Wednesday 30 December 2020

शब्दवेध (52) ठोस भी द्रवसंज्ञक

मुहावरा तो यह है कि पत्थर नहीं पसीजता,  पत्थर नहीं पिघलता, पत्थर का कलेजा नहीं  फटता,  परंतु  प्रकृति का विधान कुछ ऐसा है कि पानी पत्थर (उपल) हो जाता है  और  द्रवित भी होता है,  पसीजता भी है  और बाहर की चोट के बिना  ताप और शीत के प्रभाव से दरकता भी है।   जहां तक संज्ञा का प्रश्न है, मनुष्य के हस्तक्षेप से उससे ध्वनियाँ भी पैदा होती है, परंतु  यह हैरान करने वाली बात है  कि पत्थर और पहाड़ का नामकरण  इन ध्वनियों पर नहीं जल की  ध्वनियों पर आधारित है।  
 
कड़
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पहली नजर में ऐसा लगता है कि  यदि दूसरे नाम जल पर आधारित हों भी हो तो कड़ की ध्वनि तो  पत्थर  के  पत्थर से टकराने  की ही पैदा हो सकती है।   यह संज्ञा   मनुष्य ने इसे पाषाण युग में  अपने  औजार बनाते समय   उत्पन्न ध्वनि  की  नकल करते हुए  दी होगी।   पहले  हम स्वयं भी यही सोचते थे परंतु कतिपय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी पुरानी धारणा बदलनी पड़ी।  पहला  यह कि  तमिल में ‘कल’ का अर्थ पत्थर है।  लातिन में  calx / calcis - lime stone को कहते हैं।,  इस रोशनी में  विचार करने पर हम पाते हैं  चूना पत्थर के लिए हिंदी में भी  कल्ली  का प्रयोग होता है।   दूसरा पक्ष यह है कि ‘कल’ का उच्चारण  बोलियों में कल, कळ, कड़ रूपों में होता है।  इसलिए  आरंभ जहां से भी हुआ हो,   किसी एक रूप से सभी का अलग-अलग बोलियों में  प्रयोग संभव था ।  कल के अनेक आशयों में  सबसे प्रधान  जल है, पत्थर ठीक उसके बाद आता है। इन दोनों का  संकल्पनाओं के नामकरण और अर्थ विकास में  सहयोगी भूमिका है। कड़ की आवर्तिता से कंकड़ बना  है, परंतु कंकड़ के  कंक - को हड्डी के लिए प्रयोग में लाया गया,  जिससे  यह कंकाल -  अस्थि-पंजर -के लिए प्रयोग में आया और   पंजर ने  मानव शरीर को  एक  पिंजड़े के रूप में  कल्पित करने में  प्रेरक की भूमिका निभाई, जिसमें आत्मा और परमात्मा   पक्षी के रूप में कैद हैं और इनमें से एक पिजड़े का आराम,  बिना कुछ किए खाने-पीने की लालच को त्याग नहीं पाता और दूसरा अपनी मुक्ति चाहता है, परंतु जब तक यह पंजर  टूटता नहीं है वह मुक्त नहीं हो सकता। 

भारतीय मनीषा में यह अवधारणा  इतने गहरे उतरी  हुई है और इसे इतने रूपों में दुहराया गया है  कि  जिसे समझने में  सुपठित लोगों को जितनी कठिनाई होती है उससे बहुत कम आयास से  अनपढ़  लोग इनका मर्म समझ लेते हैं।  इसका दूसरा बिंब - एक डाल दो पंछी बैठे एक गुरु एक चेला वाला है।  जो इन पंक्तियों में डाल  है वह ऋग्वेद में एक वृक्ष के रूप में कल्पित किया गया है -
(द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति, अनश्नन अन्यो अभि चाकशीति) । 

यदि आप जानना चाहें कि वृक्ष  क्यों?  तो इसका उत्तर है कि वक्ष, वृक्ष और अंग्रेजी के  box में अर्थसाम्य है।  वृक्ष का एक पुराना नाम  वन था, जो आगे चल कर जंगल का पर्याय बन गया,   और फिर  वन में विचरने वाले  दो प्राणियों की कल्पना पक्षी के रूप में नहीं की जा सकती थी,  इसलिए पक्षी  का स्थान दो हिरनों ने ले लिया   - हिरना समुझि समुझि बन चरना। 

पाषाण
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पाषाण का नाम लेने पर पाखंड  अर्थात पाषंड का ध्यान आता है।   इसका प्राचीन अर्थ करुणा,  दया हुआ करता था।  जैनमत और बौद्ध धर्म को पराजित करने के लिए ब्राह्मणों ने  भर्त्सना को अपना हथियार बनाया तो उनकी  मूल्य-परंपरा से जुड़े हुए आस्थापरक शब्दों को भी गाली में बदल दिया।  उसके विस्तार में न जाएंगे,  परंतु यह बताना जरूरी है कि दया भाव के लिए प्रयुक्त इस शब्द को  वह अर्थ दे दिया जिससे हम सभी परिचित हैं पाषाण शब्द का जल से क्या संबंध है इसे समझने में यह इतिहास  सहायक है।  अब यदि हम पस/पश > (पसावन), पसिजल , पसेव/पसीना>प्रस्वेद,  पसरल> प्रसार, पास (किण्वित पेय), पशु, पूषा, पूष, पौष,  पासी,पसंद जैसे शब्दों पर ध्यान दें तो ऊपर की धारणा को समझने में मदद मिल सकती है।  जल से जुड़ी अवधारणाओं को - प्रकाश  >*पश  > पिंश - सजना,  पेशस्-रूप,  स्पश- spy,  ओपश - आभामंडल,  गति - पेस (pace), पास (pass), पैसेज (passage), पुश (push), पैसन (passion) और मवाद के लिए पस( पस/पश मूल से निकले हैं।  इनमें से  एक-एक की राम कहानी   बयान करना  हमारे लिए भी अपनी सीमाओं को देखते हुए संभव नहीं  लगाता। और कुछ का आविष्कार किया।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )


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