलफनामे तक उनकी संपत्ति की वृद्धि 300 % हुयी है । यह एक महत्वपूर्ण खबर थी । खबरें भी अज़ीब होती हैं । कभी कभी लोगों के मरने की खबर भी उपेक्षित हो जाती है और अति विशिष्ट व्यक्ति के उपवास में पिये गए नींबू पानी की खबर अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है । यह बिलकुल जाकी रही भावना जैसी ही बात है । अमित शाह के संपत्ति में 300 प्रतिशत की वृद्धि की खबर अखबारों में छपी और साथ ही उन अखबारों की वेबसाइट ने भी इसे छाप दिया । अब जब बात निकली तो दूर तक गयी । वहीँ से ट्विटर, गूगल आदि रास्ते तय करते हुये फेसबुक पर भी आ गयी । मैंने भी शेयर किया । उस पर चर्चा परिचर्चा आदि होने लगी । तीन घण्टे बाद वह खबर वेबसाइट से तो लुप्त हो गयी पर जो अखबार छप गया था वह तो डिलीट हो नहीं सकता था । तो अखबार की जो कतरनें साझा हुयीं उनसे यह खबर फैलती रही ।

अमित शाह की संपत्ति में वृद्धि हो सकती है यह एक अलग विषय है और इस पर अलग अलग राय लोग रख सकते हैं । देश मे ऐसे बहुत से लोग होंगे जिनकी संपत्तियों में वृद्धि हुयी होगी। आयकर विभाग इन सब की खबर रखता है। लेकिन मेरा यह सवाल है कि हलफनामे के उल्लेख को खबर के रूप में चलाने के बाद , मात्र तीन घण्टे में ही बड़े और नामी अखबारों की वेबसाइट्स ने उस खबर को क्यों हटा दिया ? वह कोई खोजी पत्रकारिता का निष्कर्ष तो था नहीं और न ही कोई गोपन अभिलेख का प्रकाशन कि अखबार किसी विवाद या कानूनी दांव पेंच में फंस जाता ! यह डिलीटिकरण किस के कहने पर हुआ था या अचानक अंतरात्मा जाग गयी थी ? क्या मीडिया में इतना भी साहस नहीं शेष बचा कि वह कह सके कि खबर सच थी और उसे बिल्कुल नहीं हटाया जाएगा । वह अमित शाह का स्वतः हस्ताक्षरित हलफनामा था अतः उसे हटाने का कोई औचित्य भी नहीं था । लेकिन वह खबर जब डिलीट हुयी तो दुबारा नमूदार नहीं हुयी ।

अंग्रेजों का समय जिसका मैंने प्रथम पैरे में उल्लेख किया है गुलामी का था । हम तब आज़ादी के बारे में सोच रहे थे । यह भी तय नहीं था हमे पूर्ण स्वराज्य चाहिये या क्राउन के अंतर्गत ही खुदमुख्तारी । लेकिन आज हम न सिर्फ सार्वभौम है , स्वतंत्र है बल्कि दुनिया की एक ऐसी ताक़त बन चुके है कि दुनिया की कोई ताक़त हमें नज़र अंदाज़ नहीं कर सकती । आज के स्वतंत्र चेता और संचार क्रान्ति के वातावरण में जब अखबारों की वेबसाइट सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष का स्वघोषित हलफनामा जो उनकी संपत्ति की वृद्धि के आधार पर पहले छापती है फिर उसे चुपके से हटा देती है तो यह उस मीडिया के प्रति असम्मान और बचकानापन ही जताती है । इतना ही भय है सत्ता का तो बेहतर है अखबार और न्यूज़ चैनल बन्द कर दें या यह घोषित कर दें कि हम अब उनके भोंपू बन चुके हैं जो दिल्ली के नार्थ और साउथ ब्लाक में बैठे हुए हैं । यह निष्पक्षता का ढोंग क्यों ? बड़े बड़े सुभाषित क्यों ? मैं एक पाठक और स्वतंत्रचेता नागरिक हूँ । मैं सच के लिए , विभिन्न विचारों पर आधारित ज्ञानवर्धक लेखों के लिये, दुनिया में क्या कुछ घट रहा है, यह जानने के लिये, अखबारों और वेबसाइटों का वातायन खोलता हूँ । सच जानना मेरा अधिकार है और सच बताना मिडिया का दायित्व । सत्ता रूढ़ दल का प्रचार करना अनुचित नहीं है पर अगर मिडिया का कोई तंत्र ऐसा करना चाहता है तो वह उस दल का मुखपत्र ही बन जाए न कि निष्पक्षता के लबादे में रहे । पत्रकारिता कभी मिशन थी, आज भी वह कहीं न कहीं शेष होगी । सब कुछ कभी भी नहीं मरता है । लेकिन ऐसा भी न हो कि जब तोप मुक़ाबिल हो तो डिलीट दबाओ ।
( विजय शंकर सिंह )

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