Friday 25 December 2020

चार्ली चैप्लिन की फ़िल्म द ग्रेट डिक्टेटर और तानाशाह का भाषण / विजय शंकर सिंह

प्रख्यात फ़िल्म अभिनेता, चार्ली चैप्लिन की  आज पुण्यतिथि है। चार्ली विश्व सिनेमा के एक महानतम अभिनेता रहे हैं। उनका निधन, 25 दिसम्बर 1977 को हुआ था। वे कहते थे, हंसे बिना, गुज़ारा हुआ एक दिन, बरबाद हुए एक दिन के बराबर है। कॉमेडी के लीजेंड कहे जाने वाले इस महान कलाकार की प्रतिभा को एक लेख में समेटना बहुत ही मुश्किल है। चैप्लिन, मूक फिल्म युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने अपनी फिल्मों में अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और संगीत भी दिया। चैप्लिन: अ लाइफ (2008) किताब की समीक्षा में, मार्टिन सिएफ्फ़ ने लिखा कि,
"चैप्लिन सिर्फ 'बड़े' ही नहीं थे, वे विराट् थे। 1915 में, वे एक युद्ध प्रभावित विश्व में हास्य, हँसी और राहत का उपहार लाए जब यह प्रथम विश्व युद्ध के बाद बिखर रहा था। अगले 25 वर्षों में, महामंदी और हिटलर के उत्कर्ष के दौरान, वह अपना काम करते रहे। वह सबसे बड़े थे। यह संदिग्ध है की किसी व्यक्ति ने कभी भी इतने सारे मनुष्यों को इससे अधिक मनोरंजन, सुख और राहत दी हो जब उनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।"

चार्ली को पढ़ना हो तो उन्हें उनकी आत्मकथा से पढा जाना चाहिए । उनकी आत्मकथा, आत्मकथा साहित्य के इतिहास में सबसे ईमानदार आत्म विवरणों में से एक मानी जाती है। चार्ली चैपलिन की कॉमेडी जहां आप को जीवंत कर जाती है वही वह आत्मा को भी झिंझोड़ देती है। मूक फिल्मों के इस महान कलाकार की कोई भी फ़िल्म आप देखना शुरू कर दें आप को उसमे कॉमेडी, परिहास के साथ साथ कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर मिलेगा जो आप को गम्भीर कर देगा। उनकी फिल्मों में, अंतरात्मा को झिंझोड़ने की गज़ब की सामर्थ्य है। 

चार्ली यहूदी थे और उनकी फिल्म द डिक्टेटर, यहूदियों का प्रबल शत्रु एडोल्फ हिटलर पर एक मार्मिक व्यंग्य के रूप में बनाई गयी है। यह चार्ली चैपलिन की सबसे लोकप्रिय फिल्मों में, शुमार होती है। फिल्म ' द डिक्टेटर। ' हिटलर के एक स्तब्ध कर देने वाले भाषण से खत्म होती है जो दुनिया को, महायुद्ध की उस विभीषिका में शांति और मानवता का एक अद्भुत  सन्देश दे जाती है। चार्ली ने इस फिल्म में हिटलर का बेमिसाल अभिनय किया है। यह हिटलर की मिमिक्री है। चार्ली की बड़ी इच्छा थी की , इस फिल्म का प्रदर्शन , हिटलर के सामने हो और वह खुद ऐसे प्रदर्शन के समय हिटलर के साथ थिएटर में मौजूद रहें। चार्ली की यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी।

द ग्रेट डिक्टेटर , वास्तव में हिटलर पर बेहद साधा हुआ और मार्मिक व्यंग्य है। हिटलर को जब ज्ञात हुआ कि उस पर ऐसी मज़ाक़ उड़ाने वाली फिल्म बनायी जा रही है तो उसने कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की , पर उसकी उत्कंठा अपने मज़ाकिया किरदार को देखने की थी। इस फिल्म की योजना चार्ली ने 1936 में नाज़ियों के प्रचार युद्ध का कला के माध्यम से जवाब देने के लिए बनायी थी। चैपलिन ने न केवल हिटलर जैसी मूंछे रखी बल्कि हिटलर के चलने और बात करने और केश विन्यास की भी नक़ल की। इस फिल्म की  स्क्रिप्ट , और लोकेशन दोनों में , वास्तविकता लाने के लिए कई बार बदलाव किया  गया । चार्ली ने हिटलर के भाषण देने के अंदाज़ , और उसके गर्दन तथा हाँथ झटकने की आदत की हू ब हू नकल करने के लिए , हिटलर से जुडी कई फिल्मों को बेहद संजीदगी के साथ देखा। 

चार्ली इस फिल्म का  अंत एक नृत्य के द्वारा करना चाहते थे। पर अंत में उन्होंने फिल्म का  क्लाइमेक्स बदल दिया। उन्होंने हिटलर के ही अंदाज़ में अपना अत्यन्त लोकप्रिय भाषण दिया जिसमें उन्होंने हिटलर के तानाशाही की धज्जियां उड़ा दीं। 100 मूक फिल्मों में अभिनय के बाद जब चार्ली मुखर हुए तो उनका हंसोंडपन खो गया और एक संजीदा अभिनेता सामने आया। फिल्म 1940 में रिलीज़ हुयी थी। उस समय युद्ध ज़ोरों पर था। यूरोप और एशिया में अफरा तफरी मची थी। अमेरिका तब तक युद्ध में शामिल नहीं हुआ था। लन्दन और पेरिस पर बमबारी हो रही थी। अमेरिका अपना उत्पादन बढ़ा कर , मुनाफ़ा कमा रहा था। यह फिल्म कलात्मक और चार्ली के अभिनय प्रतिभा का अप्रतिम उदाहरण होने के बाद भी अखबारों का उचित ध्यान नहीं खींच पायी और इसे जितना प्रचार मिलना चाहिए था, नहीं मिला। इसका कारण था, तब दुनोगी द्वितीय विश्वयुद्ध में उलझी थी और सारे अखबार युद्धों की ख़बरों और नेताओं के बयानों से भरे रहते थे।

लेकिन , हिटलर ने फिल्म देखी। तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार हिटलर ने यह फिल्म दो बार देखी। पर अकेले। चार्ली के साथ नहीं। बताते हैं कि जब उसे इस फिल्म , और उसकी मज़ाकिया भूमिका के बारे में भी बताया गया तो उसने इस फिल्म की प्रिंट मंगाई। अपने कार्यालय में एक विशेष प्रोजेक्टर पर यह फिल्म उसने देखी। उसे हैरानी हुयी कि कैसे कोई कलाकार , उसकी नक़ल करने के लिए , ढूंढ ढूंढ कर उसकी फिल्में देख सकता है। यह भी कहा जाता है कि चार्ली को अपशब्द कहने वाला , यह कठोर और उन्मादी तानाशाह , फिल्म में जब चार्ली का  भाषण जो , चार्ली ने हिटलर का अभिनय करते हुए दिया था , समाप्त हुआ तो , हिटलर फूट फूट कर रो पड़ा।अभिनय जब मर्म को छू जाय , तभी उसकी सार्थकता है , अन्यथा वह नाटक है।

फ़िल्म का सबसे मार्मिक और सन्देशयुक्त अंश है चार्ली का भाषण जो उसने हिटलर का किरदार जीते हुए दिया है। द ग्रेट डिक्टेटर’ फिल्म का भाषण कालजयी भाषण है। मशीनी युग की तार्किक आलोचना हो या तानाशाही की मुखर मुखालफत. या फिर मनुष्यता की भावना को सर्वोपरि रखने की सीख, यह भाषण सब कुछ समेटे हुए हैं, हर लिहाज़ से बार-बार सुना जाने लायक है। 

आप यह भाषण यहां पढ़ें, 
"मुझे खेद है, लेकिन मैं शासक नहीं बनना चाहता। ये मेरा काम नहीं है। किसी पर भी राज करना या किसी को जीतना नहीं चाहता। मैं तो किसी की मदद करना चाहूंगा – अगर हो सके तो – यहूदियों की, गैर यहूदियों की – काले लोगों की – गोरे लोगों की।

हम सब एक दूसरे की मदद करना चाहते हैं। मानव होते ही ऐसे हैं। हम एक दूसरे की खुशी के साथ जीना चाहते हैं – एक दूसरे की तकलीफ़ों के साथ नहीं। हम एक दूसरे से नफ़रत और घृणा नहीं करना चाहते। इस संसार में सभी के लिए स्थान है और हमारी यह समृद्ध धरती सभी के लिए अन्न जल जुटा सकती है।

‘जीवन का रास्ता मुक्त और सुन्दर हो सकता है, लेकिन हम रास्ता भटक गये हैं। लालच ने आदमी की आत्मा को विषाक्त कर दिया है – दुनिया में नफ़रत की दीवारें खड़ी कर दी हैं – लालच ने हमें ज़हालत में, खून खराबे के फंदे में फंसा दिया है। हमने गति का विकास कर लिया लेकिन अपने आपको गति में ही बंद कर दिया है। हमने मशीनें बनायीं, मशीनों ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी मांगें और बढ़ती चली गयीं। हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना छोड़ा है; हमारी चतुराई ने हमें कठोर और बेरहम बना दिया है। हम बहुत ज्यादा सोचते हैं और बहुत कम महसूस करते हैं। हमें बहुत अधिक मशीनरी की तुलना में मानवीयता की ज्यादा ज़रूरत है। चतुराई की तुलना में हमें दयालुता और विनम्रता की ज़रूरत है। इन गुणों के बिना, जीवन हिंसक हो जायेगा और सब कुछ समाप्त हो जायेगा।

‘हवाई जहाज और रेडियो हमें आपस में एक दूसरे के निकट लाये हैं। इन्हीं चीज़ों की प्रकृति ही आज चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है – इन्सान में अच्छाई हो – चिल्ला चिल्ला कर कह रही है – पूरी दुनिया में भाईचारा हो, हम सबमें एकता हो। यहां तक कि इस समय भी मेरी आवाज़ पूरी दुनिया में लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच रही है – लाखों करोड़ों – हताश पुरुष, स्त्रियां, और छोटे छोटे बच्चे – उस तंत्र के शिकार लोग, जो आदमी को क्रूर और अत्याचारी बना देता है और निर्दोष इन्सानों को सींखचों के पीछे डाल देता है। जिन लोगों तक मेरी आवाज़ पहुंच रही है – मैं उनसे कहता हूं – `निराश न हों’। जो मुसीबत हम पर आ पड़ी है, वह कुछ नहीं, लालच का गुज़र जाने वाला दौर है। इन्सान की नफ़रत हमेशा नहीं रहेगी, तानाशाह मौत के हवाले होंगे और जो ताकत उन्होंने जनता से हथियायी है, जनता के पास वापिस पहुंच जायेगी और जब तक इन्सान मरते रहेंगे, स्वतंत्रता कभी खत्म नहीं होगी।

‘सिपाहियों! अपने आपको इन वहशियों के हाथों में न पड़ने दो – ये आपसे घृणा करते हैं – आपको गुलाम बनाते हैं – जो आपकी ज़िंदगी के फैसले करते हैं – आपको बताते हैं कि आपको क्या करना चाहिए – क्या सोचना चाहिए और क्या महसूस करना चाहिए! जो आपसे मशक्कत करवाते हैं – आपको भूखा रखते हैं – आपके साथ मवेशियों का-सा बरताव करते हैं और आपको तोपों के चारे की तरह इस्तेमाल करते हैं – अपने आपको इन अप्राकृतिक मनुष्यों, मशीनी मानवों के हाथों गुलाम मत बनने दो, जिनके दिमाग मशीनी हैं और जिनके दिल मशीनी हैं! आप मशीनें नहीं हैं! आप इन्सान हैं! आपके दिल में मानवता के प्यार का सागर हिलोरें ले रहा है। घृणा मत करो! सिर्फ़ वही घृणा करते हैं जिन्हें प्यार नहीं मिलता – प्यार न पाने वाले और अप्राकृतिक!!
‘सिपाहियों! गुलामी के लिए मत लड़ो! आज़ादी के लिए लड़ो! सेंट ल्यूक के सत्रहवें अध्याय में यह लिखा है कि ईश्वर का साम्राज्य मनुष्य के भीतर होता है – सिर्फ़ एक आदमी के भीतर नहीं, न ही आदमियों के किसी समूह में ही अपितु सभी मनुष्यों में ईश्वर वास करता है! आप में! आप में, आप सब व्यक्तियों के पास ताकत है – मशीनें बनाने की ताकत। खुशियां पैदा करने की ताकत! आप, आप लोगों में इस जीवन को शानदार रोमांचक गतिविधि में बदलने की ताकत है। तो – लोकतंत्र के नाम पर – आइए, हम ताकत का इस्तेमाल करें – आइए, हम सब एक हो जायें। आइए, हम सब एक नयी दुनिया के लिए संघर्ष करें। एक ऐसी बेहतरीन दुनिया, जहां सभी व्यक्तियों को काम करने का मौका मिलेगा। इस नयी दुनिया में युवा वर्ग को भविष्य और वृद्धों को सुरक्षा मिलेगी।

‘इन्हीं चीज़ों का वायदा करके वहशियों ने ताकत हथिया ली है। लेकिन वे झूठ बोलते हैं! वे उस वायदे को पूरा नहीं करते। वे कभी करेंगे भी नहीं! तानाशाह अपने आपको आज़ाद कर लेते हैं लेकिन लोगों को गुलाम बना देते हैं। आइए, दुनिया को आज़ाद कराने के लिए लड़ें – राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़ डालें – लालच को खत्म कर डालें, नफ़रत को दफ़न करें और असहनशक्ति को कुचल दें। आइये, हम तर्क की दुनिया के लिए संघर्ष करें – एक ऐसी दुनिया के लिए, जहां पर विज्ञान और प्रगति इन सबकों खुशियों की तरफ ले जायेगी, लोकतंत्र के नाम पर आइए, हम एक जुट हो जायें!

हान्नाह! क्या आप मुझे सुन रही हैं?
आप जहां कहीं भी हैं, मेरी तरफ देखें! देखें, हान्नाह! बादल बढ़ रहे हैं! उनमें सूर्य झाँक रहा है! हम इस अंधेरे में से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं! हम एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं – अधिक दयालु दुनिया, जहाँ आदमी अपनी लालच से ऊपर उठ जायेगा, अपनी नफ़रत और अपनी पाशविकता को त्याग देगा। देखो हान्नाह! मनुष्य की आत्मा को पंख दे दिये गये हैं और अंतत: ऐसा समय आ ही गया है जब वह आकाश में उड़ना शुरू कर रहा है। वह इन्द्रधनुष में उड़ने जा रहा है। वह आशा के आलोक में उड़ रहा है। देखो हान्नाह! देखो!"

आज हम एक महामारी की त्रासदी से तो जूझ ही रहे हैं, पर इस त्रासदी की आड़ में नवउदारवाद और उसकी आड़ में जड़ पकड़ रहे पूंजीवाद के सबसे घृणित रूप से भी रूबरू हो रहे हैं। दुनिया मे एक नए प्रकार की तानाशाही और पूंजीवाद विकसित हो रहा है जो मशीनों की तरह ही संवेदनाशून्य है। देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर लाखों किसान अपनी बात कहने के लिये इस घोर सर्दी में एक महीने से शांतिपूर्ण धरने पर बैठे हैं और वे अपनी उपज की वाजिब कीमत मांग रहे हैं, जो उनका मौलिक हक़ है। इस धरने में आज तक 40 किसान अपनी जान गंवा चुके हैं, पर आज तक सरकार या प्रधानमंत्री ने उन निरीह नागरिको की अकाल मृत्यु पर एक शब्द भी नहीं कहा।

क्या यह आचरण एक लोकतांत्रिक और ऐसे संविधान के अनुसार शासित देश का कहा जा सकता है जिसके नागरिकों को न केवल अभिव्यक्ति से जीने तक के मौलिक अधिकार और लोककल्याणकारी राज्य के नीति निर्देश तक संहिताबद्ध हों ? जहां धर्म ही सार्वजनिक कल्याण की नींव पर टिका हो वहां सरकार की ऐसी चुप्पी, लोकतांत्रिक राज्य के धीरे धीरे पूंजीवादी फासिस्ट तानाशाही में रूपांतरित होते जाने के लक्षणों की ओर संकेत करती है। हिटलर तमाम ताक़त, अनियंत्रित दुष्प्रचार तंत्र, और युद्ध मे अपार सैन्य बल, के बावजूद आज दुनिया का सबसे निंद्य और उपेक्षित तानाशाह है क्योंकि वह घृणा और संवेदना से हीन व्यक्तित्व था। राज्य को अपनी जनता के प्रति सदय और सम्वेदनशील होना चाहिए । प्रजा वत्सलता, प्राचीन भारतीय राजशास्त्र में राजा का एक प्रमुख गुण माना गया है। चार्ली का यह कालजयी भाषण आज भी ठस, अहंकारी और जिद्दी सत्ता के लिये एक उपदेश है, पर ठस अहंकारी और जिद्दी सत्ता अंधी और बहरी भी हो जाती है। 

( विजय शंकर सिंह )

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