सुबह सूरज तो, सब के आँगन में उतरता है,
हजार किरणों की, बारात लिए,
उम्मीदों की, नातमाम सौगात लिए,
आस का गुबार लिए,
कितनी ख्वाहिशें, अरमान कितने , हर रोज़ जगा जाता है. मन में !
पर ऊषा की लालिमा के साथ,
सुबह की अलसाई और तन्द्रित आँखे,
भास्कर के इन उपहारों से बेपरवाह
तुम्हे ढूंढती ही रहती हैं ,
चाय के प्याले और अखबारों की पंक्तियों में !
अचानक इन किरणों में,
अलग से दीप्तिमान तुम,
अद्भुत आभा बिखेरते हुए
दिख जाते हो जब,
लगता है, सच में प्रभात है जीवन में.
सूरज आये, न आये,
कभी घेर लें, घोर घटाएं उसे,
पर तुम आना, मेरे दोस्त.
मेरे लिए, तुम्हारा दर्शन ही सवेरा है,
सूरज का क्या,
वह तो रोज़ ही, आता और जाता है !!
( विजय शंकर सिंह )
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