Monday 25 November 2019

महाराष्ट्र - लोकतंत्र और नैतिकता का एक त्रासद प्रहसन / विजय शंकर सिंह

25 नवंबर की सवसे बड़ी खबर यह है कि, अजित पवार के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उनके खिलाफ चल रही सिंचाई घोटाले की सारी जांचें बंद हो गयी हैं। अजीत पवार अब पवित्र बन चुके हैं। भाजपा के दावे, भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस से भाजपा की असलियत, भ्रष्टाचार के खिलाफ निल जांच तक के इस सफर पर जिसे हैरानी हो तो हो मुझे नहीं है। यही तो सौदेबाजी का मूल विंदु है। कथनी और करनी, नैतिकता और पाखंड, की स्प्लिट पर्सनालिटी से युक्त भाजपा का यह वास्तविक, चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन है।  2014 से लगातार देवेंद्र फडणवीस यह कह रहे हैं कि हजारों करोड़ के सिंचाई घोटाले में अजित पवार लिप्त हैं और वे जेल भेजे जाएंगे। चक्की पीसिंग पीसिंग एंड पीसिंग, वाला उनका एक पुराना वीडियो अब भी सोशल मीडिया पर खूब देखा और साझा किया जा रहा है। 25 नवंबर को मुख्यमंत्री फडणवीस ने मंत्रालय में पहुंच कर, शायद सबसे पहले इसी फाइल पर दस्तखत किया जो अजित पवार के सिंचाई घोटाले से सम्बंधित है। इसे सरकार की पहली उपलब्धि माना जाना चाहिये। आइए अब इस नैतिक गठबंधन की सरकार के पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र संकट पर कल 25 नवंबर को दोनों पक्षो को सुनने के बाद अपना फैसला, आज 26 नवम्बर को सुबह 10.30 पर सुनाएगा। महाराष्ट्र विधानसभा में किसी को पूर्ण बहुमत न मिलने के कारण 12 नवम्बर को राष्ट्रपति शासन लगा था, और फिर 23 नवंबर को अचानक सुबह राष्ट्रपति शासन समाप्त हुआ और भाजपा और एनसीपी के देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार ने क्रमशः मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। फिर बहुमत, राज्यपाल के सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने के निर्णय, राष्ट्रपति शासन के समाप्ति आदि आदि पर विवाद हुआ और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में एनसीपी, शिवसेना द्वारा ले जाया गया जहां आज सुप्रीम कोर्ट ने सुनवायी पूरी कर ली है और निर्णय सुरक्षित रख लिया है। आज का विमर्श इसी विंदु पर है। 
12 नवंबर को महाराष्ट्र में राज्यपाल की अनुशंसा पर केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रपति से राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की और राष्ट्रपति ने सलाह मांग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया और अचानक संविधान के अनुच्छेद 356 पर पुनः बहस शुरू हो गयी। अनु 356 के साथ यह पहला विवाद नहीं जुड़ा है, और न अंतिम है,  बल्कि यह केरल की पहली निर्वाचित वामपंथी सरकार के बर्खास्तगी से शुरू हो कर अब महाराष्ट्र तक का यह सफर है और जैसे अभी वक़्त का सफर जारी है, यह विवाद भी उसी के हमकदम आगे भी रहेगा। राजनीति संभावनाओं का खेल है। 

महाराष्ट्र विधानसभा 2019 का आम चुनाव भाजपा और शिवसेना ने एक साथ मिलकर लड़ा था, और जब दोनों को मिला कर बहुमत का आंकड़ा पार हो गया तो, यह उम्मीद सभी को थी कि यह देवेंद्र फडणवीस सरकार का दूसरा कार्यकाल होगा। पर शिवसेना ने खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया और यह कहा कि उनके और भाजपा के बीच ढाई ढाई साल तक के मुख्यमंत्री बनने का एक गोपनीय समझौता हुआ था जिसके अनुसार उन्हें पहले ढाई साल के लिये यह पद मिलने का फार्मूला दोनों मित्र दलों की बैठक में तय हुआ था । भाजपा ने इस मांग को ठुकरा दिया और यह भी कहा कि ढाई ढाई साल के मुख्यमंत्री होने का कोई वादा उभय दलों के बीच हुआ ही नहीं था। यह उल्लेखनीय है कि भाजपा और शिवसेना दोनो ही एक दूसरे के साथ लगभग न केवल 25 सालों से हैं बल्कि दोनो के बीच वैचारिक समानता भी है। 

भाजपा और शिवसेना दोनों ही आपस मे मिलकर जब सरकार नहीं बना सके तो, राज्यपाल ने पहले भाजपा को और फिर शिवसेना को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया। भाजपा को इस कार्य हेतु अड़तालीस घँटे और शिवसेना को चौबीस घँटे का समय दिया गया । शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस ने आपस मे मिल कर सरकार बनाने की बात सोची तब तक राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी और 12 नवंबर को राष्ट्रपति शासन राज्य में लगा दिया गया। यह राष्ट्रपति शासन 23 नवंबर तक लगा रहा और फिर एक नाटकीय घटनाक्रम में अचानक सुबह इसे समाप्त करके भाजपा और एनसीपी की सरकार को राज्यपाल ने शपथ दिला दी। यही मामला, सुप्रीम कोर्ट में है जहां 26 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना है। 

महाराष्ट्र संकट से कुछ अहम संवैधानिक मुद्दे भी उठ खड़े हुये हैं। यह मुद्दे अनुच्छेद 356 के प्रयोग और कैबिनेट तथा प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार जो उसे बिजनेस रूल्स 1961 के नियम 12 के अंतर्गत प्राप्त हैं, से सम्बंधित है। महाराष्ट्र विधानसभा में किसे बहुमत है, किसे बहुमत नहीं है, कौन किसे खरीद बेच रहा है यह सब पहली बार देश के संसदीय लोकतंत्र में नहीं हो रहा है बल्कि यह पहले भी हो चुका है और आगे भी होता रहेगा। सत्ता राजनीति का मुख्य कारक भाव है। लेकिन 23 नवंबर की सुबह जिस प्रकार आनन फानन में राज्य से राष्ट्रपति शासन के समाप्ति की सिफारिश, प्रधानमंत्री ने बिना कैबिनेट की बैठक के राष्ट्रपति को भेजी है वह एक अप्रत्याशित कदम था। उसकी वैधानिकता की चर्चा और पड़ताल ज़रूरी है। 

भारत सरकार ने, 23 नवम्बर 2019 को महाराष्ट्र में लगे राष्ट्रपति शासन को समाप्त करने के लिये, बिना कैबिनेट, यानी मंत्री परिषद की राय लिये राष्ट्रपति से जो अनुशंसा की वह प्रधानमंत्री को कार्य आवंटन नियमावली 1961के नियम 12 के अंतर्गत किया गया था। संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति को असीम शक्तियां हैं पर वह अपनी मनमर्जी से इन अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकते है। वह भारत के कैबिनेट की सलाह पर ही अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकते है। 

महाराष्ट्र में कैबिनेट की अनुशंसा पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। और कैबिनेट की अनुशंसा, महाराष्ट्र के राज्यपाल की रिपोर्ट पर आधारित थी। संविधान के अनुच्छेद 356 में केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार है। यह अधिकार राज्य में जब किसी भी दल की सरकार नहीं बन पा रही हो और राज्यपाल को यह समाधान हो गया हो कि अब राज्य में लोकप्रिय सरकार का गठन संभव नहीं है तो राज्यपाल अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजते हैं और फिर उस रिपोर्ट के आधार पर केंद्रीय कैबिनेट राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करती है। तब राज्य की सारी प्रशासनिक मशीनरी राज्यपाल के सीधे अधीन हो जाती है और राज्य से सम्बंधित वित्तीय और विधायी कार्य संसद द्वारा निपटाए जाते हैं। 

पर यह स्थिति एक असामान्य परिस्थितियों के लिये प्राविधितित की गयी है। इसीलिए इस पर अनेक नियंत्रण या चेक और बैलेंस  भी रखे गए हैं। छह महीने से अधिक समय के लिये राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति संसद से लेना आवश्यक है। राष्ट्रपति शासन कभी भी तीन साल से अधिक समय तक के लिये नहीं लगाया जा सकता है। इसका कारण यह है कि संविधान निर्माता इस विंदु पर सजग थे कि संसदीय लोकतंत्र जो हमारे संविधान का मूल आधार है वह हर दशा में बरकरार रहे। संविधान के किसी प्राविधान की आड़ लेकर किसी भी प्रकार की अधिनायकवादी शासन व्यवस्था को थोपा न जा सके। 

संसदीय लोकतंत्र में जनता की सारी शक्तियां संसद और शासन के तीन अंगों में से एक कार्यपालिका के रूप में मंत्रिमंडल में निहित होती हैं। मंत्रिमंडल में जो कैबिनेट मंत्री होते हैं वे ही मिलकर कैबिनेट या मंत्री परिषद का गठन करते हैं। यही मंत्रिपरिषद सबसे बडी एक्जीक्यूटिव होती है और कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ उसी में निहित होती हैं। प्रधानमंत्री की स्थिति संविधान के अनुसार फर्स्ट अमंग इक्वल्स यानी सभी समान किन्तु प्रथम की होती है। राष्ट्रपति को सलाह देने का काम और अधिकार इसी कैबिनेट का है। 

कैबिनेट या कार्यपालिका को अपना दायित्व निपटाने के लिये बिजनेस नियमावलियां बनी हैं जिनके अंतर्गत सबको अपना अपना काम करने के लिये विभिन्न अधिकार दिए हैं। ऐसा ही एक अधिकार बिजनेस रूल्स 1961 के अंतर्गत नियम 12 में है। सामान्य नियमों के अनुसार, राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने और उसे समाप्त करने के लिये राज्यपाल की रिपोर्ट कैबिनेट के समक्ष प्रस्तुत होती है और कैबिनेट उस पर विचार कर के राष्ट्रपति को तदनुसार अपनी सलाह देती है। 

लेकिन महाराष्ट्र में संविधान के प्राविधानों और बिजनेस रूल्स का जमकर दुरुपयोग किया गया और कानूनी प्राविधानों की आड़ में जबर्दस्ती की गयी। 12 नवंबर 2019 को प्रधानमंत्री ने ब्रिक्स सम्मेलन में ब्राजील जाने के पहले कैबिनेट की मीटिंग बुला कर महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी। राष्ट्रपति ने कैबिनेट की सलाह पर राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा कर दी। यह कृत्य ऊपर से देखने पर ज़रा भी असंवैधानिक नहीं लगता है क्योंकि जब राज्यपाल की रिपोर्ट ही यह कह रही है कि राज्य में लोकप्रिय सरकार की संभावना नहीं है तो अनुच्छेद 356 के अतिरिक्त और कोई विकल्प ही नहीं बचता है। लेकिन, लोकप्रिय सरकार के अनुसंधान में राज्यपाल द्वारा पर्याप्त समय न दिये जाने और जल्दबाजी में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा पर सवाल उठाये जा सकते हैं और सवाल उठे भी।

लेकिन 23 नवंबर को सुबह सुबह जब राष्ट्रपति को राष्ट्रपति शासन समाप्त कर के लोकप्रिय सरकार के गठन हेतु मार्ग प्रशस्त करने की सलाह दी गयी तो यह सलाह केंद्रीय मंत्रिपरिषद या कैबिनेट ने नहीं, बल्कि यह सलाह दी थी प्रधानमंत्री ने। क्योंकि उतनी सुबह, कैबिनेट की मीटिंग बुलाई तो जा सकती थी, पर बुलाई नहीं गयी। हाथी के पांव में सबका पांव और कैबिनेट मतलब बस प्रधानमंत्री, समझते हुए खुद को, प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्रपति को राज्य में राष्ट्रपति शासन खत्म करने की सलाह दे दी। और यह सलाह मान भी ली गयी, तथा राष्ट्रपति शासन समाप्त भी कर दिया गया। 

अगर नियमो और प्राविधानों की बात करें तो, प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति को दी गयी यह सलाह भी नियमानुकूल ही है। यह सलाह बिजनेस रूल्स के नियम 12 के अंतर्गत दी गयी है। नियम 12 के अनुसार, 
" किसी मामले में अति गंभीर स्थिति, या अप्रत्याशित आकस्मिकता की स्थिति में, भारत सरकार ( कार्य आवंटन बिजनेस रूल्स ) नियम 12 के अंतर्गत, प्रधानमंत्री को समस्त कार्य नियमों से अलग हट कर, निर्णय लेने की छूट उस हद तक देता है, जिस हद तक कि छूट ज़रूरी हो। " 
लेकिन यह नियम भी सरकार को कोई अपार शक्ति या अनियंत्रित छूट नहीं देता है बल्कि जो अत्यंत आकस्मिक मामले हैं, जिन्हें देशहित में टाला जाना संभव नहीं है और जिनपर कैबिनेट की बैठक बुलाना समयाभाव या किसी अन्य कारण से तत्काल संभव नहीं है, उन मामलो में अपवादस्वरूप नियम 12 का प्रयोग किया जाता है। लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण मामलो को भी कैबिनेट सचिव द्वारा परीक्षण करने के बाद ही प्रधानमंत्री के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का प्राविधान है। 

अपवाद तो अपवाद होते हैं। वे नियम नहीं बन सकते हैं। नियम 12 का प्रयोग कैसे और किन परिस्थितियों में किया जाएगा, इसका भी उल्लेख उसी नियम में है। नियम 12 के अंतर्गत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करने के लिये निम्न दिशानिर्देश दिए गये हैं। 
● उपयुक्त प्रस्ताव, संबंधित प्रशासनिक मंत्रालय या विभाग द्वारा, पेश किया जाना चाहिए, जिससे उस विषय का संबंध है। 
● मंत्रालय या विभाग द्वारा नियम 12 के अंतर्गत निर्णय लेने के लिये जो प्रस्ताव प्रधानमंत्री के पास भेजा जाना चाहिए, उसमे उस आपात स्थिति का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि क्यों और किन परिस्थितियों में कैबिनेट की सहमति के बिना प्रधानमंत्री द्वारा नियम 12 में निर्णय लिया जाना जरूरी है। 
यह भी उल्लेख किया जाएगा कि सामान्य नियमो का अनुपालन क्यों नहीं किया जा पा रहा है। 
● संबंधित विभाग या मंत्रालय के सचिव यह सुनिश्चित करेंगे कि अंतर मंत्रालयी परामर्श सहित सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गयीं हैं। 
● विभाग या मंत्रालय के प्रस्ताव को सम्बंधित मंत्री से अनुमोदन लेकर ही इसे कैबिनेट सचिव के पास भेजा जाना चाहिए। 
अगर प्रकरण वित्त से संबंधित है तो वित्त विभाग का अनुमोदन आवश्यक है, या किसी अन्य विभाग से संबंधित हो तो उस विभाग से भी राय ली जानी चाहिए। 
● यदि वह मंत्रालय या विभाग प्रधानमंत्री के ही पास है तो उस मंत्रालय के सचिव द्वारा परीक्षण किये जाने के बाद ही कैबिनेट सचिव के पास प्रकरण भेजा जाना चाहिए। 

1961 में बने इस प्राविधान का मूल उद्देश्य था कि अगर कोई ऐसी आकस्मिकता आ पड़ी और कैबिनेट की बैठक बुलाया जाना किन्ही कारणों से संभव नहीं है तो प्रधानमंत्री उक्त नियम 12 के अंतर्गत निर्णय ले सकते हैं। लेकिन क्या महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन को समाप्त करना इतना महत्वपूर्ण और अपवादस्वरूप आकस्मिक प्रकरण था कि प्रधानमंत्री को इस असाधारण प्राविधान का प्रयोग करना पड़ा ? महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बने यह भाजपा के लिये तो राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण विषय हो सकता है पर मेरी समझ से यह प्रकरण देश के लिये इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि बिजनेस रूल्स 1961 के नियम 12 का उपयोग किया जाय। आज के संचार सुलभ युग मे जब संसद की कार्यवाही चल रही है तो सभी कैबिनेट मंत्री दिल्ली में ही होंगे और उन्हें दो घँटे के अंतराल पर बुलाया जा सकता था। पर ऐसा नहीं कर के न केवल बिजनेस रूल्स के प्राविधान का दुरुपयोग किया गया बल्कि राष्ट्रपति को भी ऐसे प्रकरण के विवाद का एक अंग बना दिया गया, जिनका इस मामले में प्रत्यक्षतः कुछ लेना देना नहीं था।

महाराष्ट्र में चले इस राजनैतिक तमााशे में राज्यपाल की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे। यह सवाल शिवसेना को सरकार बनाने के लिये पर्याप्त समय न देने और जब 22 नवंबर जो शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने मिल कर सरकार बनाने की बात तय कर लिया था तो अचानक 23 नवंबर को सुबह सुबह, राष्ट्रपति शासन की समाप्ति और आनन फानन में भाजपा के देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला देने के संबंध में, पूछा जा रहा है । यह भी सवाल उठ रहे हैं कि आखिर राज्यपाल ने एनसीपी के किन विधायकों की समर्थन की चिट्ठी प्राप्त की और अगर उनके पास देवेंद्र फडणवीस सरकार बनाने के लिए आए भी तो उन्होंने सुबह तक का इंतज़ार क्यों नहीं किया ? विरोधी दल, राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी पर भाजपा के हित के लिए काम करने का आरोप लगा रहे है। इन परिस्थितियों को देखते हुये, यह सारे सवाल स्वाभाविक रूप से उठते हैं। ऐसा भी नहीं है कि राज्यपालों की भूमिका पर पहले कभी सवाल नहीं उठे हैं। पहले भी उनके निर्णयों पर सवाल उठते रहे हैं और उनके निर्णयों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी जाती रही है। अतः यह कोई पहली बार का मामला नहीं है। 

हमे यह नहीं भूलना चाहिये कि राज्यपाल भले ही संवैधानिक पद हो और हम उस पद पर आसीन व्यक्ति से भले ही यह अपेक्षा करते हों कि वह संविधान का अक्षरशः पालन करेगा, लेकिन मूलरूप से राज्यपाल सत्तारूढ़ दल का ही व्यक्ति होता है और मानसिक और दलगत रूप से सरकार जिसने उसे नियुक्त किया है के प्रति भी निष्ठावान रहता है। वह संविधान की खुली अवहेलना भले ही न करे पर कहीं न कहीं उसका नरम रुख अपने भूतपूर्व दल की ओर रहता ही है। राज्यपाल अपने पद की शपथ में, लोगों के हित में फ़ैसले लेने की बात करते हैं लेकिन हक़ीक़त ऐसी नहीं रहती है। असल में व्यवहारतः राज्यपाल का पद प्रधानमंत्री या केंद्रीय सरकार की इच्छा पर ही निर्भर रहता है। सरकारें ही राज्यपालों की नियुक्तियां देखती हैं, इसलिए उनका भी स्वाभाविक झुकाव सरकारों के पक्ष में रहता  हैं। यह परंपरा इंदिरा गांधी के समय से शुरू हुयी और अब नरेंद्र मोदी तक चल रही है.। 

महाराष्ट्र में जिस तरह से राजनीतिक हालात लगातार बदल रहे हैं. उसमें एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने एक बार फिर दावा किया कि उनके अधिकतर विधायक उन्हीं के साथ बने हुए हैं। ऐसे में बीजेपी की सरकार ने जो बहुमत साबित करने की बात कही है उस पर सवाल उठने लगे हैं। यह बातें निश्चित तौर पर राज्यपाल के निर्णय पर सवाल उठाने का आधार देती है। राज्यपाल को देवेंद्र फणनवीस से यह कहना चाहिए था कि सरकार बनाने के लिए जो विधायक उनके साथ हैं उनके सिर्फ हस्ताक्षर ही नहीं चाहिए वो खुद भी राजभवन में मौजूद होने चाहिए। 

अब यह सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट, क्या महाराष्ट्र में भी शीघ्रता से सदन में बहुमत साबित करने का कोई आदेश 26 नवंबर को देगा, या कोई और फैसला सुनाएगा ? अगर इस प्रश्न का उत्तर, हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसी प्रकार के कुछ पुराने मामलों में दिए गए फैसलों में ढूंढ़ें तो ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सदैव ही, शीघ्रता से बहुमत सदन में ही  साबित करने का आदेश दिया है। यह शीघ्रता इसलिए भी रही है कि, विधायकों की खरीद फरोख्त न हो सके। एक अत्यंत प्रसिद्ध मामले में, जिसे एसआर बोम्मई केस कहा जाता है और जो ऐसे मामलों में एक महत्वपूर्ण नजीर के रूप में उद्धृत किया जाता है में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1994 में फ्लोर टेस्ट की अवधारणा पेश की थी। अदालत का कहना है कि सदन ही वह उपयुक्त और अंतिम स्थल है जहां किसी भी सरकार के बहुमत में होने या न होने का निर्णय किया जा सकता है। पीठ ने कहा था कि फ्लोर टेस्ट से ही सदन में संख्याओं के निर्णायक प्रमाण का संज्ञान होता  है। एसआर बोम्मई के मामले में,  संविधान पीठ ने अनुच्छेद 164 (2) का उल्लेख किया था जिसमें कहा गया है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से राज्य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होगी। इसीलिए पीठ ने व्याख्या की कि बहुमत का अंतिम परीक्षण राजभवन में नहीं बल्कि सदन के पटल पर होता है। 

ऐसा ही एक मामला कल्याण  सिंह और जगदंबिका पाल का था। जिसमे जगदंबिका पाल को फरवरी 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने शपथ दिला दी। भाजपा राज्यपाल के इस निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट चली गयी। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई और,  24 फरवरी, 1998 को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में 48 घंटे के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया था। जगदंबिका पाल बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए। वह बस दो या तीन दिन मुख्यमंत्री रहे, पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें मुख्यमंत्री माना ही नहीं और आज भी वे स्वयं को भूतपूर्व मुख्यमंत्री नहीं लिख सकते हैं। 

इसी प्रकार का एक अन्य मामला झारखंड का है। 9 मार्च, 2005 को, सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड विधानसभा को 11 मार्च, 2005 को बहुमत साबित करने के लिए आदेश दिया था. ताकि ये साबित हो कि सदन में किस राजनीतिक गठबंधन के बीच सदन में बहुमत है और कौन मुख्यमंत्री के लिए दावा कर सकता है। 

ऐसी ही स्थिति बिहार में भी आयी थी 2005 में जब राज्यपाल बूटा सिंह थे। तब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि विधानसभा ऐसी स्थिति में बिना एक भी बैठक के भांग की जा सकती है।

कर्नाटक के बीएस येदियुरप्पा के मामले में भी, 18 मई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अगले ही दिन शाम 4 बजे यानी मुश्किल से 24 घंटे के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया था. इससे पहले बीजेपी  नेता बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली थी। कोर्ट ने कहा था कि आखिरकार यह एक नंबर-गेम है और बहुमत का प्रमाण फ्लोर टेस्ट में ही संभव है। अब यह देखना है कि सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में भी फैसला उसके पुराने फैसलों के अनुसार ही रहता है या कानून की कोई नयी व्याख्या निकल कर सामने आती है। 

© विजय शंकर सिंह 

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