Sunday 10 November 2019

अयोध्या मुक़दमे का इतिहास, और फैसला / विजय शंकर सिंह


अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का बहुप्रतीक्षित निर्णय आ गया है। इस पर मीन मेख जारी है। विधि विशेषज्ञों से लेकर आम जन भी जिनकी रुचि इस मामले में है वे इसकी चर्चा कर रहे हैं। 1885 से शुरू हुआ कानूनी विवाद का समापन 9 नवम्बर 2019 को हो गया। फैसला तो अभूतपूर्व है ही, उस फैसले पर देश मे अभूतपूर्व शांति भी रही। तमाम आशंकाओं, खुफिया सूचनाओं और विवाद की संभावनाओं के बावजूद देश मे न केवल शांति रही बल्कि यह शांति दिखी भी। इसका एक कारण यह भी था, कि अयोध्या के विवाद ने देश के सामाजिक सद्भाव को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है और इससे दुनियाभर में भारतीय परंपरा, दर्शन, सोच और वसुधैव कुटुम्बकम के प्रभावशाली विचार को एक आघात भी लगा है। आज का विमर्श इसी विषय पर है। 

कहा जाता है कि 1528 में  बाबर ने यहां एक मस्जिद का निर्माण कराया था, जिसे बाबरी मस्जिद कहते हैं। लेकिन इस कथन का कोई भी उल्लेख न तो बाबरनामा में मिलता है और न ही अन्य किसी समकालीन संदर्भ में। यह भी कहा जाता है कि यहां एक मंदिर था जिसे तोड़ कर मीर बाकी ने एक मस्जिद का निर्माण कराया। उसी को बाबर के समकालीन होने के कारण बाबरी मस्ज़िद कहा गया। यह सब कही सुनी बातें हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य इसकी पुष्टि न तब करते थे और न अब कर रहे हैं। अदालत में भी इस विंदु पर कोई प्रमाण न तो पुरातत्व विभाग की खोजों से मिल सका और न ही तत्कालीन दस्तावेजों से। सुप्रीम कोर्ट ने पुरातत्व विभाग की रपटों और निष्कर्ष पर अपने निर्णय को केंद्रित किया है। पुरातत्व के सुबूत यह तो कहते हैं कि गिराए गये विवादित ढांचे के नीचे एक गैर इस्लामी इमारत के अवशेष हैं। मूर्तिया, यक्षिणी और खम्भो पर उकेरी गयी मूर्तियों से यह तो प्रमाणित होता है कि ढांचे के नीचे किसी मंदिर के अवशेष हैं। पर अदालत ने हिन्दू पक्ष का यह तर्क नहीं माना कि यह ढांचा किसी मंदिर को तोड़ कर उसके अवशेषों पर बनाये जाने का प्रमाण है। बाबर द्वारा तोड़े जाने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। 

इसके बाद अकबर के समय राम जन्मभूमि की बात उठी तो उसने दोनों पक्षों में समझौता कराया और मस्जिद के बाहर एक चबूतरे तक हिंदुओं को आने और पूजा पाठ करने की अनुमति दी, जिसे राम चबूतरा कहा गया।  उस समय तक किसी उल्लेखनीय घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। 1853 में इस मुद्दे पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पहली बार हिंसक झड़प हुयी। तब अवध में नवाबों का राज था। अवध में हिन्दू मुस्लिम में सामाजिक सद्भाव पहले से ही था। अवध की नवाबी पहले फैज़ाबाद थी जो बाद में लखनऊ गयी। 1853 के पहले ही अंग्रेजों की कुदृष्टि अवध पर पड़ चुकी थी। उत्तर भारत के इस बेहद महत्वपूर्ण राज्य जो कलकत्ता और दिल्ली के बीच स्थित था को डॉक्टरीन ऑफ लैप्स के सिद्धांत के अनुसार लार्ड डलहौजी हड़पना चाहता था और उसने अवध में दुर्व्यवस्था को अपना आधार बनाया। 1853 में जो झगड़ा अयोध्या में हुआ उसे नवाब और स्थानीय ताल्लुकदारों की मदद से सुलझा दिया गया। फिर तो 1856 में अवध का अधिग्रहण हुआ और 1857 में विप्लव के बाद 1858 में भारत सीधे क्राउन के अधीन आ गया। 

1859 के समय यह मुद्दा फिर उठा और तब ब्रिटिश सरकार ने इस स्थान को तारों की एक बाड़ खड़ी करके विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिदुओं को अलग-अलग नमाज और पूजा की इजाजत दे दी। हिंदुओं को जो इजाज़त दी गयी थी वह अकबर के समय के चबूतरे तक आने और पूजा की अनुमति के अनुरूप ही थी। 1885 में महंत रघुवर दास ने पहली बार अदालत में मस्ज़िद के पास ही उसी चबूतरे के पास राम मंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए एक बाद दायर किया था। वह बाद लंबित रहा और यथास्थिति बनी रही। 

1947 में भारत आज़ाद हो गया। लेकिन बंटवारे, देशव्यापी हिन्दू मुस्लिम दंगो के कारण नवस्वतंत्र देश के समक्ष चुनौतियां बहुत थी। इसी बीच, 22 / 23 दिसंबर 1949 की रात में अभिराम दास, महंत रामचंद्र दास तथा अन्य साधुओं ने मस्जिद के अंदर घुस कर रामलला की एक मूर्ति रख दी और यह बात सुबह तक प्रचारित कर दी कि राम यहां प्रगट हुए हैं। उस मस्ज़िद में नमाज़ 1936 से नहीं पढ़ी जाती थी पर कुछ का कहना है कि केवल जुमा की नमाज़ पढ़ी जाती थी। अदालत ने अपने फैसले में इस घटना का उल्लेख किया है और इसे गलत भी बताया है। यह मस्जिद में कब्ज़ा करने का एक प्रयास था, जिससे इस मामले में असल विवाद उत्पन्न हुआ, और वर्तमान विवाद का यही आधार बना। इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और यह मामला भारत सरकार तक गया। तब सरकार ने मूर्ति हटाने का आदेश तत्कालीन जिला मैजिस्ट्रेट केके नायर को दिया और सिटी मैजिस्ट्रेट को उक्त मूर्ति को हटवाने के लिये भेजा गया। पर कानून व्यवस्था को देखते हुए मूर्ति हटवाया जाना आसान नहीं था। अतः यथास्थिति बनाये रखते हुए मंदिर के अंदर लोगों के जाने पर रोक लगा दी गयी । वहां आर्म्ड पुलिस गार्ड लगा दी गयी।

5 दिसंबर 1950 को महंत परमहंस रामचंद्र ने, 22 दिसंबर की रात को रखी गयी प्रतिमा की  पूजा अर्चना, जारी रखने के लिए एक दरख्वास्त दी। अदालत ने इस दरख्वास्त पर महंत रामचंद्र दास को पूजा पाठ के लिये एक पुजारी को अंदर जाने और पूजा करने की अनुमति दे दी और राम चबूतरे तक भजन कीर्तन करने की, जो अनुमति पहले से ही थी, दी उसे जारी रखा। सुरक्षा हेतु आर्म्ड गार्ड थी ही। लेकिन लोगों को दर्शन की अनुमति बाहर से ही दी गयी थी।

16 जनवरी 1950 को  गोपाल सिंह विशारद ने एक अपील दायर कर के फैजाबाद अदालत में रामलला की विशेष अष्टयाम पूजा अर्चना, वैष्णव पद्धति से करने की इजाजत देने की मांग की। उनका तर्क था कि यह देवता के विधिवत पूजा अर्चना के अधिकार का उल्लंघन है। अतः अष्टयाम यानी मंगला आरती से शयन आरती तक की पूजा की अनुमति दी जाय। इस पर कोई आदेश जारी नहीं हुआ। मामला लंबित रहा।

अब एक नया मुकदमा 17 दिसंबर 1959 को अदालत में निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल खुद को हस्तांतरित करने के लिए दायर किया। उसका कहना था कि यह भूमि उसकी है। भूमि का यह पहला मुकदमा था। अब तक जो मुक़दमे दर्ज हुये थे वे वहां पूजा अर्चना करने की मांग को लेकर हुये थे। भूमि का यह पहला दावा था। निर्मोही अखाड़े के भूमि संबंधी मुक़दमे के दायर करने के बाद, 18 दिसंबर 1961 उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के लिए मुकदमा दायर कर दिया। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड का कहना है कि मस्जिदें वक़्फ़ की ज़मीन पर होती हैं अतः सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को यह ज़मीन दी जाय। अब भूमि के मालिकाना हक के दो दावेदार हो गए, एक निर्मोही अखाड़ा दूसरा सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड।

विश्व हिंदू परिषद अब, इस विवाद में खुलकर सक्रिय हो गया।1984 में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने और राम जन्म स्थान को मुक्त कराने व एक विशाल मंदिर के निर्माण के लिए अभियान का प्रारंभ किया और इस कार्य हेतु एक समिति का गठन किया।

1 फरवरी 1986 फैजाबाद जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिदुओं को पूजा की इजाजत दी । और ताले खोल दिए गए। इन ताले का भी एक रोचक इतिहास है। जब अदालत ने एसएसपी फैज़ाबाद से यह पूछा कि वहां ताला किसके आदेश से लगाया गया था ? तो इसकी खोज शुरू हुई। यह घटना 1950 की थी। और तभी विवाद होने पर वहां आर्म्ड पुलिस लगा दी गयी थी। आर्म्ड पुलिस तो पुलिस लाइन की लगी थी। उसका उल्लेख तो मिला पर ताला लगाने का कोई उल्लेख नहीं मिला। ताले के बारे में मुझे वहां के एक रिटायर्ड हेड कॉन्स्टेबल ने मज़ेदार किस्सा बताया है। उनके अनुसार जब यहां आर्म्ड गार्ड लग गयी तो गार्ड ने दरवाज़े में अतिरिक्त सुरक्षा के लिये एक ताला लगा दिया और वही ताला बराबर लगा रहा। कहते हैं कि पुजारी के आने जाने के बाद वे ताला बंद कर देते थे ताकि दर्शन करने वाले लोग जिनकी संख्या कम ही होती थी अंदर न जा सकें और बाहर से ही दर्शन करें। अदालत ने जब ताले का कोई अभिलेखीय उल्लेख नहीं पाया तो उसने ताला यह कहते हुए कि जब उस ताले लगाने का आदेश ही नहीं था तो उसे हटा दिया जाय। इस प्रकार ताला खुला और दर्शनथियों के साथ साथ सियासतदां भी मंदिर में प्रवेश कर गए।इसकी तुरन्त प्रतिक्रिया भी हुयी। विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन कुछ लोगों ने किया और यह इस मामले में एक नये पक्ष का प्रवेश था।

अब इसी से एक राजनैतिक और धार्मिक तुष्टिकरण का भी किस्सा जुड़ा है। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो जो एक तलाकशुदा महिला थीं के पक्ष में उनके द्वारा धारा 125 सीआरपीसी के अंतर्गत दायर बाद पर उनको गुजारा भत्ता देने का आदेश दे दिया। इसकी कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं में बड़ी प्रतिक्रिया हुयी और उन्होंने इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ और शरीअत में दखल बताया। राजीव गांधी दबाव में आ गए और उन्होंने इस पर संविधान संशोधन करवा दिया। उनपर इस मामले को लेकर तुष्टिकरण का आरोप लगा। कांग्रेस में आरिफ मुहम्मद खान संविधान संशोधन के खिलाफ थे। उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और वे नेपथ्य में चले गए। यह भी कहा जाता है कि अयोध्या में ताला खुलने, और अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का वादा मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप की एक बैलेंसिंग राजनीतिक दांव था। कांग्रेस के ऊपर शाहबानों मामले में तुष्टिकरण का आरोप लग ही रहा था तो उन्होंने राम मंदिर के ताला खुलवाने का श्रेय लेकर अपने को मुस्लिम तुष्टिकरण से दूर दिखने की कोशिश की। जून 1989 में जब राम मंदिर और अयोध्या की चर्चा देश विदेश में फैली और ताला खुलने और खुलवाने का श्रेय तत्कालीन कांग्रेस ने लेना शुरू कर दिया तो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने वीएचपी को औपचारिक समर्थन देना शुरू करके मंदिर आंदोलन को अपना मुद्दा बना लिया। । 1989 में चुनाव प्रचार की शुरुआत राजीव गांधी ने अयोध्या से ही की थी। 

अब तक अयोध्या मामले में रामचन्द्र परमहंस, गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के चार मुक़दमे तो चल ही रहे थे कि, तभी 1 जुलाई 1989 को भगवान रामलला विराजमान नाम से पांचवा मुकदमा वीएचपी के अवकाशप्राप्त जस्टिस लोढ़ा ने दाखिल किया गया। अब रामलला भी अपने वकील के माध्यम से इस अदालती लड़ाई में कूद पड़े। किसी देवता के अदालती मुक़दमे में कूदने की यह पहली घटना नहीं है। पहले भी ऐसी घटनायें हो चुकी हैं।

9 नवंबर 1989 तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने बाबरी मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दी। इसे भी लेकर एक विवाद खड़ा हुआ। वीएचपी यह चाहती थी कि शिलान्यास उक्त विवादित परिसर के अंदर हो पर यथास्थिति के अदालती आदेशों के अनुसार यह संभव ही नहीं था। फिर परिसर से दूर एक स्थान पर एक बड़ा सा गड्ढा खोदा गया और शिलान्यास की औपचारिकता पूरी की गयी। इस अवसर मैं भी वहीं था। उस समय मेरी ड्यूटी वहां गर्भगृह प्रभारी के रूप में थी। शिलान्यास में, अशोक सिंघल, विजयराजे सिंधिया, विनय कटियार, आचार्य गिरिराज किशोर, डॉ राम विलास वेदांती आदि विश्व हिन्दू परिषद के नेता मौजूद थी। देश विदेश का सारा मीडिया तँत्र वहीं था। 

अब दिल्ली में वीपी सिंह की सरकार आ गयी थी। उन्होंने देवीलाल से विवाद के चलते मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। भाजपा ने 25 सितंबर 1990 को अपने  अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक की रथ यात्रा निकाली। यह मंडल कमीशन के लागू होने की प्रतिक्रिया थी। मंडल ने जातीय ध्रुवीकरण किया तो भाजपा ने साम्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड खेला। नवंबर 1990 में एलके आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर बीजेपी ने तत्कालीन वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इस घटना के बाद अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद के आस-पास की 2.77 एकड़ भूमि को अपने अधिकार में ले लिया।

6 दिसंबर 1992 के पहले अचानक अयोध्या गरमा गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कारसेवा की अनुमति तो दी पर उसने यह भी कहा कि यथास्थिति बनी रहनी चाहिये और उत्तर प्रदेश सरकार से यह आश्वासन चाहा कि सरकार यथास्थिति बनाये रखी जाएगी। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को हजारों की संख्या में उग्र और उन्मादित कार सेवकों ने अयोध्या पहुंचकर विवादित ढांचा जो प्रत्यक्षतः तब एक मंदिर ही था, उसे ढहा दिया। इसके बाद यूपी सरकार बर्खास्त हो गयी। रामलला को फिर एक टेंट में अस्थायी रूप से प्रतिष्ठित किया गया। 16 दिसंबर 1992 को इस ध्वस्तीकरण के लिये जस्टिस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन हुआ जिसने अपने गठन के 17 साल बाद जुलाई 2009 में अपनी रिपोर्ट दी।

अप्रैल 2002 में अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक टाइटिल सूट को लेकर उच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू की और विवादित परिसर की पुरातात्विक जांच कराने का आदेश भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को दिया। एएसआई ने मार्च से अगस्त 2003 तक  इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्देशों पर अयोध्या में खुदाई की और मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष होने के कुछ प्रमाण मिलने की पुष्टि की। इसी बीच सितंबर 2003 को एक अदालत ने मस्जिद के विध्वंस को उकसाने वाले वीएचपी के सात नेताओं को सुनवाई के लिये सम्मन किया। एक मुकदमा सर्वोच्च न्यायलय में भी इस आशय का दायर किया गया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय जिस टाइटिल सूट की सुनवाई कर रहा है उसे अपना फैसला देने से रोक दिया जाय। लेकिन 28 सितंबर 2010 को सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहबाद उच्च न्यायालय को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका खारिज करते हुए फैसले का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने 30 सितंबर 2010  अपना बहु प्रतीक्षित फैसला सुनाया जिसके अनुसार,अदालत ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया जिसमें एक हिस्सा रामलला विराजमान को, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और तीसरा निर्मोही अखाड़े को दे दिया। इस फैसले को लेकर व्यापक शांतिभंग की आशंका की गयी थी, पर पूरी तरह से शांति बनी रही। लेकिन इस फैसले का क्रियान्वयन कैसे किया जाय इस पर बहस चल ही रही थी सभी पक्षों ने इसे अमान्य कर दिया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की बात की। अपीलें दायर हुयीं और 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी और तभी से यह मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अब जनवरी 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट बेंच का गठन करेगा तब जाकर इस मुक़दमे की नियमित सुनवायी होगी। इन मुकदमों के दोनों प्रमुख पक्षकार महंत रामचन्द्र परमहंस और हाशिम अंसारी का निधन हो चुका है। यह एक संक्षिप्त इतिहास है रामजन्मभूमि के संबंध में हो रहे मुकदमेबाजी का।

अब 9 नवम्बर 2019 को 1885 से चले आ रहे इस विवाद का अंत हो गया और सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया।
फैसले के अनुसार, 
● बाबरी मसजिद विध्वंस गैर कानूनी था।यह एक अपराध है।
● राममंदिर की जमीन अब एक ट्रस्ट देखेगा जिसको मंदिर सचालन ट्रस्ट  कानूून के जरिए बनाया जाएगा। इस तरह मंदिर निर्माण का परोक्ष जिम्मेदारी और मालिक केन्द्र सरकार होगी, क्योंकि वही उस मंदिर ट्रस्ट  संबंधित कानून की नियंता है। 
● राममंदिर बाबर द्वारा तोड़ा गया था, इसका कोई प्रमाण अदालत को न तो पुरातात्विक सुबूतों से और न ही दस्तावेजों से मिला। 
● सन् 1992 में बाबरी मसजिद तोड़ना कानून गलत था। तोड़ने वाले अभियुक्तों पर लखनऊ की अदालत में मुकदमा चल रहा है। वह चलता रहेगा। जिसमें एलके आडवाणी, उमा भारती आदि मुल्ज़िम हैं। 

6 दिसंबर 1992 को मस्ज़िद ढहाने के विंदु पर अदालत के फैसले का यह अंश पढिये, 
" अगर अदालत मुस्लिमों के हक़ को नजरअंदाज करता है जिनके मस्जिद को ऐसे तरीकों को अपनाकर ढहा दिया गया जो एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष देश में नहीं होना चाहिए था जिसने क़ानून के शासन को अपनाया है. संविधान में सभी धर्मों को समान दर्जा दिया गया है। सहिष्णुता और सह-अस्तित्व हमारे देश और इसके निवासियों की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता के पोषक हैं।"
अदालत ने कहा कि 
" या तो केंद्र सरकार अधिग्रहीत भूमि में से पांच एकड़ भूमि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को दे या उत्त्तर प्रदेश की सरकार अयोध्या शहर के अन्दर उनको यह जगह उपलब्ध कराए। " 
अदालत ने आगे कहा, 
" यह कार्य और इसके बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड को जमीन सौंपने का काम और मुकदमा नंबर 5 के फैसले के तहत विवादित जमीन जिसमें अन्दर और बाहर के आँगन शामिल हैं, को सौंपने का काम साथ-साथ होना चाहिए। " 
अदालत ने ऐसा कहते हुए अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 142 का हवाला दिया ताकि "जो गलती हुई थी उसको सही किया जा सके। अदालत ने आगे कहा,
" हालांकि पूरी विवादित जमीन के मालिकाना हक़ के बारे में हिंदुओं की तरफ से पेश किए गए सबूतों का आधार , मुस्लिम पक्ष की तरफ से पेश किए सबूतों के बनिस्बत ज्यादा मजबूत है. फिर भी मुसलिम पक्ष को जमीन आवंटित किया जाना जरुरी है. मुस्लिम पक्ष ने मस्जिद पर अपना दावा कभी छोड़ा नहीं. बल्कि 22/23 दिसंबर 1949 को पहले मस्जिद को अपवित्र किया गया और बाद में 6 दिसंबर 1992 को उसे पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया.  भारतीय संविधान की धारा 142 इस अदालत को अख्तियार देती है कि वो हर हाल में किसी अपराध का उपचार करे. मुसलमानों को मस्जिद से जिन तरीकों से मस्जिद से बाहर किया गया वो किसी भी ऐसे देश में जो सेक्युलर और कानून के राज के प्रति वचनबद्ध है, नहीं अपनाए जाने चाहिए. अगर यह अदालत इस चीज को नजरअंदाज कर देती है तो यह कानून की जीत नहीं होगी. संविधान सभी धर्मों की समानता को अभिगृहीत करता है. सहिष्णुता और सहअस्तित्व हमारे राष्ट्र और लोगों की धर्मनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्धता को मजबूत करता है. "

सबसे बड़ी बात यह है कि यह फैसला सर्वसम्मति से दिया गया है। सारे जज इस फैसले पर पर एक मत हैं। अब इस फैसले पर अमल करना, इसे लागू करना, यह सारा काम सरकार का है। उसे तीन महीने में ट्रस्ट बनाना है और तब उस ट्रस्ट द्वारा यह योजना बनानी है। फैसले में मंदिर निर्माण के विंदु पर, सुप्रीम कोर्ट ने तो निर्मोही अखाड़ा के इस तर्क को नहीं माना है कि मंदिर बनाने का हक़ उनका है, और उसका दावा भी खारिज कर दिया है। लेकिन उनको ट्रस्ट में रखने की बात कही है। शिया वक़्फ़ बोर्ड का भी दावा अदालत ने खारिज कर दिया है।  विश्व हिंदू परिषद को अदालत ने मंदिर निर्माण संबंधी किसी  जिम्मेदारी से अलग रखा है।  इन सब के दखल को खारिज़ करते हुये यह जिम्मेदारी अब सरकार को दे दी गई  है । अभी 2.77 एकड़ ज़मीन जिसके मालिकाना हक का यह मुक़दमा था, वर्तमान रिसीवर के पास ही रहेगी। रिसीवर मंडलायुक्त फैजाबाद होते हैं। जब ट्रस्ट बन जायेगा तब जैसा तय होगा वैसा किया जाएगा।

जब आस्था, कानून, शांति व्यवस्था और जनभावना के सारे सवाल बार बार उठ रहे हों और फैसला ऐसे जजों को देना हो, जो जानते हैं कि उनके फैसले के बाद कोई अदालत नहीं है तो ऐसे जजों को इन सवालों, आरोपों, प्रत्यारोपों, आशंकाओं, आक्षेपों, अपेक्षाओं के अरण्य में से सही और युक्तियुक्त मार्ग को खोजना और उसका अनुसरण करना कठिन होता है। अगर बौद्धिक और अकादमिक न्याय के आधार पर किसी भी फैसले की समीक्षा की जाएगी तो सबमे कुछ न कुछ कमी निकलेगी। अपवाद यह फैसला भी नहीं होगा। इस फैसले पर, बहस आज हो रही है और अब आगे भी होगी। कानून के जानकार और कानून के विद्यार्थी इसे पढ़ेंगे और इस का अध्ययन भी करेंगे। इसमे कमियां भी निकाली जाएगी और इस फैसले की प्रशंसा भी होगी। पर इस फैसले से एक बड़े विवाद का अंत हुआ। तमाम मीन मेख और कानूनी विसंगतियों के बावजूद यह फैसला इस महाविवाद के शान्तिपूर्ण समाधान की ओर एक कदम है। 

©  विजय शंकर सिंह

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