जुलाई 1971 के अंत तक अंतर्राष्ट्रीय स्थिति स्पष्ट होने लगी थी. चीन , पाक की तरफ तो था ही, अमेरिका भी पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा था. लेकिन उसने अपने इरादे छुपा रखे थे. इंदिरा गांधी भी अपनी कूटनीतिक चालें चलने लगीं थी. अब वह ' गूंगी गुड़िया ' नहीं रह गयी थी. 1969 में कांग्रेस के दो भागों में बँटने, एक कांग्रेस ( संगठन ) और दूसरा कांग्रेस ( आई ) यानी इंदिरा , के बाद जो व्यापक जन समर्थन उन्हें मिला , इस से उनका आत्म विश्वास बढ़ गया था. इसी बीच उनकी बात सोवियत रूस से चलती रही. इस बात चीत की भनक अमेरिका को नहीं लग पायी. अमेरिका को इस कूटनीतिक दांव की आशंका तो थी, पर इंदिरा गांधी ,चूंकि निरंतर अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के संपर्क में भी थीं और सोवियत रूस से जो वार्ता चल रही थी वह इतनी गोपनीय रखी गयी थी कि निक्सन इस विन्दु पर सोच भी नहीं पाये. अचानक 9 अगस्त को सोवियत रूस और भारत में शान्ति, सहयोग और मित्रता की एक नयी संधि हो गयी. यह संधि भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह , और सोवियत विदेश मंत्री ए ए ग्रोमिको के बीच अपने अपने देशों के प्रतिनिधियों के रूप में की गयी। यह इंदिरा गांधी का एक साहसिक कदम था. आज़ादी के बाद ही भारत ने रूस और अमेरिका में से किसी भी खेमे में न जा कर एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों का एक संगठन बना कर एक जुट रखने का निश्चय किया था. उस समय इस नए खेमे को तीसरी दुनिया कहा गया. यह अधिकतर यूरोपीय मुल्क़ों के उपनिवेश थे जो विश्व युद्धों के बाद ही आज़ाद हुए थे. भारत जो खुद तीसरी दुनिया का नेतृत्व कर रहा था, का सोवियत रूस के साथ ऐसी संधि , उसके गुट निरपेक्ष होने पर सवाल खड़ा कर सकती थी. पर यह सोवियत खेमे में सम्मिलित नहीं होना था, और न ही यह किसी प्रकार की युद्ध संधि थी. यह संधि एक मैत्री संधि थी जिसका उद्देश्य शान्ति और परस्पर सहयोग था. इंदिरा का यह क़दम , भारत के लिए बहुत ही लाभकारी सिद्ध हुआ. इस संधि के बाद भी इंदिरा ने निक्सन से अपना संवाद , न तो समाप्त किया और न ही कम किया. निक्सन की बेरुखी के बावज़ूद भी भारत ने शान्ति प्रयासों के लिए अमेरिका को राज़ी करना जारी रखा. अब शक्ति संतुलन बराबर हो गया था. भारत किसी भी संकट के समय रूस से सहायता और सहयोग की अपेक्षा कर सकता था.
भारतीय सेना पूर्वी पाक की सीमा पर एकत्र होने लगी. बांग्ला मुक्ति संग्राम के नेता बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में मुक्ति वाहिनी का गठन हो गया था.मुजीब गिरफ्तारी से बचने के लिए, भूमिगत हो गए थे. वह कहाँ हैं किसी को ज्ञात नहीं हो रहा था. मुक्ति वाहिनी ने गुरिल्ला वार की शक्ल में पाक सेना के ठिकानों पर हमला करना शुरू कर दिया. पाक सेना ने बर्बरता और अमानवीयता की सारी हदें तोड़ दी थीं. जनरल टिक्का खान उस समय पूर्वी पाक के गवर्नर थे. उधर पाकिस्तान ने जब यह देखा कि भारतीय सेना, पूर्वी मोर्चे पर एकत्र हो रही है और पश्चिमी मोर्चे पर सेना का अधिक ध्यान नहीं है तो, उसने 3 दिसंबर की रात में जम्मू के छम्ब जोरियां, और सीमावर्ती पंजाब के 3 मोर्चों पर आक्रमण कर दिया. रात में ही अम्बाला एयर बेस तक पाक एयर फ़ोर्स ने हवाई हमले किये. यह औपचारिक युद्ध का प्रारम्भ था.
उधर सी आई ए के प्रमुख ने तत्काल ही यह सूचना अमेरिकी राष्ट्रपति को दी. निक्सन ने उनसे इस पर चीन की प्रतिक्रिया जाननी चाही. सी आई ए के आकलन के अनुसार, भारतीय प्रधान मंत्री को यह भरोसा था कि चीन उन पर हमला नहीं करेगा. वह शांत रहेगा. सी आई ए का आकलन था कि इंदिरा भ्रम में है. चीन भी इस युद्ध में शामिल हो कर नेफा, NEFA ( North Eastern Frontier Agency ) जो अब का अरुणांचल प्रदेश है में एक नया मोर्चा खोल देगा और इस प्रकार भारत को उत्तर , पश्चिम और पूर्व तीनों मोर्चे पर लड़ना होगा और वह टूट जाएगा. पर सी आई ए का यह आकलन जो चीन के इस आश्वासन पर आधारित था, कि वह युद्ध में पाकिस्तान की तरफ खड़ा रहेगा, गलत सिद्ध हुआ.
अमेरिका ने इस युद्ध में हस्तक्षेप करते हुए, 9 दिसंबर को, अमेरिकी एयरक्राफ्ट करियर, यू एस एस इंटरप्राइज को जो प्रशांत महासागर में था, को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया. यह कदम केवल भारत को डराने के लिए था. इस पर रूस ने अपनी नौसेना को जो भू मध्य सागर में थी , को भी बंगाल की खाड़ी की ओर कूच करने के लिए तैयारी की हालत में रहने को कहा. अमेरिका यह सोचता था कि, उसकी बंगाल की खाड़ी में उपस्थिति से भारत , पूर्वी पाक से अपनी सेना हटा लेगा और पाक सेना मुक्ति वाहिनी को समाप्त कर देगी. यह सुझाव पाक का ही था. पर रूसी बेड़े की गतिविधि को देखते हुए युद्ध के वैश्विक हो जाने का खतरा था, जो कोई नहीं चाहता था.
10 दिसंबर 1971 को निक्सन ने किसिंगर को चीन से बात करने और नेफा में नया मोर्चा खोलने के लिए कहने को कहा. किसिंगर को ही चीन ने यह आश्वासन दिया था कि वह युद्ध में पाकिस्तान के साथ रहेगा. निक्सन ने किसिंगर से चीन को जो कहने के लिए कहा था, वह यह शब्द हैं -
‘Threaten to move forces or move them, Henry, that’s what they must do now.’
चीन ने कुछ नहीं किया. क्यों कि रूस ने उत्तरी चीनी सीमा पर अपने सैनिक तैनात कर दिए थे. और चीन को उसने यह समझ दिया था कि अगर नेफा मोर्चा खोला गया तो वह उत्तर चीन पर एक नया मोर्चा खोल देगा. चीन को यह सबसे बड़ा डर था. इस लिए वह चुप चाप बना रहा.
हालांकि अमेरिका ने चीन को आश्वस्त कर दिया था कि रूसी आक्रमण की स्थिति में वह चीन की सैनिक सहायता करेगा. पर चीन आश्वस्त नहीं हुआ.
“NEFA front has been activated by Chinese, although the Indians, for obvious reasons, have not announced it.”
पर बीजिंग इस युद्ध में अपने को पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा घोषित कर के भी, स्वयं युद्ध से दूर रहा.
वाशिंगटन में निक्सन ने इस युद्ध की समीक्षा इन शब्दों में की, ..
‘If the Russians get away with facing down the Chinese and the Indians get away with licking the Pakistanis…we may be looking down the gun barrel.’
निक्सन चीन के रुख के बारे में अब संदेह करनें लगे थे. वह सोचने लगे कि क्या चीन सच में भारत के विरुद्ध सैन्य अभियान चलाना चाहता है या नहीं ? किसिंगर की यह कूटनीतिक पराजय थी. क्यों कि यह आश्वासन उन्होंने ही चीन से प्राप्त किया था, भारत पाक में युद्ध होने पर चीन भी नेफा के मोर्चे पर हमला करेगा. पर ऐसा नहीं हुआ.
सोवियत यूनियन की इस युद्ध में भूमिका..
अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट ने युद्ध की समाप्ति के बाद जब इस की औपचारिक समीक्षा की तो उसने पाया कि ,‘in the perspective of Washington, the crisis ratcheted up a dangerous notch, India and the Soviet Union have signed a treaty of peace, friendship and cooperation.’
सारी परिस्थितियां 9 अगस्त 1971 को भारत रूस के बीच हुयी , शान्ति सहयोग और मित्रता की संधि के कारण पलट गयीं. अमेरिका ने सोचा कि अगर वह खुल कर युद्ध में आता है तो सोवियत रूस को , इस संधि के कारण हस्तक्षेप करने का अवसर मिल जाएगा . अगर रूस खुल कर युद्ध में आ जाता तो यह एशिया में अमेरिकन हितों को बहुत हानि पहुंचाता. इस से दक्षिण एशिया में रूस की ताक़त बहुत बढ़ जाती. क्यों की अफगानिस्तान रूस के प्रभुत्व में था ही. इस प्रकार अमेरिकी विस्तार वादी नीति को झटका पहुँचता.
युद्ध के शुरू होते ही दूसरे ही दिन 4 दिसंबर को, अमेरिका ने सुरक्षा परिषद् में इस युद्ध को रोके जाने के लिए प्रस्ताव पेश कर दिया . अमेरिका को लगा कि रूस इस युद्ध में देर सबेर प्रत्यक्ष भाग ले सकता है. अमेरिका खुल कर युद्ध करने से बचना चाहता था. इस प्रस्ताव पर जो सुरक्षा परिषद् में अमेरिकी प्रतिनिधि, जॉर्ज एच डब्ल्यू बुश ने , जो बाद में अमेरिका के 41 वें राष्ट्रपति बने द्वारा बहस के दौरान अविलंब युद्ध विराम करने की मांग सुरक्षा परिषद् से की. अमेरिका को लग गया था कि शक्ति संतुलन अब भारत के पक्ष में है और हो सकता है भारत यह युद्ध जीत जाए. उधर भारत पूर्वी पाक में निर्णायक जीत की और अग्रसर था ही. भारत ने इस प्रस्ताव के पेश होते ही रूस को यह सन्देश भेजा कि वह युद्ध जीतने की स्थिति में हैं और बंगालियों को न्याय दिलाने की इस समय परम आवश्यकता है. सोवियत रूस ने भारत का यह सन्देश प्राप्त होते ही, सुरक्षा परिषद् में दायर अमेरिका के इस प्रस्ताव को वीटो कर दिया और वह प्रस्ताव गिर गया. हालांकि निक्सन ने ब्रेज़नेव से निजी तौर पर प्रस्ताव को वीटो न करने और युद्ध विराम के लिए अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन करने का अनुरोध किया. पर रूस ने मानने से इनकार कर दिया.
3 दिसंबर 1971 को युद्ध शुरू होते ही देश में आपात काल की घोषणा कर दी गयी. देश ने इस आपात स्थिति से निपटने के लिए अद्भुत एकता और सद्भाव का परिचय दिया. भारतीय जन संघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इस अवसर पर कहा कि, " अब एक दल है देश, और एक नेता है, इंदिरा गांधी." पाकिस्तान ने हवाई हमले तेज़ किये तो भारत ने भी जवाबी कार्यवाही बढ़ा दी. इस युद्ध में भारतीय नौसेना का प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा. युद्ध के प्रथम दिन ही, भारतीय विध्वंसक पोत, ' राजपूत ' ने भारी बमबारी कर के पाकिस्तानी पनडुब्बी ' गाज़ी ' को डुबा दिया. 4 दिसंबर से 9 दिसंबर तक भारत ने पाकिस्तान के 10 नोसैनिक पोतों को नष्ट कर दिया या डुबा दिए. साथ ही पाकिस्तान के 12 रिजर्व तेल के भांडार को भी नष्ट कर दिया. यह सब पश्चिमी मोर्चे और सागर में हो रहा था. उधर मुक्ति वाहिनी कदम दर कदम ढाका की और बढ़ ही रही थी. नेफा से अब कोई चीनी खतरा भी नहीं था.
इसी बीच सोवियत सेना के मिलिट्री इंटेलिजेंस के कमांडर जनरल प्योत्रो इवाशुतिन ने सूचना दी, ..
“The Soviet Intelligence has reported that the English operative connection has come nearer to territorial India, water led by an aircraft carrier “Eagle” [On December 10].
ब्रिटेन ने अमेरिका का साथ देने के लिए अपना विमान वाहक पोत, ' ईगल ' को भारत की ओर भेजा. 10 दिसंबर को यह सूचना मिलते ही, हिन्द महासागर में पड़े रूसी बेड़े को भी, रूस ने ' ईगल ' की गतिविधियों पर नज़र रखने और उसका पीछा करने का दायित्व सौंपा. व्लादीमीर क्रुगल्यकोव जो 1970 से 1975 तक पैसीफिक फ्लीट के दसवें ऑपरेटिव बैटल ग्रुप के कमांडर थे , ने अपने संस्मरण में लिखा है...
“I was ordered by the Chief Commander to track the British Navy’s advancement, I positioned our battleships in the Bay of Bengal and watched for the British carrier “Eagle”.
( मुझे ब्रिटिश नेवी की गतिविधियों पर नज़र रखने और ईगल का पीछा करने का आदेश चीफ कमांडर द्वारा सौंपा गया था. इस लिए मैंने अपनी पोत को उस स्थान पर रखा जहां से बंगाल की खाड़ी में ब्रिटिश नेवल शिप ईगल पर नज़र रखी जा सके . )
लेकिन रूसी नौसेना के पास बंगाल की खाड़ी में पर्याप्त पोत, क्रूजर, एंटी शिप मिसाइल और डिस्ट्रॉयर नहीं थे. इन सबको रूस ने अपने पूर्वी नौसैनिक कमांड जो ब्लादीवोस्तक में था से भेजने के लिए कहा.
जब रूस की इन गतिविधियों की जानकारी ब्रिटेन को हुयी तो उसने अपने पोत ईगल को, वापस बुला लिया और उसे मेडागास्कर की और रवाना कर दिया.
उधर जैसे ही अमेरिका को रूस के पोत की मौजूदगी और अन्य रूसी नौसैनिक पोतों और संसाधनों के ब्लादीबोस्टक से चलने की सूचना मिली तो उसने सातवें बेड़े को जो त्रिपोली में था बंगाल की खाड़ी की और रवाना कर दिया. क्यों कि उसका एक पोत ' एंटरप्राइज़ ' बंगाल की खाड़ी में अकेला पड गया था. रूस के नौसैनिक कमांडर वी. क्रुगल्यकोव ने अमेरिकी नौसैनिक बेड़े के त्रिपोली से चलने की खबर अपने सेना प्रमुख दी और उन्होंने अपने सेना प्रमुख से निम्न आदेश प्राप्त किया ...
“ I had obtained the order from the commander-in-chief not to allow the advancement of the American fleet to the military bases of India”
( मैंने अपने कमांडर इन चीफ से यह आदेश प्राप्त कर लिया है कि अमेरिकी बेड़े को किसी भी भारतीय सैन्य बेस की तरफ न बढ़ने दिया जाय. )
आगे क्रुगल्यकोव अपने संस्मरण में कहते हैं ..
" We encircled them and aimed the missiles at the ‘Enterprise’. We had blocked their way and didn’t allow them to head anywhere, neither to Karachi, nor to Chittagong or Dhaka ”.
( हमने ' एंटरप्राइज़ ' को चारों तरफ से घेर लिया है और उसे मिसाइलों से निशाने पर रखा है . उन्हें ऐसा घेर लिया है कि , न तो वह ढाका जा सकते थे और न ही चटगाँव और न कराची. )
लेकिन उस समय उनके पास केवल 3 किलोमीटर तक मार करने वाले ही राकेट थे. अतः उन्हें ऑपरेशन के समय ' एंटरप्राइज़ ' के नज़दीक जाना पड़ सकता था. इसमें खतरा भी था.
इस समस्या का समाधान क्रुगल्यकोव ने कैसे किया, उन्ही के शब्दों में, ...
“The Chief Commander had ordered me to lift the submarines and bring them to the surface so that it can be pictured by the American spy satellites or can be seen by the American Navy!’
( चीफ कमांडर ने मुझे आदेश दिया कि पनडुब्बियों को सागर की सतह पर रखा जाय. ताकि वह खोजी उपग्रहों से देखने पर नौपोतों के बेड़ों के समान लगें )
ऐसा ही किया गया. जितने भी आणविक पांडुब्बियां थी उन्हें सतह पर तैरा दिया गया. और ठीक वही हुआ जो चीफ कमांडर ने सोचा था.
आगे कमांडर कहते हैं..
" Then, we intercepted the American communication. The commander of the Carrier Battle Group was then the counter-admiral Dimon Gordon. He sent the report to the 7th American Fleet Commander: ‘Sir, we are too late. There are Russian nuclear submarines here, and a big collection of battleships’."
( तब हमने अमेरिकी नौसेना का सन्देश इंटरसेप्ट किया तो सुना कि डिमोन गॉर्डोन , जो कैरियर बैटल ग्रुप का एडमिरल था ने सातवें बेड़े को, जो त्रिपोली से चल चुका था के कमांडर को यह संदेश भेजा,
' महोदय हमने बहुत विलम्ब कर दिया है. यहां तो रूसी नाभिकीय पनडुब्बी सहित बड़ी संख्या में युद्ध पोत मौज़ूद हैं. )
अमेरिका ने अपने बेड़े को ' जैसे थे ' कर दिया और आगे बढ़ने का इरादा छोड़ दिया. यह एक सैनिक कमांडर की सूझ बूझ और प्रत्युत्पन्नमति का उत्कृष्ट उदाहरण है. उधर सोवियत रूस ने चीन को फिर धमका दिया था कि उसके नौसेनिक बेड़े को रोकने की कोशिश की गयी तो, वह चीन पर उत्तरी सीमा से हमला कर देगा. चीन शांत बना रहा.
पर इस युद्ध में श्री लंका की भूमिका पाकिस्तान के पक्ष में थी. उसने पाक वायु सेना को ईंधन भरने की सुविधा उपलब्ध कराई थी. क्यों कि पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के बीच पड़ने वाले भारतीय क्षेत्र के ऊपर से सैन्य विमान नहीं उड़ सकते थे. जून 2011 में श्रीलंका में पाक उच्चायुक्त सीमा इलाही बलोच ने लंका पाकिस्तान बिजनेस कौंसिल की बैठक में श्रीलंका का आभार व्यक्त करते हुए कहा था, ..
“We in Pakistan cannot forget the logistical and political support Sri Lanka extended to us in 1971 when it opened its refueling facilities for us,”
युद्ध के दौरान की यह कूटनीतिक गतिविधियाँ थी. पर उधर दोनों मोर्चों पर भारतीय सेना अपने लक्ष्य के प्रति अग्रसर थी.
-vss.
( आगे अभी और है, ... युद्ध का अंत और विजय )
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