Wednesday 13 November 2019

नेहरू को उनके जन्मदिन 14 नवम्बर पर याद करते हुये / विजय शंकर सिंह


आज 14 नवम्बर को देश के प्रथम प्रधानमंत्री और आज़ादी के आंदोलन के प्रथम पंक्ति के नेता जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है। 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में उनका जन्म हुआ था। नेहरू एक द्रष्टा से। भारत की आज़ादी के बारे में किये गए उनके योगदान की चर्चा हम न भी करें तो भी आज़ाद भारत मे वे 1947 से 1964 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने के बाद, देश के लिये एक नए संविधान बनाने से लेकर, देश मे विभिन्न पंच वर्षीय योजनाओं द्वारा, देश को ढांचागत विकास की ओर ले जाने में नेहरू के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।

नेहरू एक उदार लोकतांत्रिक परंपरा में विश्वास करते थे। संसदीय लोकतंत्र की मर्यादाओं के साथ साथ, उन्हें संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की क्या भूमिका होती है, इसका भी उन्हें एहसास था। नेहरू एक बड़ी शख्सियत थे। हालांकि उनके समय मे देश की संसद में योग्य और विद्वान विरोधी दलों के नेताओ की कमी नहीं थी, पर जब तक वे प्रधानमंत्री रहे, संसद में कोई भी मान्यता प्राप्त नेता विपक्षी दल भी न रहा। फिर भी उनका खूब विरोध हुआ और उन्होंने उस विरोध को अपने व्यक्तित्व, अपनी लोकप्रियता, और सदन में अपने सँख्याबल के दम पर बाधित करने का कोई प्रयास नहीं किया। नेहरू के ही समय मे 1963 में पहली बार डॉ राममनोहर लोहिया ने उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किया और तीन दिन तक बहस चली। वह बहस लोकसभा में संसदीय बहस का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो तत्कालीन सांसदों की योग्यता, मेधा और क्षमता के उच्चतर आयाम का दर्शन कराता है।

नेहरू प्रेस की आज़ादी के पक्षधर थे। उस समय प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर उनके नियमित कार्टून बनाया करते थे और शंकर के कार्टून बहुत ही लोकप्रिय भी थे। शंकर उस समय के दिग्गज कार्टूनिस्ट थे। शंकर्स वीकली के नाम से कार्टूनों की एक साप्ताहिक पत्रिका भी उन्होंने निकाली थी।  ऐसे ही एक कार्टून में शंकर ने नेहरू को एक गधे के रूप में चित्रित किया। जब कार्टून छपा तो लोगों ने उसकी आलोचना भी की। शंकर को भी लगा कि यह व्यंग्य तो कुछ  अधिक हो गया। नेहरू के सार्वकालिक व्यक्तित्व को देखते हुए गधे के रूप में उनका चित्रण अनुचित है। पर कार्टून तो छप चुका है। आज की तरह डिलीट का आप्शन तो था ही नहीं। शाम होते होते खुद नेहरू का ही फोन शंकर के अखबार में आ गया। वे शंकर से बात करना चाहते थे। शंकर अपने कार्टून को लेकर थोड़ा असहज पहले से ही थे। वे अचंभित भी हुये और यह सोचने लगे कि वे अब क्या करें। नेहरू का सामना कैसे करें। खेद जताएं या क्षमा मांगे। इसी मनोदशा में शंकर फोन पर आए और फिर दूसरी तरफ नेहरू खुद थे। नेहरू ने आत्मीयता से  उनका हालचाल पूछा, और शंकर को यह लगा ही नही कि नेहरू उस कार्टून से नाराज़ है। शंकर को यह अनुमान था कि नेहरू नाराज़ होंगे और अपनी नाराजगी जताएंगे भी। थोड़ी औपचारिकता के बाद नेहरू ने शंकर से कहा कि " क्या  वे एक गधे के साथ कल (.दूसरे दिन ) तीनमूर्ति भवन में चाय पीना चाहेंगे। " और यह कह कर,  नेहरू जोर से हंस पड़े। शंकर अब तक सामान्य हो चुके थे। दूसरे दिन शंकर और नेहरू शाम को साथ साथ रहे। लेकिन इस मुलाकात के बाद भी, शंकर के कार्टून की धार कम नही हुयी और न ही नेहरू से उनके रिश्तों में ही कोई खटास आयी। यह चौथे खम्भे की ताकत थी और नेहरू की लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था और उनकी परिपक्वता। आज यह दुर्लभ है।

यह प्रसंग एक परिपक्व और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये समर्पित नेता का ही हो सकता है। आज जब प्रेस का एक अच्छा खासा तबका, सरकार की आलोचना तो छोड़ ही दीजिए, सरकार के प्रचार विभाग डीएवीपी की तरह एक मातहत बन गया है, तो नेहरु का यह उद्धरण और उनके शंकर के साथ के ऐसे किस्से थोड़े हैरान करते हैं। संसदीय लोकतंत्र में सरकार की आलोचना और प्रेस की आज़ादी के संबंध में उन्होंने जो कहा है उसे पढिये और आज के दौर में सरकार, प्रेस और संसदीय परंपराओ से उनकी तुलना कीजिये। थोड़ा अटपटा लगेगा।

" I believe completely in any government, whatever it might be, having stout critics, having an opposition to face. Without criticism people and governments become complacent. The whole parliamentary system of government is based on such criticism. The free Press is also based on criticism. It would be a bad thing for us if the Press was not free to criticise, if people were not allowed to speak and criticise government fully and in the open. It would not be parliamentary government. It would not be proper democracy. I welcome criticism in Parliament. In fact, we welcome criticism from our own party members. "
( Jawaharlal Nehru )
" किसी भी सरकार पर, चाहे वह किसी की भी  हो,जो अपनी आलोचना और विरोध का सामना करती है,  मैं पूरी तरह से उस पर भरोसा करता हूँ। सरकार हो या जनता,   आलोचना और विरोध के बिना, कोई भी अपनी स्थिति में ही संतुष्ट बना रहता है। संसदीय प्रणाली में सरकार का पूरा आधार ही आलोचनाओं  पर टिका हुआ रहता है। प्रेस की आज़ादी का मापदंड, सरकार की आलोचना पर ही निर्भर करता है। प्रेस अगर हमारी आलोचना करने के लिये आज़ाद नहीं है तो यह हमारे ( सरकार ) के लिये बहुत बुरी बात होगी। अगर जनता खुल कर हमारी आलोचना करने के लिये पूरी तरह से आज़ादी महसूस नहीं करती है तो फिर यह, संसदीय लोकतंत्र नहीं है। यह पूरी तरह से लोकतंत्र भी नहीं है। मैं संसद में अपनी ( सरकार ) की आलोचना का स्वागत करता हूँ। यहाँ तक कि हम अपनी ही पार्टी के लोगों द्वारा अपनी ( सरकार ) ही आलोचना का स्वागत करते हैं। "
( जवाहरलाल नेहरू )

आज के समय मे जब ट्रॉल आर्मी से लेकर सारे सरकारी विभाग केवल उसी व्यक्ति के पीछे पड़े रहते हैं जो सरकार में बैठे लोगों की आलोचना करता है, संविधान प्रदत्त अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग करता है, सरकार से अपने टैक्सो का हिसाब मांगता है, सरकार से उसके ही संकल्पपत्र में किये गये वादों पर सवाल उठाता है, उन वायदों को पूरा करने के लिये सरकार से अनुरोध करता है, ऐसे वातावरण में नेहरू -  शंकर प्रसंग, कुछ को अविश्वसनीय लग सकता है । अत्यंत महत्त्वपूर्ण अपराध के बारे में सुनवाई करने वाला जज संदिग्ध मृत्यु को प्राप्त होता है, और सुप्रीम कोर्ट तक की यह हिम्मत नहीं कि वह केवल यह जांच कराने का आदेश दे दे कि जज लोया की मृत्यु एक सामान्य मौत है या वह किसी अपराध से जुड़ी है,  और चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन में सत्तारूढ़ दल के खिलाफ अपना पक्ष रखने वाला एक वरिष्ठ अधिकारी आयकर और ईडी के शिकंजे में फंसा दिया जाता है। लोकतंत्र और विधिसम्मत न्याय व्यवस्था का यह लोया और लवासा काल है। प्रेस को चौथा खम्भा कहा जाता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद लोकतंत्र का यह चतुर्थ स्तंभ भी लोकतंत्र के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उपरोक्त तीनों खम्भे। पर क्या यह चौथा खम्भा धीरे धीरे पांचवा स्तम्भ, फिफ्थ कॉलम बनता जा रहा है ? यह सोचने की बात है।

© विजय शंकर सिंह 

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