Monday 21 December 2020

शब्दवेध (42) भाषा और मूर्तिविधान

भाषा  श्रुत संसार का  पुनरुत्पादन या,  अनुनादन  नहीं है।  यदि ऐसा होता  तो  उसकी संचार-सीमा उसके भाषा बनने में बाधक होती।  चित्र लिपि में  केवल उसी वस्तु का  बिंब उभर सकता था   जिसका वह चित्र था। यदि  इसका पालन किया जाता तो संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं  उन सभी  के चित्र बनाने होते  और उसके बाद भी भाषा केवल संज्ञाओं का  भंडार बनकर  रह जाती।  इतना ही नहीं,  हमारा संसार  सिमट कर इतना छोटा हो जाता जितने का चित्र बनाने की क्षमता हममें होती।   चित्रांकन को महत्व देते हुए जिन लिपियों का विकास हुआ उनमें भी अमूर्तन से काम लिया गया और इसके बाद भी  लिपि  चिन्हों की संख्या  इतनी अधिक थी  अक्षरों की संख्या इतनी अधिक थी  कि  साक्षर लोग लगभग दुर्लभ थे। 

यही समस्या लिपि के विकास से पहले बाह्य जगत के संकेतन के लिए बोल चाल के स्तर पर उपस्थित हुई थी। अनुकरण की सीमा के कारण  मनुष्य की भाषा मैं बहुत कम ध्वनियाँ थी। उसका  वस्तु बोध  और भाव बोध  बहुत सीमित था। इसके कारण  जिन  श्रुत  ध्वनियों का  अमूर्तन संभव नहीं था,  उनका अनुकरण जहाँ संभव हो पाया,  जिनका हो पाया उनकी ध्वनियाँ केवल  उनकी संज्ञा बन पाईं -  कौवा/ क्रो;  टिटिहरी, कोकिल, झींगुर, हुँड़ार/हाउंड, डॉग , पपीहा।  भाषा की शक्ति  अनुनाद से आगे बढ़कर  वाचिक संकेत प्रणाली विकसित करने में है परंतु उसने अपना संबंध  प्राकृतिक नादों से  इतनी दूर नहीं जाने दिया की ध्वनि  और  ध्वनित  के बीच का संबंध पूरी तरह मिट जाए।

पिछड़ी से पिछड़ी  भाषा में भी   अनुनादी शब्दों की संख्या बहुत सीमित है।  आवर्ती ध्वनियाँ  अवश्य  उन्नत भाषाओं की तुलना में अधिक मिलेगी।   उदाहरण के लिए  संताली और  उसके समकक्ष  भोजपुरी के कुछ प्रयोगों को लिया जा सकता है:
अकल सकल - बेचैन
अजक बुजक - बेतरतीब, टेढ़ा-मेढ़ा 
अकल पकल - अकाल दुकाल
अकर कुकर - परेशान. बेहाल
अक बक । अका बका
अकबकाव - परेशान, बेहाल, भरमल
अबू-चबू = भो. अकचकाइल
अचल-गँजल -  धारासार वर्षा
अचुर बिहुर - आगे-पीछे
अड़ई बड़ई - अक्खड़   भो. अड़बड़, अड़बेंड़
अढोंङ मढोङ - कम मोल पर बेचना, आधा-तिहाई पर...
अदात उदात - कम उम्र का (काम में आने लायक नहीं) - भो. उद्दत बछड़ा
अध पध - अधूरा किया हुआ
अगर डिगर - उल्लंघन -   > डग, डगर, डगरल, डग्गा, डुग्गी, *डगमग/डगर, डगोरा > ढिमिलाइल, 
अगोर ओडोर - ठिगना और मोटा
अकबक - झटपट (अकबका के)
अलङ फोलङ (अलोङ फोलोङ) - मटरगश्ती

आवर्ती ध्वनियाँ  सभी भाषाओं में  किसी न किसी अनुपात में पाई जाती हैं।  ध्यान देने की बात यह है इनमें भी सीधी नकल नहीं होती और सामान्यतः दूसरे की ध्वनि को कुछ बदल दिया जाता है -फिटफाट, झटपट, टिट-टैट।  मनुष्य स्वभावतः  एकरसता  पसंद नहीं करता,  पशुओं से उसका अंतर यह है कि वह नवीनता प्रेमी है।

भाषा  श्रुत ध्वनियों का अनुनादन  नहीं अनुवादन है,  अनुवाचन है ,  और इसी से यह  संगीत  से अलग  हट कर एक  संकेतन प्रणाली का रूप लेती है और इस क्रम में   वाचिक  ध्वनियों के  मूर्ति विधान की एक प्रणाली  बनकर  अमूर्त भावों विचारों क्रियाओं  विशेषताओं और स्थितियों को  व्यक्त करने में समर्थ होती है। गीत भाव जगत की   गहराइयों को समझने तक सीमित रह जाता है, विचार जगत का स्पर्श नहीं कर पाता।  चित्र विधान से  संकेतन प्रणाली  में बदलते  में पुराने अनुभव से मनुष्य जाति को  दोबारा  गुजरना पड़ा,  क्योंकि उसे अपने पुराने अनुभव की याद तक नहीं रह गई थी इसलिए वह भाषा की उत्पत्ति और विकास के नियम को भी समझने में असमर्थ हो चुका था।  अब उस वर्णमाला का विकास संभव हुआ  जो किसी समुदाय की वाणी को अधिकतम   शुद्धता से  अंकित करने में समर्थ होती है।

हमें इस इतिहास का ध्यान आने के बाद आश्चर्य नहीं होता कि  हमारे विख्यात भाषा विज्ञानियों ने भाषा की उत्पत्ति और विकास पर विचार करते हुए लेखन प्रणाली में संभव हुए विकास को आधार बनाने की कोशिश क्यों नहीं की  और जैसे नादान कारीगर अपने औजार को कोसता रहता है उसी तरह वे अनुनादन की प्रक्रिया को अपर्याप्त और असंभव मानकर नैसर्गिक ध्वनियों की भूमिका को क्यों ना समझ पाए और उन्हें ही कोसते रहे।

हमारे लिए तो इतना ही बहुत है कि हम समझ सकें कि शब्दों और मुहावरों के पीछे एक इतिहास, एक दर्शन, एक विचारधारा भी हो सकती है। इसलिए शब्दों पर बात चले तो फूंक फूंक कर पांव रखना एक जरूरत और जिम्मेदारी भी बन जाती है।

इस चर्चा में हम आप को इस मुहावरे के अनुसार चलने की सलाह तो न देंगे, परंतु आप से एक एक वाक्य को घूर घूर कर देखने की अपेक्षा अवश्य करेंगे। आपको पता है लोग घूरने का काम कबसे करते आ रहे है? क्या आपने फारसी के ग़ौर को घूरने से मिला कर देखा है? अब यदि दुबारा ग़ौर करें तो इस शब्द का इतिहास कम से कम चार हजार साल पीछे चला गया। तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।। 1.22.20  घूरने का अर्थ न जानते हो तो मरियम वेब्स्टर का कोश देख लीजिए जिसमें अंग्रेजी गेज़ का अर्थ बताते हुए लिखा हुआ है, to fix the eyes in a steady intent look often with eagerness or studious attention. 

जो कुछ जीवन और व्यवहार से लुप्त हो जाता है वह भी भाषा में एक रहस्यमय तरीके से हजारों साल तक किसी कोने में दुबका बचा रहता है। इसलिए जो इतिहास की किसी पुस्तक में दर्ज नहीं है, जिस तक पुरातत्वविद तक की पहुंच नहीं हो सकती, उसको आप कई बार भाषा में प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जो अन्यत्र मृत और अश्मीभूत मिलेगा, वह भाषा में जीवन्त मिल सकता है, वह भी इतना कि आप चाहें तो उसकी धड़कनें भी गिन लेंं, गो यह हर मामले में जरूरी नहीं,  क्योंकि  इससे आपके दिल की धड़कन बढ़ सकती हैं। जो कुछ साहित्य में अतिरंजित मिलेगा, वह शब्दों में कांटे की तौल मिलेगा और तब आपको पता चलेगा कि कांटे इतने तरह के होते हैं,  जिनसे कांटे की बात तो की जा सकती है, कांटे से कांटा निकाला जा सकता है, जरूरत पड़े तो किसी की राह में काँटा बिछाया भी जा सकता है और डंडी को टेढ़ी करके कांटे की तौल को घाटे की तौल बनाया जा सकता है! डंडा मारने  और डंडी मारने  से पड़ने वाली चोट के फर्क को तभी समझा जा सकता है।

क्या क्या आपने कभी नाक के बाल मुहावरे का अर्थ समझने की कोशिश की है।  नहीं की होगी।  मैं समझाता हूं।  आपकी पहुंच  नाक ऊंची करने और नाक काटने और बचाने तक ही है।  परंतु ऐसे लोग भी हो सकते हैं कि नाक का  तो सवाल ही नहीं नाक के बाल को भी कोई काट नहीं सकता।   और ऐसे लोगों को जिन्हें वे अपनी नाक का बाल मान लें बचा कर रखना और उनकी हर तरह से रक्षा करना उनका कर्तव्य बन जाता  है। इस तरह शब्दों का  मूर्तनविधान एक तरह का है और मुहावरों का मूर्तन विधान इससे कुछ अलग।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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