Sunday 2 August 2015

राजनीतिक आक़ा और नौकरशाही - एक टिप्पणी / विजय शंकर सिंह


सूर्य प्रताप सिंह एक  आई ए एस अधिकारी हैं और वह उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव के पद पर नियुक्त थे। कल उन को पद से हटा कर प्रतीक्षा सूची में रख दिया गया. यह समाचार न तो मेरे लिए अप्रत्याशित है न ही एस पी सर के लिए ही है . प्रतीक्षा सूची कोई पद स्थान नहीं है बस कह दिया जाता है कि थोड़े दिन बाद आप को एडजस्ट किया जाएगा. मैं भी कभी कुछ दिन प्रतीक्षा सूची में रह चुका हूँ. अचानक जब सरकार बौखला जाती है और सत्ता शीर्ष से तत्काल हटाने का शाही फरमान जारी होता है तो फरमान जारी करने वाले नए नए स्थान सुझाते हैं फिर यह भी सुझाते है कि अभी तो इस बवाल को टाला जाय, फिर अगली चेन में देखेंगे. चेन माने स्थानातरित अधिकारियों की सूची. हम उसे आपस में चेन कहते है. अतः जैसे ही कोई फुसफुसाता था कि चेन बन रही है, हम सतर्क हो जाते थे, और फुसफुसाने वाले शख्स से बेहद आत्मीयता से बात करने लगते थे. ताकि कुछ कच्ची पक्की बात पता चल सके. तो एस पी सर, अब प्रतीक्षारत हैं, उन्ही के शब्दों में अब सड़क पर आ गए है.

सरकार तो किसी का भी तबादला कर सकती है. औचित्य अनौचित्य की तो बात ही बे मानी है. पर इनके तबादला और जांच के बारे में कयास तो तभी उठने लगे थे जब उन्होंने सड़क पर उतर कर सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. कुछ दिनों पहले अमिताभ ठाकुर निलंबित हुए और उनके खिलाफ सतर्कता जांच शुरू हुयी , वह अपने विरूद्ध जांच में कुछ कानूनी मुद्दों को ले कर केंद्रीय प्रशासनिक प्राधिकरण में गए है. वहाँ क्या होता है, यह तो समय ही बताएगा. एस पी सिंह ने भी सरकार के कुछ नीतियों की आलोचना की थी और वह भी निशाने पर आ गए. इन्होंने  वी आर एस के लिए सरकार से अनुरोध किया. पर सरकार इसे नहीं मानी. सरकार जब प्रतिशोध की मानसिकता या सबक सिखाने की मानसिकता से प्रेरित हो जाती है , वह साफ़ साफ़ पूर्वाग्रह पूर्ण दिखने लगती है. आगे क्या होता है  , यह देखना दिलचस्प होगा.

लेकिन एक बात स्पष्ट है, सरकारों को कभी सत्यनिष्ठ, बेबाक , और नियम क़ायदे से काम करने वाला अधिकारी रास नहीं आता है. यहाँ निष्ठा का अर्थ और तात्पर्य संविधान, विधान, प्राविधान आदि नहीं है, पर निष्ठा का तात्पर्य है सत्ता शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के प्रति निष्ठा और उसकी हर समस्या और आवश्यकता का समाधान करने की तत्परता . कुछ अफसर किसी विशेष राज में , महत्वपूर्ण पद पर आसीन रहते है, तो कुछ अफसर किसी विशेष राज में अज्ञातवास में धकेल दिए जाते हैं. यह एक प्रकार की प्रतिबद्ध नौकरशाही  विकास कहा जायेगा. पर कुछ ऐसे सदाबहार होते हैं जो राज किसी का भी हो, वह रहते हैं गुलशन में ही. उनकी कौन सी अदा धुर विरोधी राजनीतिक आक़ाओं को भी पसंद आ जाती है, कि वह कालातीत हो जाते है. और गणेश परिक्रमा कर के प्रथम पूज्य बने रहते हैं ! यह तो आक़ागण ही बता सकते हैं.

बात उत्तर प्रदेश सरकार की ही नहीं बल्कि यह सत्ता की मूल मानसिकता है. अधिकार सुख की मानसिकता है यह.  हरियाणा में अशोक खेमका, दिल्ली के एम्स में संजीव चतुर्वेदी. आदि अनेक अधिकारी हैं जो हर सरकार की आँख में किरकिरी की तरह चुभते हैं. जब भूपेंद्र सिंह हुडा हरियाणा की कांग्रेसी सरकार के मुख्य मंत्री थे, और अशोक खेमका ने जब रॉबर्ट वाड्रा के भूमि सौदों में अनियमितताओं का मामला पकड़ा था तो भाजपा जो उस समय मुख्य विपक्षी दल था ने अशोक खेमका के उत्पीड़न की बात बहुत जोर शोर से उठायी. पर जब हरियाणा में भाजपा खुद सत्ता में आयी तो, वह भी अशोक खेमका को पचा नहीं पायी. इसी प्रकार संजीव चतुर्वेदी, जिन्हे अभी हाल ही में मैगसेसे पुरस्कार से पुरस्कृत हुए हैं , और हरियाणा कैडर के ही आई एफ एस अधिकारी तथा इस समय एम्स में मुख्य सतर्कता अधिकारी हैं , को भी वहाँ से हटाने का निर्णय इसी भाजपा सरकार ने किया जो सत्ता में आने के पूर्व भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस का वादा करते नहीं थकती थी. पर अब उसकी भी बोलती बंद है. संजीव , स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा को इस लिए नहीं  पचे कि उन्होंने जे पी नड्डा की सिफारिश सुनने से इनकार कर दिया था. ऐसे अनेक अधिकारी हैं जो कतिपय कारणों से सुर्ख़ियों में नहीं आना चाहते पर उनकी घुटन अगर आप मिलें तो साफ़ नज़र आती है.

एस पी सिंह के स्थान पर प्रदीप शुक्ल को लाया गया है. वह एन एच आर एम घोटाले के आरोपी भी हैं और कुछ महीने कारागार में बिताने के बाद अब जमानत पर हैं. इस पोस्टिंग को भले सरकार रूटीन और जनहित में की गयी पोस्टिंग कहे, पर इस से यही सन्देश जाएगा कि सरकार को अच्छी क्षवि के अधिकारी मुश्किल से ही रास आते है. हाँ कोई समस्या सामने आये तो वह ज़रूर कोने अँतरे से ढूंढ कर निकाले जाते हैं पर समस्या का समाधान होते ही वह फिर झाड़ पोंछ कर ' जैसे थे ' हो जाते हैं. एक ज्वलंत प्रकरण और है. एक अभियंता हैं यादव सिंह यादव . जो नोएडा में तैनात थे. उन पर 1000 करोड़ के घोटाले का आरोप है. यह हर मौसम में जीवित रहने वाला जीव है. चाहे सपा रहे या बसपा. धन का तो सच में कोई धर्म और जाति नहीं होती है. सभी देव समान रूप से इसे स्वीकार करते हैं. यह आदमी सभी राजनीतिक आक़ाओं और कुछ नौकरशाहों को भी अत्यंत समाजवादी दृष्टिकोण से उपकृत करता रहा है. हाई कोर्ट ने इसी यादव सिंह यादव के विरुद्ध सी बी आई जांच का आदेश दिया है. सुना जा रहा है अब उत्तर प्रदेश सरकार हाई कोर्ट के आदेश के इसी आदेश के सुप्रीम कोर्ट जाने की सोच रही है. क्यों ?? उसे क्या हमदर्दी है, इस आदमी से ? लेकिन नहीं।  हमदर्दी राजनीतिक आक़ाओं को किसी से नहीं होती है. उन्हें भय है कि कहीं ऐसा न हो , कि यादव सिंह यादव सब उगल न दें. और उस वमन में अधपके नेताओ के नाम तो आएंगे ही. सी बी आई की जांच के दौरान अगर व्यापमं और एन एच आर एम की तर्ज़ पर यादव सिंह यादव की जांच भी कुछ बलि लेती है तो, हैरान मत होइएगा.

सरकार के इन कृत्यों का नौकरशाही के मनोबल पर बहुत असर पड़ता है.वह असर व्यक्तिगत बात चीत और वह भी किसी आत्मीय के साथ हो रही हो तो ज़रूर छलक जाती है और उन्हें अंदर ही अंदर छीजती भी रहती है. नौकर शाही इस से सबसे बड़ा सबक यह लेती है कि वह अपने अधिकतर निर्णय में राजनीतिक आक़ाओं की इच्छा और अनिच्छा को तरजीह देने लगती है. ऐसी दशा में नियमानुसार कार्य का संपन्न होना मुश्किल हो जाता है. यह बात मैं उत्तर प्रदेश के ही सन्दर्भ में नहीं कह रहा हूँ. चाहे कोई भी पार्टी हो, सबका चरित्र सत्ता और विपक्ष में अलग अलग होता है. सत्ता में वह अहंकारी, प्रमाद पूर्ण , कच्छप गति युक्त,  यथास्थितिवादी, और बहाने बाज़ी से भरी हुयी शैली से संपन्न होता है. पर जब वही सत्ता पक्ष ,सदन में बायीं ओर बैठने लगता है, सर्वज्ञ, क्रांतिकारी, भ्रष्टाचार विरोधी और गैर जिम्मेदार हो जाता है. आप अभी की ही स्थिति देख लें. 

ऐसा नहीं है कि नौकरशाही बिलकुल साफ़ पाक है .बल्कि यह बहुत कुछ अपने उद्देश्य और विधि विधानों से बहक गयी है . पर इस भ्रष्ट होती नौकरशाही के खिलाफ राजनीतिक आक़ा कोई कार्यवाही भी नहीं करते हैं . और कार्यवाही करते भी हैं तो वह कार्यवाही सुधारात्मक कम , प्रतिशोधात्मक अधिक होती है . जब जांच , और कार्यवाहियां भी जाति , धर्म और राजनीतिक समीकरणों के आधार पर होंगी तो इसका जो सन्देश नौकरशाही में जाएगा वह कैसा होगा , अनुमान लगाया जा सकता है . कभी कभी यह कार्यवाहियां , अपने पक्ष में लाने के लिए भी एक सन्देश के रूप में ही की जाती हैं . पर ऊपर जिनके नाम मैंने गिनाये हैं वे संख्या में बहुत कम हैं पर वह एक प्रवित्ति की ओर संकेत भी करते हैं कि शांत सागर के भीतर कुछ न कुछ असंतोष और आक्रोश है . गनीमत है यह विद्रोही प्रवित्ति पुलिस जैसे अनुशासन पर आधारित विभाग में सतह पर नहीं है . लेकिन आक्रोश का पूर्ण अभाव है यह कहना खुद को ही धोखे में रखना होगा . राजनीतिक आकाओं को इस स्थिति को समझना होगा। सवाल सिर्फ इन चंद अधिकारियों का नहीं है , सवाल पूरी व्यवस्था का है। चूँकि राजनीतिक सत्ता सर्वोपरि है अतः उसे ही इसका समाधान बिना किसी पूर्वाग्रह के ढूंढना होगा।


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