6.
अपना नहीं वो शेवा, कि आराम से बैठें,
उस दर पै नहीं बार तो काबा ही को हो आयें !!
-ग़ालिब.
शेवा -भाषण पटुता, वाक्पटु
Apnaa naheen wo shewaa, ki aaraam se baithen,
Us dar pai naheen baar to Kaabaa hee ko ho aayein !!
-Ghalib.
हमारा यह अभ्यास, (वाक् पटुता का अभ्यास ) नहीं है कि हम शान्ति से बैठ सकें. ग़ालिब खुद को यहाँ वाक्पटुता में इतना पारंगत नहीं पाते है कि वह अपनी प्रेमिका से मिल ही लें. जब प्रेयसी के दरवाज़े पर हमारी बारी नहीं आती दिखाई देती है तो हम तब तक काबा की यात्रा ही क्यों न कर लें .
यह शेर, मन चंचल है के तथ्य की और इशारा करता है. मनुष्य शान्ति से किसी एक स्थान पर नहीं बैठ सकता है. वह निरंतर अस्थिर मनोवृत्ति का ही होता है. मानासिक शान्ति के अभाव में वह निरंतर इधर उधर मारा मारा फिरता रहता है. यदि उसे मानसिक शान्ति मिल जाए तो किसी भी हज या काबा के यात्रा की आवश्यकता ही न रहे.
एक अन्य व्याख्या में यहाँ सूफी दर्शन भी ढूंढा जा सकता है. प्रेमिका के दरवाज़े पर भीड़ है. और अपने कर्म की बारी की प्रतीक्षा में , वह खड़े है. उनमें इतनी वाक्पटुता नहीं है कि वह कर्म भंग कर पहले मिल लें. जब तक उनकी बारी आये, वह काबा ही क्यों न हो लें. सूफी मत में प्रेमिका ईश्वर का प्रतीक मानी गयी है. जब इश्वर की ही कृपा हो जाए तो काबा या तीर्थों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी. जब तक उसकी कृपा नहीं होती तब तक तो भटकना ही है. तो काबा की ही यात्रा क्यों न कर ली जाए.
इसी थीम पर एक और शेर पढ़ें. यह ग़ालिब का नहीं है. मुझे याद नहीं कि किसका लिखा है. पर शेर बहुत अच्छा है.
बाग़ में लगता नहीं, सहरा से घबराता है जी,
अब कहाँ ले जा कर बैठें, ऐसे दीवाने को हम !!
Baag mein lagtaa naheen, saharaa se ghabaraataa hai jee.
Ab kahaan le jaa kar baithe, aise deewaane ko ham !!
-ग़ालिब.
शेवा -भाषण पटुता, वाक्पटु
Apnaa naheen wo shewaa, ki aaraam se baithen,
Us dar pai naheen baar to Kaabaa hee ko ho aayein !!
-Ghalib.
हमारा यह अभ्यास, (वाक् पटुता का अभ्यास ) नहीं है कि हम शान्ति से बैठ सकें. ग़ालिब खुद को यहाँ वाक्पटुता में इतना पारंगत नहीं पाते है कि वह अपनी प्रेमिका से मिल ही लें. जब प्रेयसी के दरवाज़े पर हमारी बारी नहीं आती दिखाई देती है तो हम तब तक काबा की यात्रा ही क्यों न कर लें .
यह शेर, मन चंचल है के तथ्य की और इशारा करता है. मनुष्य शान्ति से किसी एक स्थान पर नहीं बैठ सकता है. वह निरंतर अस्थिर मनोवृत्ति का ही होता है. मानासिक शान्ति के अभाव में वह निरंतर इधर उधर मारा मारा फिरता रहता है. यदि उसे मानसिक शान्ति मिल जाए तो किसी भी हज या काबा के यात्रा की आवश्यकता ही न रहे.
एक अन्य व्याख्या में यहाँ सूफी दर्शन भी ढूंढा जा सकता है. प्रेमिका के दरवाज़े पर भीड़ है. और अपने कर्म की बारी की प्रतीक्षा में , वह खड़े है. उनमें इतनी वाक्पटुता नहीं है कि वह कर्म भंग कर पहले मिल लें. जब तक उनकी बारी आये, वह काबा ही क्यों न हो लें. सूफी मत में प्रेमिका ईश्वर का प्रतीक मानी गयी है. जब इश्वर की ही कृपा हो जाए तो काबा या तीर्थों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी. जब तक उसकी कृपा नहीं होती तब तक तो भटकना ही है. तो काबा की ही यात्रा क्यों न कर ली जाए.
इसी थीम पर एक और शेर पढ़ें. यह ग़ालिब का नहीं है. मुझे याद नहीं कि किसका लिखा है. पर शेर बहुत अच्छा है.
बाग़ में लगता नहीं, सहरा से घबराता है जी,
अब कहाँ ले जा कर बैठें, ऐसे दीवाने को हम !!
Baag mein lagtaa naheen, saharaa se ghabaraataa hai jee.
Ab kahaan le jaa kar baithe, aise deewaane ko ham !!
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