Monday, 3 August 2015

सखा भाव - महाभारत के पात्रों के आलोक में / विजय शंकर सिंह..



साल के 365 दिनों में एक दिन मित्रता दिवस को भी समर्पित है. वह दिन है 2 अगस्त का. सुबह से ही शुभकामना सन्देश, ढन ढन कर मोबाइल में आते रहे. कुछ एस एम एस की शक्ल में तो कुछ व्हाट्सएप्प पर और कुछ फेसबुक पर . याद किया जाना कितना अच्छा लगता है. जीवंत होने का अहसास कहीं भीतर तक पैठ जाता है. मित्र व्यवस्था  सभ्यता के प्रारम्भ से ही रही होगी. जब मनुष्य ने सामाजिक जीवन जीना शुरू किया होगा तो मित्र भी बनें होंगे. सूर्य आदि मित्र है. सूर्य का एक नाम मित्र भी है. रात के अंधकार के बाद जो प्रकाशित करता है, आशा का विहान दिखाता है ,  वह मित्र ही तो कहलायेगा.

आज आप को मैं महाभारत के युग में ले चलता हूँ. कहा जाता है कि संसार में जो कुछ भी है वह इस में है, और जो इसमें नहीं है वह संसार में भी नहीं है. मानवीय संबंधों, और भावनाओं का यह एक अद्भुत विश्वकोष है यह. भारतीय अवतार परंपरा का सबसे आकर्षक और पूर्णावतार श्री कृष्ण की यह महागाथा भी है. कृष्ण परम सखा थे. कृष्ण का राधा के साथ, अर्जुन के साथ, सुदामा के साथ, और द्रौपदी के साथ जो सखा भाव था वह अप्रतिम है. महाभारत में दो मित्र युगल और भी हैं. द्रुपद और द्रोणाचार्य, तथा दुर्योधन और कर्ण. द्रुपद और द्रोणाचार्य कालान्तर में एक दुसरे के शत्रु भी बने. इसी सखा भाव पर आधारित  आज का यह लेख है.

राधा, कौन थी, कृष्ण के जीवन में वह कब और कैसे आईं , इसका उल्लेख न तो श्रीमद्भागवत में है, और न ही महाभारत में. गोपियों के साथ मित्रता, रास , आदि के विवरण भागवत में तो है, पर राधा का वहाँ कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन राधा कृष्ण युग्म दिल और दिमाग में इतना पैठ गया है कि इस विषय पर ऐतिहासिकता बे मानी हो गयी है. भागवत में उद्धव गोपी संवाद मिलता है और गोपियों से उनकी ज्ञान और प्रेम में दिलचस्प और ज्ञानवर्धक नोक झोंक भी हुयी है. पर राधा का जो रूप रीतिकालीन कवियों की लेखनी से उभरा उसका लेश मात्र भी साक्ष्य न तो भागवत में मिलता है और न ही महाभारत में. फिर राधा आ कहाँ से गयी ? राधा पर सबसे पहले कृष्ण सखी के रूप में ग्यारहवी सदी के कवि जयदेव ने लिखा. जयदेव की यह कल्पना थी या उन्होंने इसे कहीं से लिया है , यह मैं बता नहीं पाउंगा. राधा, कृष्ण की अंतरंग सखी थी, ऐसी धारणा जयदेव से शुरू हुयी और बिहारी से होते हुए रीतिकाल के रसिक काव्य काल में छा गयी. रीतिकाल में वह कृष्ण की केलि सखी भी हो गयीं. जो भी हो, परम्पराएँ और किंवदंतियां इतिहास तो नहीं होतीं है, पर इतिहास से अधिक प्रभाव डालती है. शुष्क ऐतिहासिक वर्णन की तुलना में किस्से कहानियों और रस पूर्ण शैली में वर्णित कथाएं अधिक बांधती है. राधा, कृष्ण की भाव सखी थी. यह अखंडित युग्म प्रेम का अद्भुत प्रतीक है.

सुदामा , कृष्ण के सहपाठी थे. कंस वध के पश्चात , कृष्ण नियमित शिक्षा के लिए गुरु सांदीपनि के आश्रम अवन्ति में पढ़ने गए. उनके साथ उनके अग्रज बलिराम भी थे. उसी गुरुकुल में जो कक्ष उन्हें रहने के लिए आवंटित हुआ था, उसमे इन दोनों के अतिरिक्त एक कृशकाय किशोर और आया , वह सुदामा था. एक विपन्न ब्राह्मण परिवार का वह किशोर कृष्ण का अभिन्न सखा  बन गया. गुरुकुल जीवन की समाप्ति के बाद जब जीवन के एक अंक का पटाक्षेप हो जाता है, और जीवन का प्रातः पार कर जब हम सूर्य की तपिश में आते हैं तो यह जीवन का एक परीक्षण काल होता है. गुरुकुल के बाद सुदामा अपने गाँव चले गए और कृष्ण द्वारिका. ऐसे ही किसी समय ऐश्वर्ययुक्त द्वारिकाधीश के द्वार पर सुदामा का अचानक आगमन होता है. जो कथा इन पुस्तकों में मिलती है, उसके अनुसार जब सुदामा द्वारिका पहुंचे तो कृष्ण कहीं बाहर थे. जब वह लौटे तो सुदामा से उनकी भेंट हुयी, सुदामा कितने ऊहापोह और संकोच के भाव में रहे होंगे इसकी कल्पना आप कर सकते हैं. पर कृष्ण का सुदामा से मिलन संभवतः मित्रता का एक अप्रतिम उदाहरण है. सुदामा द्वारा लाये हुए चिउड़ा और कृष्ण द्वारा उन्हें अत्यंत आत्मीय सम्मान देने की कथा सर्वविदित है.

अर्जुन , पञ्च पांडवों में सबसे अधिक कृष्ण को प्रिय थे. अजेय धनुर्धर और कृष्ण के परम सखा. कृष्ण ने अपनी ही बहन सुभद्रा का हरण अर्जुन से करा कर उससे विवाह करा दिया. जब कि बलिराम सुभद्रा का  विवाह , दुर्योधन से करना चाहते थे. लेकिन कृष्ण इस से सहमत नहीं थे. महाभारत के महासमर में कृष्ण ने अर्जुन का सारथ्य किया. सारथ्य ही नहीं अपितु जब एक बार लगा कि बिना युद्ध के ही पांडव सब कुछ छोड़ कर चल देंगे, तो यह अनर्थ कृष्ण ने भांप लिया था. भ्रम और ऊहापोह में पड़े अर्जुन को उन्होंने गीता का उपदेश दिया और जीवन की सार्थकता, निरर्थकता, कर्म का दर्शन और मोह के निराकरण का एक अद्भुत पाठ पढ़ाया. कृष्ण के विराट रूप का दर्शन केवल अर्जुन ने किया, और किसी ने नहीं. यह सखा भाव था. महाभारत में अनेक अवसर आये हैं जब कृष्ण एक मित्र के समान अर्जुन को परामर्श देते हुए पाये गए. भीष्म ने जब, पॉण्डव सेना को तहस नहस कर दिया था, और लगा कि युद्ध का निर्णय आज ही हो जाएगा तो कृष्ण ने टूटे रथचक्र को उठा कर अपनी शस्त्र न उठाने के वचन को भंग कर भीष्म को शांत किया. जब अभिमन्यु को मार डाला गया और अर्जुन ने जयद्रथ वध की जब प्रतिज्ञा की और दुसरे दिन जब जयद्रथ नहीं दिखा और शाम होने को आयी तो इस कठिन समय में कृष्ण ही सामने आये. यह उन्ही की माया थी कि जयद्रथ लाख छुपने के बाद भी अर्जुन द्वारा मारा गया. ऐसा ही भ्रम मुक्त उन्होंने कर्ण के रथ का पहिया फंस जाने के बाद  , निःशस्त्र कर्ण को मारने के लिए अर्जुन को समझाया था. युद्ध और प्रेम में सब जायज़ होता है. कृष्ण और अर्जुन की यह मित्रता सखा भाव की पराकाष्ठा है.

द्रौपदी को कृष्ण ने सखी कहा है. पांचाल राजा द्रुपद की पुत्री यज्ञकुण्ड से अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उत्पन्न हुयी थी. एक चुनौती भरे स्वयंवर में, जिसमें भूमि में स्थित कुण्ड के  जल में पड़ रहे प्रतिविम्ब को देख कर ऊपर चक्रमण करते हुए मत्स्य नेत्र को शर संधान से बींधना था. यह लक्ष्य भेद कर अर्जुन ने द्रौपदी को प्राप्त किया था।  फिर माता के एक आदेश से वह पाँचों भाइयों की समवेत पत्नी बनी. कौरवों और पांडवों में जो द्यूत कर्म हुआ था, उस में युधिस्ठिर सभी भाइयों सहित सब कुछ हार गया था. भरी सभा में दुर्योधन के आदेश पर दुःशासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया. किसी भी महिला के लिए इस से कठिन समय उसके जीवन में नहीं आ सकता है , जैसा कि उस समय भरी सभा में, एक वस्त्रा, रजस्वला द्रौपदी के जीवन में आया था. धृतराष्ट्र तो अँधा था ही, गांधारी स्वतः ही अंधी हो गयी थी , पर भीष्म और द्रोण सहित पूरी राजसभा का विवेक अँधा हो गया था. जगत विख्यात अर्जुन, और साठ हज़ार हाथियों के बल समेटे भीम सहित धर्मराज और अन्य भाई कापुरुष बने बैठे रहे, तब काम आया मित्र. कृष्ण। कृष्ण ने कैसे उस बिकट समय में अपने सखी की लाज रखी यह कथा सर्वविदित है. इस घटना का एक प्रतीकात्मक सन्देश है कि जब सभी, अपने सबसे नज़दीकी रक्त सम्बन्ध भी मुंह फेर लेते हैं या अकर्मण्य या निरुपाय हो जाते हैं तो केवल मित्र ही उस समय काम आते है. महिला हो या पुरुष,मित्र , मित्र है. वह धर्म , जाति, उम्र, क्षेत्र, और लिंग से परे हैं. वह किसी रक्त सम्बन्ध से नहीं जुड़ता वह जुड़ता है आत्मा के सम्बन्ध से. यही सखा भाव है.

सहपाठी की मित्रता बड़ी आत्मीय होती है. कृष्ण और सुदामा की दोस्ती इसका एक उदाहरण है. एक और सहपाठी की मित्रता का उल्लेख महाभारत में मिलता है. वह मित्रता है पांचाल राज द्रुपद, और गुरु द्रोणाचार्य की मित्रता. दोनों साथ पढ़ते थे. साथ पढ़ते समय दोनों की मित्रता बहुत प्रगाढ़ थी. पर राजा को तो राजा ही बनना था. द्रुपद बन गए पांचाल नरेश और द्रोणाचार्य आजीविका में भटकते हुए एक विपन्न पर अत्यंत प्रतिभाशाली ब्राह्मण. एक बार द्रोण ने सोचा, कि वह जीवन यापन के लिए पांचाल नरेश के पास जाएँ , आखिर वह उनके सहपाठी है और बहुत अच्छे मित्र भी. द्रोण कॉम्पिलय , पांचाल की राजधानी पहुंचे. सोचा सहपाठी है, मित्र है, राजा है, सब दुःख दूर हो जाएगा. पर द्रुपद ने पहचाना तो , पर सखा का कोई सम्मान करना तो दूर रहा, उलटे उस ने द्रोण को अपमानित किया. द्रोण को ब्राह्मणोचित सम्मान तो मिला पर जिस सखा सम्मान की आस में वह गए थे, वह नहीं मिला. दुखी, क्रोधित, क्षुब्ध द्रोण वापस आये और वह कुरु राजकुमारों के गुरु नियुक्त हुए. शिक्षा के बाद जब गुरुदक्षिणा का अवसर आया तो, द्रोण ने द्रुपद के गर्व भंग की दक्षिणा माँगी. अर्जुन ने द्रुपद पर आक्रमण कर उसे पराजित किया और इस प्रकार द्रोण का प्रतिशोध और उनकी गुरुदक्षिणा पूरी हुयी. पर घृणा और प्रतिशोध तो रक्तबीज हैं. गुणात्मक रूप से वृद्धि करते रहते ही है. द्रोण के इस प्रतिशोध का प्रतिशोध लिया, द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न ने, जब वह महा समर के पांडवों का सेनापति बना और , युधिष्ठिर के अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो कह देने से  , जब द्रोण पुत्र शोक में अपने शस्त्र रख कर शिथिल और उदास , रथ में बैठ गए, तब द्रोण का शिर उनकी जटा पकड़ कर काट लिया था।  यह था प्रतिशोध का प्रतिशोध.  सखा भाव का एक रूप यह भी है. जिसका अंत प्रतिशोध और युद्ध के रूप में हुआ.

कर्ण था तो ज्येष्ठ कौन्तेय, पर सूत पुत्र के रूप में राधेय के नाम से जाना गया. दुर्योधन ने ईर्ष्या के वशीभूत उसे अर्जुन के समक्ष खड़ा करने के लिए, अंग का राजा बनाया. सूर्य पुत्र भी इसे कहा गया है. अंग , आधुनिक भागलपुर है. महाभारत के हर मोड़ पर दुर्योधन के हर कृत्य दुष्कृत्य में कर्ण उसके साथ था. दुर्योधन तो उसे महासमर में अपना सेनापति बनाना चाहता था, पर भीष्म ने सूत पुत्र के नेतृत्व में लड़ने से इनकार कर दिया था. कर्ण ने चिढ कर भीष्म के युद्ध में बने रहने तक , युद्ध से ही विरत रहने का निर्णय किया. यही कर्ण अर्जुन द्वारा मारा गया. कर्ण ने द्रौपदी को भरी सभा में वेश्या कहा था. यह उसका प्रतिशोध था. पर जब तक कर्ण जीवित रहा उसने दुर्योधन का साथ दिया. काश उसने भी दुर्योधन को न्याय पथ पर चल कर पांडवों को उनका अधिकार दिलाने की बात की होती तो यह सच में शुभचिंतक मित्रता होती. पर उसने ऐसा नहीं किया. हो सकता था, कर्ण का जो प्रभाव दुर्योधन पर था, उस से संभवतः दुर्योधन कुछ सुधरा होता.

मैंने महाभारत के आलोक में मित्रता और सखा भाव की व्याख्या करने का प्रयास किया है. मित्र , सखा, दार्शनिक, और मार्गदर्शक भी है. जीवन की हर भूमिका में, हर मोड़ पर , वह अँधेरे में हाँथ में लिए दीपक के समान है. ऐसा दीपक आप सब का पथ आलोकित करता रहे. शुभकामनाएं !!.
( विजय शंकर सिंह )

No comments:

Post a Comment