Wednesday 30 December 2020

शब्दवेध (50) द्रवों के नाम

पय 
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पय जल के लिए प्रयुक्त प, पी, पू आदि में से पी का बदला रूप है। संधि में तो इ,उ के य, व में बदलने के नियम से हम परिचित हैं, परन्तु स्वतंत्र रूप में भी ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं, इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। इसमें संदेह नहीं कि ‘पय’ का अर्थ पानी था, जिसका क्रमशः दूध के लिए प्रयोग होने लगा। पशुपालन वैसे भी मनुष्य के जीवन में कृषि के बाद आरंभ हुआ (रेनफ्रू)।  ऋग्वेद में लगभग सौ बार पय शब्द आया है, पर दो तीन संदर्भों को छोड़ कर, जहाँ आशय जल से है -  1. द्यौर्न भूमिः पयसा पुपूतनि; 2. गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट्छुतुद्री पयसा जवेते -  सभी हवाले दूध के हैं । आज पय का प्रयोग केवल दूध के लिए होता है।

क्षीर 
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क्षीर जिस क्षरण की कड़ी से जुड़ा है उसका अर्थ प्रवाह होता है - 1.अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टाः, 2.   मधु क्षरन्ति सिन्धवः, नदियाँ मंद गति से प्रवाहित होती हैं।  प्रवाह जल और वायु का ही हो सकता था,(क्षरन्नापः न ‘जल की तरह प्रवाहित )  इसलिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि नीर की ही तरह क्षीर भी जल के लिए ही प्रयोग में आता था, परन्तु क्षीर का प्रयोग ऋग्वेद में केवल दो बार हुआ है और दोनों बार दूध के लिए ही हुआ है। एक पहेली में ऐसी गाय का हवाला  है जिसके सिर से दूध दुहा जाता है -शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य और दूसरी बार सरस्वती के माध्यम से होने वाले लाभ को दूध, घी, मधु और जल के दोहन - तस्मै सरस्वती दुहे क्षीर सर्पिर्मधूदकम् - के रूप में चित्रित किया गया है। क्षीर और खीर में तो नहीं, खीरा में अवश्य जल की छाया बची रह गई है। 

पुरीष 
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पुरीष का अर्थ जल था। ऋग्वेद में जल के आशय में ही इसका प्रयोग बार-बार देखने में आता है - ‘यया वणिग् वंकुः आपा पुरीषम्’ 5.45.6 में ‘पुरीषं पुरं उदकम्’ सा.; अन्यत्र ऋ.10.27.23 में भी यही अर्थ है।  सरयू  के विषय में  प्रार्थना की गई है कि वह रास्ते में बाधक न बने और सुजला के लिए पुरीषिणी विशेषण का प्रयोग हुआ है - मा वः परि ष्ठात् सरयुः पुरीषिणी, 5.53.9,  मरुतों को समुद्र से जल को लेकर वर्षा कराने का श्रेय देते हुए उनको ‘पुराषिन्’ कहा गया है- उदीरयथा मरुतः समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणः। कुल सात बार आए इन हवालों में एक बार भी जल से इतर कोई अर्थ नहीं किया गया है।  

पुरीष का अर्थ करते हुए सायण पुर का अर्थ जल बताते हुए भी इस बात पर ध्यान नहीं देते कि पुरीष ‘पुर’ और ‘इष’, जिनका पृथक् अर्थ जल है, के योग से बना शब्द है, क्योंकि यह पहलू भारतीय वैयाकरणों की चिंता-धारा में स्थान पा ही न सकता था। वे एक धातु से एकाधिकशब्दों की व्युत्पत्ति तो संभव मानते थे, पर न तो यह मान सकते थे कि एक ही आशय के दो शब्द मिल कर एक शब्द बन सकते हैं, न यह कि एक शब्द के निर्माण में दो धातुओं का योगदान हो सकता है।

जो भी हो सं. साहित्य से जल का पक्ष ही गायब है। आप्टे के संस्कृत अंग्रेजी कोश में इसका अर्थ निम्न प्रकार है: 1. feces, excrement, ordure, 2. rubbish, dirt. यह परिवर्तन कब घटित हुआ इसका पता नहीं चलता पर आज यह शब्द प्रयोगबाह्य हो गया है । शिक्षित जनों में जो इससे परिचित हैं वे केवल गन्दगी, विष्टा, और दुर्गन्ध वाले पक्ष से ही परिचित ,हैं और यह जान कर वे विचलित हो जाएँगे कि इसका शाब्दिक अर्थ जल है और  इसका प्रयोग पहले जल के लिए ही होता था।

गरल
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गरल का अर्थ  भो. की एक क्रिया से ही स्पष्ट हो सकता है। यह है ‘गारल’। ध्वनि में इससे निकट पड़ने वाला एक अकर्मक क्रिया रूप है ‘ओगरल’ जमीन से पानी का स्वतः ऊपर निकलना। कुएँ और पोखरे की खुदाई में पानी ऊपर आने लगता है उसे ओगरल (ओगरना - सं. उद्गिरण) कहते है. गारने में किसी सरस लता  को हल्के कुचल कर ऐंठ कर रस गारना या लता बाहर निकालना पड़ता है। कोल्हू, और उससे पहले ओखली के आविष्कार से पहले गन्ने का रस इसी तरह निकाला जाता था। उसे सिल (दृषद) पर रख कर पत्थर (उपल) से हल्के कूटा और फिर दोनों हाथों से, मुट्टी में लेकर, दसों उँगलियों से ऐंठ कर (एतं मृजन्ति मर्ज्यं पवमाना दश ) रस निकाला जाता था।

खुदाई में पानी का पतली धाराएँ फूटती हैं, उन्हें सोती कहते है। यह है किसी द्रव के बाहर निकलने - सवन - की क्रिया। सोती का सं.करण स्रोत के रूप में हुआ पर सोम  या गन्ने के रस के संदर्भ में सवन बाद में भी जारी रहा।  सवन की पुरानी रीत बदल गई,  गन्ने की गेड़ियाँ बना ओखली में कूट कर रस गारा जाने लगा, फिर ओखली का वह रूप आया जिसे कहा ओखली ही जाता रहा, पर इसने पत्थर के पुराने कोल्हू का रूप लिया, सोमपूजन के लिए जिसके  प्रतीकांकन को लिंगपूजा मान लिया गया जिसके विस्तार में कभी सोम रस पर लिखने का समय मिला तो ही जाना संभव होगा। यह एक उलझी हुई समस्या है। यहाँ इतना ही कि रस निकालने के लिए सवन (विश्वा इत् ता ते सवनेषु प्रवाच्या ) और सोतन (यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे ) ही चलता रहा और बाद में वाष्पन की युक्ति से रस चुआने के लिए आसवन का प्रयोग होता है, सव प्र-सव के लिए ही प्रचलित है। प्रसव क्रिया है और आसव संज्ञा। क्रिया बनाने के लिए इसमें -न जोड़ना होता है, पर सव>सुव मे उस प्रत्यय के बाद भी संज्ञा रूप सुवन ही बनता है। सवित रस को सुत कहते थे, प्रसूत को सुत।

इस शब्दक्रीड़ा में इसलिए उतरना पड़ा कि गारल, गिरल, गरल, बिगरल की क्रीड़ा को समझना आसान हो जाए  जिनमें गरल को छोड़ कर शेष सभी का ‘-ल’ को ‘-ना’ में और अंतिम मामले में ‘-र-’ का भी ‘-ड़-’ में बदल कर हिंदी में प्रयोग होता है।  

सामान्य जल के लिए गरल का प्रयोग सोम का तरह लाक्षणिक रूप में भले होता रहा हो, पर यह किसी वनस्पति से निकले रस के लिए ही प्रयोग में आ सकता था। यद्यपि मेरी जानकारी के वैदिक साहित्य में गारने और गिरने की क्रिया और गरल का पेय के रूप में प्रयोग नहीं मिलता।  केवल एक बार डुबाने (निगलने) के अर्थ में ‘गरन्’ (न मा गरन् नद्यो मातृतमा) का प्रयोग देखने में आता है, जो इससे असंबद्ध है। 

हम गरल के रस आशय से अपरिचित हैं। साहित्य में इसका केवल हलाहल या जानलेवा जहर के आशय में ही प्रयोग होता है और भो. में तो गरल और विष दोनों का प्रयोग नहीं होता, होता है ‘माहुर’ का। विष का बस्साइल, बिस्साइन - बदबू करना और बदबूदार के अर्थ में प्रयोग होता भी है, पर गरल के साथ वह भी नहीं। नदी नामों में गर्रा, गरगरा> घाघरा / घग्घर में जल का पुराना अर्थ बचा है और संभवतः गौर. गौरी, गोरा, के जनन में भी इसकी भूमिका हो।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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