Saturday 19 December 2020

शब्दवेध (41)थोड़ा लिखना बहुत समझना

हमारा विषय विस्तृत है। हम समस्त शब्दावली को लेकर विचार नहीं  कर सकते।  जिन पर विचार करते हैं उनके विषय में बहुत कुछ रह जाता है।  मैं जो कुछ कहता हूं उसके छूटे पक्षों पर किसी तरह की जिज्ञासा होने पर उसके समाधान का प्रयत्न कर सकता हूँ।

लोढ़/लोड़/रोड़ के विषय में तो हम यह स्पष्ट कर आए थे कि इनका उद्भव जल की धारा में टूटे और घिसे हुए  बटों  के आधार पर हुआ था और यह अन्य बातों के अलावा पत्थर,  गति, लुंठन, खंडन की भी संज्ञा बने थे। यहाँ कई दिशाएँ खुलती है। पहला यह कि औजार/हथियार बनाने के लिए खेती के आरंभ से बहुत पहले सभी जत्थों को जल धाराओं के उतार क्षेत्र से वटिकाश्म अपने क्षेत्र में लाने होते। परिवहन की विधि और साधन की समस्या भी उसी चरण पर उपस्थित हो गई थी। इसका समाधान भी उसी वटिका के साथ किए गए प्रयोगों से हुआ। पहिए के लिए जो शब्द पाए जाते हैं वे अलग अलग बोलियों के हैं जिनमें उसी क्रिया से उत्पन्न ध्वनि को अपनी ध्वनि-सीमा में नाम दिया गया था पर सभी ध्वनियों का अर्थ विकास लगभग समान दिशाओं में हुआ। रेढू/लेढ़ू का विकास करने वाले को जो ध्वनि रढ़/रड़/रळ/रल; रेढ़/रेड़/रेळ/रेल; रोढ़/रोड़/रोळ/रोल) में से किसी रूप में सुनाई दिया और आंचलिक संपर्क सूत्र जुड़ने के बाद दूसरों द्वारा इतर रूपों में  अपनाया गया, उनके प्रयोग के क्रम में किस किस तरह की नफासत चलती रही इसकी सही कल्पना हम नहीं कर सकते, पर हम पाते है भारत से लेकर भारोपीय प्रसार क्षेत्र में आज तक इनसे निकली शब्दावली का प्रयोग होता रहा है। रेढ़ू > rude, rode, rote, rotary, round, rod, road, load, rout,  rudder, roll,  rail, rally, reel, real, rut, route, rend, हि. रढ़, रेढ़, रीढ़, रेढ़ा, लढ़ा, लढ़िया,  रेला, लेंढ़ा, रोड़ा, रोटी,  लोढ़ा, लोड-चाह। कुछ हट कर है रेढ़ा का ठेला में बदल जाना और ठेलने का ठेघने में परिवर्तन। अं. रडर पानी के चप्पू के लिए प्रयोग में आता है यह कोई समस्या नहीं पैदा करता क्योंकि ऋ. में  रथ का प्रयोग नौवहन में हुआ है (समुद्रस्य आर्द्रस्य धन्वस्य पारे त्रिभी रथैः शत् पद्भिः षडश्वैः)। 

परन्तु यह एक संपर्कसूत्र से जुड़े भाषाई समुदाय का आविष्कार था। एक दूसरे ने उसे ही पह(पहु) /बह(बहु) >सं. वह  के रूप में सुना या बाद में ढाला, जिसके लिए वही बटिकाश्म पाहन था, गति पहुँचना/ बहुरना था, बहना/ बहाना था।  पत्थर पाहन था।  त. पो (सं. पवन- चलने वाता, पोत;  अं. plo, blow, flow, float, boat)  बना। इसका सं. रूप वह, वहन, वह्नि, वाहन बना और यूरोप  vehere-वहन, vehicle-वाहन, vein-वाहिका, नली, poem- धाराप्रवाह कथन।

एक तीसरे समुदाय को वही प्रवाही ध्वनि सर/चर, कर के रूप में सुनी गई, सरसर, चरचर, करकर नामों के बीच से एक का सर्वग्राह्य रूप सरकर/सक्कर सं. शर्करा निकला। शर्करा - बटिका, कंकड़। गोरखपुर में एक गाँव है सकरी - कंकरीली जगह।  गति के आशय में सर, चर, सरकना, शर्त, सरिता, चरण, चरति,  विभिन्न विभक्तियो के साथ -चार, चरित्र, चाल, चलन, चालू, (अं. शर्क shirk, चर char->चार्ज, chariot, character *कर> कार, car, cart,    आकार - वर्तुल  (सर्कल circle, साइकल cyle, साइक्लोन cyclone, सिकल sickle, शैकल shackle)।. चक्का, चाक,  चक्की, चाकर - दौड़-भाग करने वाला. सं. चक्र, चक्री।   परंतु चक्र के दो स्रोत हैं, एक का संबंध है पानी के नाद से, दूसरे का पत्थर तराशने, किसी नुकीली धार के खरोंचने आदि से उत्पन्न नाद किर/कर/चर  जिसका अर्थ है करना, बनाना, जो अधिक प्रयोग में आता है। अरायुक्त पहिया बनाना असाधारण काष्ठकौशल की अपेक्षा रखता है इसलिए यह मानने वाले लोगों को गलत सिद्ध करने का साहस नहीं कर सकता जो मानते है कि पहिए के आशय वाले चक्र की उत्पत्ति बनाने से है न कि चलने से।  तोड़ने के आशय मे शर्करा - शक्कर, खांड (खंडित), बूरा/रवा - चूर्ण, चीनी- बारीक इसी से प्रेरित हैं जिनका सीधे मिठास से कोई संबंध नहीं सभी में पत्थर के टूट कर रेत में बदलने का भाव ही है।
   
उन घिसे, टूटे गोलाकार पाषाण खंडों को जिस समुदाय ने वट >सं. वर्त-, सुनने और बोलने वाले समुदाय का चक्राकार संकल्पनाओं और गति - बाट, बटोही, सं. वर्त्म, वृत -मार्ग, चक्करदार (परिधि),  (अं. wherl, whore, whorl,  vert, vertex, vertigo, verve),  खडन - वर्तन, वंटन, बेंट/बेत - आघात करने वाला, सं. वेतस, (अ. बैट bat, बैटर batter,  बार्टर barter). परंतु यदि इसका कभी पहिए के लिए उपयोग हुआ भी रहा हो तो संकल्पनाओं के लिए इसके प्रयोग ने उसे बाहर कर दिया। 

हम अभी तक कल्पित धातुआं के माध्यम से, जिनकी पहुँच, बहुनिष्ठ अक्षरों और समान अर्थ पर ध्यान देने के कारण सीमित रही है, उस बहुअर्थी मूल तक नहीं पहुँच पाते रहे हैं इसलिए एक ही आशय वाली धातु से व्युत्पन्न शब्द में अनेक और अनेक बार विरोधी अर्थ देश कर भी यह समझने से कतराते रहे हैं कि हमारे तरीके में कोई गड़बड़ी है।  जैसे मनुष्य की सामाजिकता होती है वैसे ही शब्दों की भी सामूहिकता होती है और इसलिए तुलना के समय हमें उनके समूह की इतर समूह से तुलना अधिक लाभकर प्रतीत होती है।

हमने पिछली चर्चा में तार और कताई बुनाई के शब्दों की बात तो की पर विचार हम नामकरण की समस्या अर्थात् उत्पत्ति पर कर रहे हैं और यह दावा करने के बाद भी कि सामान्य संकल्पनाओं का नामकरण जल के किसी साम्य और नाद से जुड़ा है, उसे उदाहृत करने से रह गए। सू - जल, सवन, आसवन, सुत, सूत, सूत्र, स्यूत के बीच संबंध के विषय में किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। तार के विषय में संक्षेप में कुछ संकेत जरूरी हो सकते हैं।

बचपन में हम एक खेल खेला करते थे। टूटी हुई चूड़ियों के बीच में कपड़ा  लपेट कर उसे आग पर जला लेते  और फिर कुछ देर के बाद वह पिघलने लगता तो दोनों सिरों को बाहर खींचते तो शीशे का बहुत पतला तार  निकलता।  चासनी में आपने एक तार, दो तार की चासनी का नाम सुना  होगा। रस इतना गाढ़ा हो जाता है कि अब वह बूँद बूँद नहीं टपकता। उसकी एक धार सी बन जाती है। यह धार  या तार या सिलसिला (तार-तम्य) तर- पानी, से निकला है। तार एक तरह से धार का ही उच्चारभेद है। प्रकाश-रश्मि  एक तार है और रश्मि का संबंध रस से है। आकाश के नक्षत्रों का एक नाम है तारा और पानी के प्रवाह का नाम है धारा।  ऋग्वेद में रस्सी के लिए रश्मि का प्रयोग देखने में आता है और रास, रेशम रश्मि से ही निकले हैं।

तार टूटने न पाए,  चाहे वह धागे का हो, या संतान परंपरा या विचार परंपरा का- ऋग्वेद का कवि प्रार्थना करता है ‘ मा तन्तुः छेदि  वयतो धियं में’ । लगता है पहले धी का प्रयोग भी संतान (वंश के दीपक या धारक) के लिए भी होता था और इस पंक्ति में संतति के धागे के टूटने या परंपरा के भंग होने की चिंता प्रकट की गई है।  पुत्र के लिए धी शब्द का प्रयोग साहित्य में बाद में देखने में नहीं आता परंतु लड़की के मामले में आज भी  भोजपुरी (मगही, पंजाबी आदि) में धिया शब्द का प्रयोग चलता है। अटूट  वाला तार  केवल प्रकाश की रेखा में  और  जल की धारा में देखने में आता है।  रश्मि शब्द के पीछे रस का हाथ तो रहेगा ही क्योंकि प्रकाश में ध्वनि नहीं होती इसलिए उसे अपनी संज्ञा जल के रस  से प्राप्त करनी ही है, रसरी>रस्सी को अपना नाम जल से मिला इसे रस-जल> रसना - (1) रसेन्द्रिय, (2) रस्सी (रशनाभिर्नयन्ति - रस्सी से बाँध कर ले जाते है;  शीर्षण्या रसना रज्जुः  अस्य)। फारसी में दारो-रसन - फाँसी का तख्ता और रस्सी (का फंदा)।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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