Friday 18 December 2020

शब्दवेध (36) आंख से कोई आवाज़ नहीं निकलती.

हमने आँख से संबंधित शब्दावली पर चर्चा अक्षि/आंख  और तमिल के कण्  से आरंभ की थी।  आज भी उसी पर विचार करेंगे, फिर भी यह विश्वास नहीं पाल सकते कि यदि दो चार दिन और इसी पर बात बात करें तो भी इसके समूचे प्रसार को समेट सकेंगे। अब तक की चर्चा में हमने यह पाया कि जिसे हम निरा द्रविड़ या तमिल शब्द मानते हैं वह इतने आदिम चरण से हिंदी क्षेत्र की बोलियों, हिंदी और यहाँ तक कि संस्कृत मे इतने अधिकार और सक्रियता और मौलिकता के साथ जमा हुआ है जिसका स्वयं द्रविड़ भाषाओं में अभाव है। शब्द तमिल का और उसका संकल्पनात्मक आथार सूक्ष्म आशय और मुहावरे भोजपुरी और संस्कृत में।   इसके कारण का संकेत हम कर आए हैं पर यह जोड़ना जरूरी है कि इसके कारण ही जिसे रामविलास जी हिंदी प्रदेश कहते रहे हैं उसमें वह सर्वसमावेशिता इसकी बुनियाद में है। यह इसमें तीर्थों, मंदिरों, इससे बाहर जाने वाले मज़दूरों या सिनेमा के कारण नहीं है, इनकाे वरीयता इसलिए मिली  कि यह समावेशी पर्यावरण पहले से तैयार था।
  
आंख से कोई आवाज नहीं निकलती  इसलिए हमने इसके प्रधान गुण चमक, प्रतिबिंबन  के स्रोत  जल की उपयुक्त ध्वनियों  कन् और ‘अक’ की तलाश की। ‘अक’ भारतीय भाषाओं में पानी के अर्थ में  प्रचलित नहीं रहा गया,  यद्यपि  अंग्रेजी < लातिन के aqua, में  सुरक्षित है।  संस्कृत में  और हिंदी क्षेत्र की बोलियों में प्रयुक्त  आकुल - (पानी के लिए) तड़पता हुआ,   छटपटाता हुआ,  अर्थात्  'व्यग्रता' इस बात का प्रमाण है कि कभी अक्  पानी के आशय में चलता था।  ‘अक’  विकास  एक और तो अक>अक्क>अख्ख> आँख में हुआ और दूसरी ओर,  कौरवी में  यह अक्ष/ अक्षि हो गया। एक तीसरी दिशा संकल्पनात्मक उत्कर्ष की थी जिसमें अंक बना और कमाल यह कि जल और आँख के दूसरे उत्कर्ष गण (कण> गण> गणित) के साथ जुड़ कर अंकगणित और ज्ञान-विज्ञान की आधारशिला बना।
 
सामान्यतः आंख के लिए जिस संज्ञा का प्रयोग होता है उसी का प्रयोग देखने की क्रिया के लिए भी हो, ऐसा कम देखने में आता है। संभवतः एकरसता से बचने की यह मानवीय प्रवृत्ति के कारण हो।  त. कण् - आँख, जब कि देखने के लिए ‘पार्’  (जो भो.हिं. में कान पारना - ध्यान से सुनना का जनक है, और भो. आँखि चियारल का ताऊ है;  हिं. का ‘आँखें फाड़ कर देखना’,  इनका भावानुवाद है), और नोडु> अं. note। हिं. आँख - देखना,  अं. आई eye - सी (see)/ लुक(look)/ व्यू (view)/ ऑब्जर्व (observe) आदि । सं. अक्षि - दर्शन/ ईक्षण/वीक्षण। 

भ्रम  वहां पैदा हो सकता है  जहां उच्चारण में इतना कम  अंतर हो कि लगे  यह ध्वनि-नियमों के कारण  उत्पन्न  विभेद हैं,  जैसे  अक्षि,  ईक्षण, वीक्षण के मामले में संभव है। 

क्रिया के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है  उनका  संबंध आंख के लिए संज्ञा रूप में अल्पप्रचलित प्रयोगों से होता है,  पर होता अवश्य है, जैसे दर्शन<दृष्टि <दृग<>दृक्। पर यहाँ भी उस पर्याय की संज्ञा जल की किसी ध्वनि  पर आधारित  मिलेगी, जैस जल के तर>तृ/दर>दृ (तर्प>(सं. तृप्) तर्पण, दर्प>(दृप्) दर्पण;  दृक् > द्राक् (तत्काल)> दृग> दृश)।

उच्चारण के मामले में  निकट पड़ने वाले दो शब्दों के लिए जरूरी नहीं कि वे एक ही मूल से निकले हों।   उदाहरण के लिए यदि अक्षि, अक् - जल से व्युत्पन्न है तो जरूरी नहीं  कि ईक्षण उसी के ध्वनि-परिवर्तन से पैदा हुआ हो।  परंपरावादी वैयाकरणों के पास यही समाधान सुलभ था,  परंतु ईक्षण - जल  और रस की जिस ध्वनि (संज्ञा) से निकला है वह इष- जल, रस है।  इससे इक्षु का संबंध बहुत गहरा है।  यह उसका रस निकालते (इषं दुहंता मनुजाय दस्रा) समय तेज धार से  उत्पन्न होने वाली सुनी ध्वनि का वाचिक अनुकरण है।   ऋग्वेद में इसका प्रयोग जल, सोमरस, अन्न और धन के आशयों में हुआ है: जैसे नदी में बाढ़ आती है उसी तरह अपने उपासक को अन्न से भर दो ( इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः); उषा हमे बैलों, अश्वों, रथों पर लदे माल,  सभी तरह की संपदा प्रदान करती है (इषं च नो दधती विश्ववारे गोमदश्वावद्रथवच्च राधः ।  अग्नि हमें  मैत्री के कारण हमें ऐसा धन दे जो वरणीयों में सर्वोपरि हो (अग्निर् इषं सख्ये ददातु न ईशे यो वार्याणाम् ।) गधों पर लाद कर ढोया जाने वाला माल-मता (इषं दधानो वहमानो अश्वैः)। आ विद्युता पवते धारया सुत इन्द्रं सोमो मादयन् दैव्यं जनं ।। 9.84.3

इस इष से ही इच्छा, एषणा, इष्टि (कामना, उत्पादन, यज्ञ),इक्षु, ईक्षण, वीक्षण, इस इष - बाहर निकलना  से इषु - बाण। इस काम्य और कामना (एषणा) और उसकी पूर्ति के प्रयत्न  - इष्ट, इष्टि और क्रिया रूप इष्यति, एषति,  हे देवो, हम सोम रस से आनंदित धन धान्य से समृद्ध हों, (इषा मदन्त इषयेम देवाः)।

इष का रस, जल, गति, इच्छा, स्वामित्व  आदि दिशाओं में अर्थविस्तार हुआ। अं. ईश्यू (issue- going out or flowing out, that which flows or passes out, question awaiting decision, act, deed,- निकलना, बाहर होना, संतान, विचार-विषय; विस्ट ( wist-to know), विस्टफुल  wistful - longing);  विज (wis- to know, believe>  वाइज wise); वीक्षण > व्यू (view - range or field of sight); विजन (vision- the act of seeing; faculty of sight [L. visio, visum- to see); विजिट ( visit L.visitare/ visere- to go to see; wise)  के अन्तःसंबंधों को, ज्ञात कारणों से, पूरी तरह पहचानने से बचा गया है।

गन्ने के दंड भाग से पत्ते  को अलग करते हुए उसके बीच से अक्ष या गर्त में सुरक्षित आँखे का आँख से सादृश्य अचूक होता है।   कन् - के घोषित होने के कारण जो तमिल में शब्द के बीच में आने पर हुआ करता है, यहाँ आदि में ही देखने में आता है।  इसी से ईख (इस> इष> इख> भो. ऊखि) का नाम गन्ना हुआ। यह संज्ञा आँखे की न हो कर उस जोड़ की हो गई जिसके एक दबे बिन्दु पर यह गन् या ग्रंद होता है। इसी से गाँठ, घुमावदार बंधन के लिए, वह रस्सी में हो, धागे में हो, पेड़ में या सूखे काठ में हो, यहाँ तक कि मन में हो, संज्ञा मिली है।  

हमारा गट्टा इस गँठ से निकला है, और जिस तरह का खेल हम ज्ञान की बनावट में देख आए हैं, कुछ वैसा ही (कन>क्न>ग्न> ज्न) जानु और, अंग्रेजी क्नी (( knee, नी) में देखा जा सकता है।  वैदिक में जानु का एक रूप ‘ज्ञु’ भी चला था और घुटना मोड़ कर बैठने के लिए ‘ज्ञुबाध’ (उप ज्ञुबाधो नमसा सदेम ।। 6.1.6; 'हम आपके समक्ष जानुपात पूर्वक नमस्कार करते हैं'), देखने में आता है, पर वह चला नहीं; जब कि ज्ञान, जो भी ज्ञु (अभिज्ञु) बना था,  और ज्ञ- (ऋतज्ञ) बन कर टिक गया। ध्यान दें तो ‘घुटना’,  घाँटी/घेंटी, गटई, कंठ, जानु( knee, L. genu, G. gony) कण्/ कन के ग्रंथ, ग्रंथि तक की यात्रा के ही विविध पड़ाव हैं, जब कि नीड ( knead) -कचरना. मांड़ना उसका भावविस्तार - संभवतः इसमें सं. कंडूयन - शरीर के एक ही स्थान को एंठ-घूम कर बार बार रगड़ने, खुजलाने, की छाया हो।      ,  

गन्ने की एक गाँठ से दूसरी गाँठ तक के पोर के लिए कांड का प्रयोग होता है। इसी तर्क से ईख गन्ना बन कर रह गई पर सरकंडा बाजी मार ले गया।  लंबी रचना के खंड के लिए कांड और खंड दोनों का प्रयोग होता है, अं. में इसे हम गाँठ के लिए क्नाट (नाट  knot- an interlacement of parts of a cord or cords( L. nodus))  और ग्रंथ के भाग के लिए कैंटो (Canto - a division of long poem, L. cantus to sing) लातिन मूल में इसे छन्द (chant) से अर्थभ्रम हुआ लगता है। मराठी सहित दक्षिण की भाषाओं में अनेक फारसी शब्दों में, जैसे राजीनामा, इस अर्थविचलन के नमूने मिलते हैं।  कांड में श्लेष है, एक ओर इसमें कन् के प्रकाश वाला भाव है (प्रकांड पंडित) जिसके कारण कुछ रचनाकारो ने प्रकाश और कुछ ने अधिक उत्साह से उल्लास नाम रखा है। दूसरा है विभाग।  महाभारत ने तो पर्व शब्द ही अपना लिया है। कांड के पीछे कण् है तो क्या पर्व के पीछे त. पार् (देख-) का हाथ है? कहना जल्दबाजी होगी पर हैरानी यह देख कर अवश्य होती है कि देखने के लिए तमिल का दूसरा शब्द नोड- अं. नोड, ला. नोदस  (node- knot, L. nodus). कण् यदि आँख, से गाँठ तक की यात्रा कर सकता है तो नोड नाड और नोड/ नोडस तक की यात्रा तो कर ही सकता है पर अपनी ज्ञान सीमा में हमें इस पर चुप रहना ही शोभा देता है।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )


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