Saturday 15 August 2015

एक कविता, अन्धकार में पटरी से गुज़रती रेल. / विजय शंकर सिंह



ज़िंदगी खूबसूरत है, बदसूरत,
ज़िंदगी बस, कागज़ की तरह है.
जिस पर आड़े तिरछे पेंसिल से, कुछ स्केच बने हैं
कभी खुद की समझ में आते हैं ,
तो, कभी औरों की समझ से हम,
खुद को समझने का ढोंग करते हैं !

सुनो,
देखा है, तुमने, मॉडर्न पेंटिंग्स की,
कोई नुमाईश .
कितने बड़े बड़े पोट्रेट दिखते हैं.
कभी कोई चित्र बूझ पड़ता है , 
तो हम खुद को कितना पारखी समझ बैठते हैं, 
तो कभी, जब
पूरी नुमाइश अबूझ सी लगने लगती है. 
और हम, फिर चकरघिन्नी की तरह, 
भटकते रह जाते हैं.

पर भीड़ में हम भी, 
सब की तरह , उन्ही चित्रों को देख कर,
खुश होते हैं. या दिखने का ढोंग करते हैं 
किसी महंगे होटल के खूबसूरत, 
रिसेप्शनिस्ट की मुस्कान की तरह !

ज़िंदगी भी मॉडर्न आर्ट की नुमाइश सी है,
जब भूले से ही, 
कभी, स्केच में पड़ जाता है,
कोई मनचाहा रंग,
बोल पड़ती है लकीरें, 
नहीं तो, खामोश गुज़र जाती है. ज़िंदगी, 
अन्धकार में पटरी से गुजरती रेल की तरह !!
( विजय शंकर सिंह )

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