Friday 18 December 2020

शब्दवेध (38) डगमगाते हुए

गाड़ी का चलन जितना भी बढ़ गया हो, इसे चलते हुए देख कर भी यह नहीं समझ पाते कि इसे गाड़ी क्यों कहा जाता है।  बहकावे में आ जाते हैं कबीर के जो किताबों से डरता था कि कहीं पढ़ने पर दिमाग न उलट जाए।  पूछना ही था तो मेरे पास आते, पर दुर्भाग्य से तब मैं था नहीं और अब जब हूँ तो कोई मेरी सुनता नहीं। इस बीच राजाओं नवाबों की  सैकड़ों पीढ़ियों का अता - पता नही, कबीर की साहबी जस की तस कायम है। चलती को उस जमाने में भी लोग गाड़ी कहते तो कबीर को रोना आ जाता था, जब गाड़ी के नाम पर बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी ही थी आज तो रेलगाड़ी भी है। ।  कबीर गुस्से में, अपने को छोड़, पूरी दुनिया को बावला सिद्ध कर देते थे। यही एक मामला है जिसमें कबीर मेरे समानधर्मा सिद्ध होते हैं, क्योंकि अपने को छोड़ कर, पूरे जहान को मैं भी बावला समझता हूँ, कबीर आज होते तो उनको भी मान लेता।  कबीर की समस्या यह कि इतनी उलटी बात हो रही है, किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती, हमारी यह कि कबीर की बात मानने वालों के कान पर इतनी जूएँ रेंगने लगी हैं कि कान दिखाई ही नही पड़ते।

जैसा हम देख चुके हैं,  दुनिया की सभी भाषाओं में, सभी लोग, हजारों ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनका अर्थ वे नहीं जानते या जिनका जो अर्थ समझ में आता है, उससे उलझन में पड़ जाते हैं कि उसके काम, रूप और नाम में कोई मेल क्यों नहीं है। आप बेफिक्री से कह सकते हैं, नाम को लेकर परेशान क्यो होना! गुलाब को किसी नाम से पुकारें, उसकी गंध वही रहेगी!  परंतु उसका नाम न लें तो भी गंध में अंतर न आएगा।  प्रत्यक्ष के लिए नाम की जरूरत ही नहीं। भाषा अनुपस्थित को शब्दों के माध्यम से उपस्थित करने की जादूगरी है।  भाषा झूठ के माध्यम से - नाम और नामित के संबंध को मिटा कर दुनिया को बर्वाद करने का मारण पाठ भी है। जो शब्दों की सतही जानकारी रखता है वह वस्तुजगत की भी सतही जानकारी रखता है। know your words minutely to control the world confidently.

हम जितने लोगों को देखते हैं उन सभी को नहीं जानते। जिन्हें जानते हैं उनमें भी सभी का परिचय हमें प्राप्त नहीं होता। जिन्हें अच्छी तरह जानते है, उनके साथ भी सालों गुजारने के बाद भी कभी किसी एक अनुभव से इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि इसे समझा  ही नहीं था। शब्दों के साथ हमारा नाता भी कुछ ऐसा ही है , इसलिए यह दावा तो किया ही नहीं जा सकता कि हम सभी शब्दों की जन्म कुंडली से परिचित हैं,  पर अधिकाधिक शब्दों की कीमियागरी समझना अपने विषय और परिवेश पर हमारे जादुई पकड़ को मजबूत करता है। हमारी हालत उल्टी है। हम जिन शब्दों को सबसे अधिक उपयोग करते हैं उनका या तो अर्थ नहीं जानते या किसी क्षुद्र लाभ के लिए उनके अर्थ को नष्ट करते रहते हैं।
 
दुनिया यदि बावरी है तो इसलिए कि वह अक्सर पदार्थ को, जिसमें पद और अर्थ दोनों संपृक्त होते हैं, भूल जाती है, नाम को वस्तु का ध्वनिप्रतीक बना देती है, यह प्रतीक चलता रहता है, और वस्तु और नाम के बीच का संबंध ओझल हो जाता है। इससे हमारे काम में किसी तरह की रुकावट नहीं आती, इसलिए हम इसे अधिक तूल भी नहीं देते। उल्टे अक्सर विषेषज्ञों को भी कहते पाया जाता है कि नाम यादृच्छिक या आर्बिट्रेरी होते हैं। हमारे पास ज्ञानसंपदा इतनी अधिक हो गई है कि लगता है जो जानने योग्य था जाना जा चुका। यह नयी बीमारी नहीं है। 

इस तथ्य को दुहराना जरूरी है कि हम किसी नाद को, इतने भिन्न रूपों में सुनते हैं कि एक ही प्रकृत नाद, या अज्ञात भाषा का शब्द, विभिन्न परिस्थितियों में, विभिन्न रूपों में सुना जा सकता है, सुना जाता है और उसका वाचिक अनुकरण सभी अपनी भाषा की ध्वनिव्यवस्था के अनुसार करते हैं, अतः उसके अनगिनत नाम हो सकते हैं और किसी संज्ञा से कल्पना के सहारे प्रकृत नाद पर पहुंचना संभव भी हो तो उसे संगीत में ही व्यक्त किया जा सकता है; भाषा में नहीं। 

हम केवल अपनी भाषा की ध्वनि-प्रकृति के अनुसार इस संबंध की तलाश कर सकते हैं। अतः वह ध्वनि ही उस वस्तु, क्रिया, गुण और विरोधी गुण के लिए प्रयोग में आती है। यही संज्ञा का संज्ञेय के कार्य और रूप से निसर्गजात संबंध है। उस क्रिया और नाद की उपेक्षा कर दें तो यह समझना असंभव हो जाता है कि एक ही शब्द में विरोधी अर्थ कैसे हो सकते हैं। 

यदि मनुष्य के अपने वश में होता तो वह ऐसी भूल नहीं कर सकता था।  यह शब्द की स्यायत्तता को प्रकट करता है और यह स्वायत्तता नाद की अपनी स्वयत्तता से पैदा होती है। मनुष्य केवल उसका चुनाव करता है। कहा जा सकता है कि एक सीमित अर्थ में संस्कृत की धातुएँ उस नाद से वाचिक सन्निकटन का प्रयास है, परंतु धातुओं की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उनमें इस तथ्य को खुल कर स्वीकारा नहीं गया है और उनकी व्याप्ति केवल संस्कृत शब्द-भंडार तक है इसलिए उनसे देशज शब्दों की  व्याख्या नहीं हो पाती।  इसलिए हेमचंद्र ने देसी नाममाला का एक अलग संग्रह किया था जिनकी व्याख्या धातुओं से नहीं हो पाती जब कि प्राकृत नाद  के अनुवाचन से देसी, संस्कृत, भारोपीय, और अन्य भाषा परिवारों में,  रूप और अर्थ में सदृश और भिन्नतर सभी प्रकार के शब्दों, प्रत्ययो, निपातों और उपसर्गों की व्याख्या संभव है। 

अभी तक किसी भाषा का व्युत्पत्तिकोश बना ही नहीं। जिसे व्युत्पत्ति कहा जाता है वह सजात (cognate) शब्दों और रूपों की तलाश से आगे बढ़ नहीं पाता। प्रोटो इंडोयूरोपियन के जिन शब्दमूलों (stem) की तलाश की गई है, उनमें भाषा के प्रसार की उल्टी दिशा चुनने और यूरोपीय बोलियों के हाल के प्रतिरूपों पर अधिक ध्यान देने के कारण पूरी तरह व्यर्थ न होते हुए भी यह सं. धातुओं से भी कम उपयोगी है।

गड़, गढ़, कड़, कढ़ घड़, हड़ (तु, करें हाड़> हड्डी)    में लगभग एक ही स्रोत - पत्थर के पत्थर से टकराने, रगड़ खाने से उत्पन्न नाद का हाथ है।  रगड़ के आद्यक्षर को हटा दें तो इस  उपादान से इस क्रिया के टकराते, घिसते हुुए जलधारा मे आगे बढ़ने से उत्पन्न ध्वनि (र)गड़ सुनाई देगी।  अपनी जरूरत से हम दो बटिकाओं को रगड़ कर इच्छित शक्ल देना चाहें तो भी वही ध्वनि निकलेगी। यहाँ तक कि यदि एक बटिका को दूसरी से तोड़ें तो इस क्रिया से उत्पन्न नाद को इसी रूप में सुना और बोला जा सकता है।    

अब इन ध्वनियों का अर्थ - (1) उपादान की दृष्टि से - पत्थर, (2) कारक की दृष्टि से जल,  (3) क्रिया की दृष्टि से  बनाना,  तोड़ना, गहराई में जाना, (क्रिया विशेषण की दृष्टि से इन ध्वनियों की आवर्तिता।) ; 4. भावी व्यंजनाओं की दृष्टि से इनके आद्य-अक्षर या मूल का धातुओं के रुप में उपयोग और इनकी सीमा में कुछ मामूली परिवर्तन जिनके विषय में हम सचेत  नहीं होते पर जो स्वर - व्यंजन - विन्यास बन कर वह घटक बनाते हैं जिनकी सीमाओं का उल्लंघन सहन नहीं। आगे की चर्चा  कल के लिए रखी जा सकती है।  आज के लिए इतना ही कि (र)गड़, (र)गड़ा, गढ़, गढ़(ना), गहन, गाड़ना के लिए गढ़ा > घड़ा, गढ़ - पहाड़, गड़हा (गढ़ा), गड्ढा, की विरादरी के कारनामों पर आप भी विचार करें कि इन सभी को समझने में हमारी जानकारी में हमारा ज्ञान-विस्तार हो रहा है या ह्रास।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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