Tuesday 12 November 2019

गौतम और नानक पर अल्लामा इकबाल की एक नज़्म


आज गुरुनानक देव कि 550 वीं जयंती मनायी जा रही है। इस पावन अवसर पर, अल्लामा इकबाल की यह खूबसूरत नज़्म पढें। यह नज़्म भारत के दो महानतम धर्म प्रवर्तक गौतम बुद्ध और गुरुनानक देव के प्रति इकबाल का एक दार्शनिक दृष्टिकोण है। अल्लामा मूलतः एक दार्शनिक कवि थे। उनकी कविताओं, शेरों और लेखों में उनका दार्शनिक पक्ष स्पष्ट रूप से उभर कर आता है। उनकी एक पुस्तक है जावेदनामा, जिसमे उनका दार्शनिक दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।
क़ौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवाह न की,
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की
(गौहर-ए-यक-दाना= ज्ञान का एक मोती, गौतम बुद्ध)
हमने, गौतम बुद्ध के उपदेशों की ज़रा भी परवाह नहीं की और ज्ञान के उस एक मोती की जो हमें मिला था कोई सम्मान नहीं किया।
आह बद-क़िस्मत रहे आवाज़-ए-हक़ से बे-ख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर
(शीरीनी= मिठास; ग़ाफ़िल= अनभिज्ञ, बेख़्याल; शजर= पेड़, दरख़्त)
आह हम सत्य के उस स्वर को सुन न सके, हम अभागे ही रहे। जैसे कोई वृक्ष अपने ही फल के मिठास से अनभिज्ञ होता है।
आश्कार उस ने किया जो ज़िंदगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन ख़याली फ़ल्सफ़ा पर नाज़ था
(राज़=रहस्य; आश्कार= जाहिर करना, प्रकट करना; ख़याली फ़लसफ़ा= हवाहवाई दार्शनिकता)
उसने जीवन का जो रहस्य था उसे हम सबके सामने लाकर रख दिया। पर हम तो हवाई दार्शनिक बहसों में ही उलझे रहे, उसे नहीं देखा।
शम-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वो महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई लेकिन ज़मीं क़ाबिल न थी
(शम-ए-हक़= हक़ीक़त की रौशनी; मुनव्वर= प्रकाशमान, जगमग; बारिश-ए-रहमत= कृपा की बरसात)
सत्य के प्रकाश से जो दुनिया जगमग जगमग हो जाय, वह दुनिया तो न थी। उसकी कृपा तो खूब बरसी पर हमीं धरती को जीने के काबिल नहीं बना सके।
आह शूदर के लिए हिन्दोस्ताँ ग़म-ख़ाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है
(शूदर=शूद्र; ग़मख़ाना= दर्दघर
दूसरी लाईन=इस बस्ती के दिलों में इंसानों के लिए दर्द नहीं है)
आह,शूद्रों के लिये यह दुनिया कष्टों से भरी पड़ी है। मनुष्य के लिये जो मन मे दर्द और सहानुभूति होती है उससे, इस दुनिया का दिल ही बेगाना है। वह इनका दर्द ही नहीं समझता है।
बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिंदार में
शम-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग़्यार में
(बरहमन=ब्राहमण; सरशार=मस्त, डूबा हुआ; मय-ए-पिंदार= ख़्यालों की मदिरा, ख़्यालों में मदांध; महफ़िल-ए-अग़्यार=ग़ैरों की महफ़िल (विदेशों) में )
ब्राह्मण, समाज या धर्म के अग्रणी पंक्ति का समाज, आज भी अपने ही विचारों, खयालों, सोच, मानसिकता में डूबा हुआ है। गौतम ने जो प्रकाश की लौ जलाई थी वह परदेश में प्रकाश कर रही है पर हमारे यहां वह नहीं है।
बुत-कदा फिर बाद मुद्दत के मगर रौशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रौशन हुआ
(बुतकदा= मूर्तिघर/मंदिर; नूर-ए-इब्राहीम= पैग़म्बर इब्राहिम की ज्योति, आज़र= पैग़म्बर इब्राहिम के फादर साहब। आज़र एक बहुत मशहूर बुतसाज़ थे, लेकिन इन्हीं के बेटे पैगम्बर इब्राहिम ने इन बुतों में ईश्वर होने की बात से इंकार कर दिया था)
मूर्तिघर, मंदिर एक लंबे समय के बाद फिर रोशन हुआ, जब आजर के पुत्र इब्राहिम ने मूर्तियों में ही ईश्वर होने की बात से इनकार कर दिया।
फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से
(तौहीद की सदा= एक ईश्वर की आवाज़ या उपदेश; मर्द-ए-कामिल= सूफ़ी मत की उच्चतम अवस्था, संपूर्ण इंसान, बाब्बा नानक के लिए यह सिफ़त(विशेषण) बरती गई है।)
पंजाब से फिर ईश्वर एक है, एकेश्वरवाद, एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, की आवाज़ एक बार उठी है। आज फिर एक पूर्ण पुरूष ( गुरुनानक देव के लिये यह विशेषण है ) ने हमें सपनो से जगा दिया है, सोते से उठा दिया है।
यह भी एक संयोग है कि पूर्णिमा को ही गौतम और नानक दोनों धर्म प्रवर्तको का जन्म हुआ। पूर्णिमा कहीं मनुष्य के पूर्णता का प्रतीक तो नहीं है जब चांद अपनी समस्त ऊर्जा से प्रकाशित हो धरती को एक दिव्य उजाले से भर देता हो और मन मस्तिष्क को आह्लादित कर देता है !
#vss

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