Thursday 3 December 2020

शब्दवेध (30) स्वस्तिक

जब तक साँस तब तक आस।   हमारा सुख सौभाग्य, जीवन और मृत्यु या विनाश से जुड़ गया हमारी साँस का चलना या बंद हो जाना।  श्वास ही प्राण है, साँस का जाना  प्राण चला जाना,  इक्सपायर (expire) प्राणान्त।  यह इंस्पायर (inspire)- प्राण भरना, प्रोत्साहित करना, का विलोम है । 

भो. में एक शब्द है सांसति जिसके लिए हिं. में ‘नाकों दम होना/करना’ प्रयोग में आता है पर सांसति में कष्ट का भाव प्रधान है जब कि नाकों दम में आजिजी का। सांसति का संबंध साँस से (साँस निकलने निकलने को होना) है, इस ओर पहले ध्यान नहीं गया था। 

 स्वस्ति इसके ठीक विपरीत कुशल और कल्याण का द्योतक है, और इसकी कामना प्रस्थान करने वाले के लिए निरापद मार्ग - पंथा स्वस्ति - से और इसके लिए सभी देवों की अनुकंपा और मार्ग में पड़ने वाले सभी तत्वों के कल्याणकारी होने का कामना से आरंभ हुआ। 

स्वस्तिक के साथ शुभ-लाभ लिखा इसलिए मिलता है कि अज्ञात या अल्पज्ञात क्षेत्रों की ये यात्राएँ व्यापारिक गतिविधियों के चलते होती थीं। स्वस्तिक का चिन्ह पहिए का प्रतीकांकन है जिसमें पहले सीधी रेखा में मुड़ी रेखा किंचित् वर्तुल होती थी न कि बाहर की ओर तनी हुई। हड़प्पा सभ्यता के संदर्भ में पिराक, मोहेंजोदड़ो, हड़प्पा, कोटदीजी से मिले स्वस्तिकों में विशेषतः कोटदीजी से प्राप्त मुद्राएँ (जोनाथन मार्क केनोयर, इंडस सील्स, ऐंश्येंट सिंध, ऐनुअल जर्नल ऑफ रिसर्च, खंड 9, 2006-7, 7-30) इस विकास रेखा को समझने में सहायक हो सकती हैं, यद्यपि यह दावा हमारा है, केनोयर का नहीं। वह भारत पर ‘आक्रमण’ करने वालों के साथ पहिए के हिमायती हो सकते हैं, यद्यपि इस विषय पर वह कूटनीतिक दूरी  बना कर  बात करते हैं।

स्वस्ति की व्याख्या संस्कृतज्ञ सु-अस्ति के रूप में करेंगे जो अर्थ के अनुकूल ही है, पर वे श्वसन की ध्वनि की उपेक्षा करके सु-असन करने से पहले रुक कर सोचेंगे ।  श्वसन साँस (सस/संस) का संस्कृतीकरण है जिसके तीन रूप   हो जाते हैं, 1. शंस (शंसा, प्रशंसा, प्रशस्ति), 3. शस् -काटना, मारना,  (शसति - वध करता है, काटता है;  विस्तृत करता है  -प्रशस्त), शसन - घायल करना, आहत करना और 3. श्वसन,  श्वास,  विश्वास।  शस् के खंडित करने, विच्छिन्न करना से एक ओर शस्त्र निकलता है तो दूसरी ओर शास्त्र।  और यह अलग से याद दिलाने की जरूरत नहीं कि शास्ता भी इसी से निकला है।

मैं जिस पद्धति से भाषा के स्वभाव को समझना चाहता हूँ वह परंपरागत व्युत्पत्ति से अलग है, उसके कोशों में दिए गए अर्थ को अकाट्य मानता हूँ, क्योंकि ये अर्थ उन्हें लोक-व्यवहार से मिले हैं इसलिए उन्होंने वहाँ भी उसकी रक्षा की है,  जहाँ उनके द्वारा अपनाई गई पद्धति से उनका अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता या अर्थ का अनर्थ (पूत- 1. पवित्र, 2, सड़ा हुआ)   हो जाता है। 

विद्वान इसकी अनदेखी कर जाते हैं जब कि नियम में अपवाद के लिए स्थान नहीं।  गुरुत्व का नियम है तो वह सभी पर समान रूप से लागू होगा।  यदि विकल्प का विधान है तो वह नियम नहीं हुआ, प्रवृत्ति हुई जो कुछ दूर तक साथ देगा और फिर बेकार हो जाएगा।  अनर्थ प्रवृत्ति को नियम मान बैठने और उसी से संतोष कर लेने के कारण होता है।  अपवाद इस बात का प्रमाण है कि नियम की तलाश नही हो सकी है।  इसलिए कोशगत  अर्थ का सम्मान करते हुए हम उनकी व्युत्पत्ति को लंगड़ा और वास्तविकता से दूर पाते हुए वैयाकरणों द्वारा पूरे तामझाम - एक आद्यभाषा, उसके विघटन या उसमें कालक्रम में आए विकारों से शाखाओं, प्रशाखाओं से एक विशद भाषा-परिवार के सिद्धान्त, मूलभाषा की धातुमाला और उससे पैदा हुए शब्द और  अर्थ -  को खारिज करके, विकास के सिद्धांत के अनुरूप और वैदिक भाषाविमर्श के भी अनुरूप पाकर हम इतने विश्वास से वाचिक अनुकार के अनुसार अपनी व्याख्या करते हैं कि श्रुतिलब्ध नाद का वाचिक प्रतिनाद ही भाषा है। कहें, हम पहली बार भाषा के उस नियम के अनुसार व्याख्या का भरोसा रख कर यह विवेचन कर रहे हैं।   इसे दुहराने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि लातिन या गाथिक या केल्टिक मूल से सजात शब्दों की या कल्पित पीआइई प्रतिरूपों को भी जहाँ गलत पाते हैं वहाँ उसे नकारने का दुस्साहस करते हैं और इसलिए हमारे प्रस्तावों को इनकी अंतःसंगित के आधार पर परखने का प्रयत्न करें। 

सामान्य विश्राम या निद्रा के समय को छोड़ दें तो सक्रियता और श्रम के अनुरूप हमारे साँस की गति और ध्वनि में भी अंतर आता है और इसी तरह हमारे नासारंध्रों की बनावट, उनकी अवरुद्धता आदि के अनुरूप ध्वनि में अंतर आता है जिनके सभी प्रभेदों को लक्ष्य तक नहीं किया जा सकता और जिनको लक्ष्य करके उनके अनुवाचन किए गए हैं उनके कारण, उनकी अपनी भाषा की ध्वनि सीमा के कारण अनुवाचन होने के बाद भी उनमें पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है फिर भी यह पहचान बनी रहती है कि यह नासिका से उत्पन्न ध्वनि का अनुवाचन है और यही बिना किसी व्याख्या के इसकी लोकप्रियता और अर्थसंचार में सहायक होता है। जिसे एक बोली में ससन (>श्वसन) कहा जाता है उसे दूसरी में ब्रीदिंग, एक में सन/सुन कहा जाता है वहाँ द्सरी में साउंड और सोनम् । इनके स्रोत और इसलिए भाव आसानी से पहचान में आ जाते हैं और अंतिम सुन>सोनम् किसी एक से दूसरे में प्रवेश का सूचक भी। 

हम यह पाते हैं कि श्वसन के लिए समान सजात शब्द शृंखला में संस/ संस अधिक पुराना है इसका आधार यह नहीं कि बोलियों से लेकर हिंदी तक में साँस प्रचलित है, बल्कि संस्कृत में भी हिंसक आशय के दोनों शस और शंस में भी यही रूप बना रह गया है। केवल साँस लेने के मामले में इसका रूप श्वसन हो गया। परंतु अंग्रेजी में भी श्वसन में हृदयाघात की स्थिति में श्वासरोध पैदा होने पर इसे तत्काल कुछ उपायों से जारी करने के लिए अं. में रि-ससि-टेट (resuscitate) में भी यह झलकता है। सस्पायर - आह भरना, साँस लेना (Suspire [L. suspirare]- to sigh, to breath).  सस का लातिन में सामान्यतः ,सब्स subs> sub अवर-, अध- सूचक उपसर्ग माना गया है, पर  sublime- aloft, lifted on high, suscitate - to exite, to rouse पर अर्थ बदल जाता है, रिससिटेट में सस प्राणवायु का पुनः संचार अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। 

भोजपुरी में विशेषतः महिलाओं की भाषा में एक प्रयोग चलता है संसि देना या न देना।  यह प्रयोग बहुत रोचक है, सामग्री वही है और यदि वह अपेक्षा से कम उतरती  है तो संसि नहीं देती और उससे अधिक की पूर्ति करती है तो संसि देती है। यहाँ संसि - जीवट, बृद्धि, का सूचक है।  संस का अंग्रेजी के सेंस (sense- faculty of receiving sensation, inward feeling> - सेंसेट( sensate) , सेंसेशन sensation, सेंसिबल sensible, सेन्सर ( sensor) आदि से संबंध लक्ष्य किया जा सकता है, अंतर केवल प्राणन का संवेदन और संज्ञान की दिशा में अर्थविस्तार का लगता है।  सुन - (तु. श्वन - श्वान> शून- कुत्ता), अंग्रेजी के सोन- और इससे जुड़ी शब्दावली - सोनोरस, सोनेंट, सोनेट (गीत), सोनोग्राफी आदि । सुनना ऐसी दशा में श्रवण का तद्भव नहीं उससे पुराना श्ब्द सिद्ध होता है।

साँस लेना/पाना  - अब जाकर तनिक साँस मिली है, ब्रीदिग ( breathing space),  साँस फूलना,  साँस चढ़ना, साँस लेने की फुरसत न होना, नीचे की साँस नीचे ऊपर की साँस ऊपर रह जाना जैसे मुहावरे बोलियों में ही चलते हैं।  इन्हें संस्कृत में स्थान नहीं मिला। हिंदी तक अपने प्रसार क्षेत्र  के मुहावरों और लोकोक्तियों को अपनाने में संकोच करती और संस्कृतापेक्षी बनी रहती है जिसका एस कारण यह भी हो सकता है कि कौरवी ही संस्कृत की जन्मभूमि रही है।
साँस और श्वास में कितनी दूरी है?
उतनी ही जितनी पूरबी और कौरवी में, जिसकी प्रकृति पू
श्वास और नि-श्वास  में,  नि-श्वास  और उत्-श्वास  (उछ्वास > उसाँस)/ प्र-श्वास में, श्वास और वि-श्वास में,  श्वास और *आ-श्वास> आ-श्वास-न में,  कितनी दूरी है? 
उतनी ही जितनी प्राकृत भाषा और  कृत्रिम भाषा में।  कृत्रिम जीवन के साथ  हमारी नैसर्गिक  क्षमताएँ घटती  जाती हैं,   और जो सहज था  वह लंबी शिक्षा के बाद भी उतना स्वाभाविक नहीं रह जाता जितना कृत्रिमता अभाव में। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मनुष्य की तैरने की निसर्गजात क्षमता (इंस्टिंक्ट) का लोप और उसे अर्जित करने के लिए अपेक्षित अभ्यास है।  हम यह तक भूल जाते हैं कि किसी प्राचीन चरण पर यह क्षमता हममें विद्यमान थी।  ऊपर के शब्दों का प्रयोग करते समय हममें से कितनों को याद रहता है कि ये शब्द हमारे साँस लेने से उत्पन्न ध्वनि के अनुवाचन (वाणी से उसके उच्चार  का ) है । 

एक और अंतर आता है। अपने (उपसर्जित) उपसर्गों की सहायता से वाले, स्व-नियंत्रित शब्दों को वह किसी आशय से जोड़ सकता है। शब्द और अर्थ की वह अभेद्यता समाप्त हो जाती हो जिसे कालिदास ने वागर्थाविव संपृक्तौ या तुलसी ने गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न कहा है। यही वह कारण है जिससे उपसर्जित शब्दों में अप्रत्याशित या अनियमित अर्थ का आरोपण हो जाता है जिसे   “उपर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते” में सूत्रबद्ध किया गया है।  ध्यान रहे कि ऐसा प्रत्ययों के साथ नहीं होता क्योंकि प्रत्यय का प्रयोग नैसर्गिक भाषा से आया हुआ है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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