Sunday, 9 August 2015

पाक प्रायोजित आतंकवाद - एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन - 2 / विजय शंकर सिंह



1948 में जवाहर लाल नेहरू द्वारा कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना और जन मत संग्रह का प्रस्ताव रखना एक बड़ी भूल थी.  अतीत में की गयी गलतियों का परिणाम भविष्य कैसे भुगतता हैयह इस घटना से सीखा जा सकता है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि अगर युद्ध विराम न हुआ होता तो शेष भूभाग भी वापस ले लिया गया होतापर इस पर एक तर्क यह भी हैकि सेना इतनी लंबी लड़ाई के  तो साधनिक रूप से तैयार थी और  ही मानसिक रूप सेआज़ादी का मिलनापाक का अचानक आक्रमणमहाराजा हरी सिंह का ढुलमुलपन भरा रवैयेएक नवजात राष्ट्र के समक्ष पहाड़ सी समस्याएं , पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों का रेलाहिन्दू मुस्लिम वैमनस्यता और आपसी विश्वास के लुप्त हो जाने के कारण हो रहे देश व्यापी दंगेयह सब इतने जटिल और गड्डमड्ड हो गए थे कि इस नयी समस्या का विवाद रहित समाधान नेहरू नहीं ढूंढ पाये.  पर आज जो भी तर्क उनके इस कदम के पक्ष में लोग देना चाहें दें या उनकी निंदा करेंपर उस लम्हे की खताहम अब तक भुगत रहे हैं। संभवतः ऐसे ही अनुत्तरित और असहज के लिए नियति की खोज हुयी होगी। 

संयुक्त राष्ट्र में संदर्भित होते ही यह प्रकरण , द्विपक्षीय नहीं रह गयायह अंतर्राष्ट्रीय हो गयापर बाद में भारत सरकार ने अपनी कूटनीतिक कुशलता और सदाशयता से इस प्रकरण को अंतर्राष्ट्रीय नहीं बनने दियायह द्विपक्षीय ही कहा जाता रहा , और आज भी द्विपक्षीय ही है. 1973 में इंदिरा - भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते में यह मान लिया गया कि यह मामला द्विपक्षीय ही रूप से बिना किसी तीसरे राष्ट्र के हस्तक्षेप के ही हल किया जाएगा.  इस समझौते की पाकिस्तान में  तक निंदा भी होती हैमहाराजा हरी सिंह द्वारा हस्ताक्षर किये जाते हीकश्मीर इंडीयन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के प्राविधानों के अनुसार भारत का अभिन्न अंग बन गयायह एक्ट दोनों ही राष्ट्र , भारत और पाकिस्तान द्वारा स्वीकार किया गया थाजैसे ही यह अधिनियम लागू हुआ और 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान तथा 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ , वैसे ही सारी देसी रियासतें स्वतंत्र और सम्प्रभु हो गयींकश्मीर भी इसी प्राविधान के अनुसार स्वतंत्र और सम्प्रभु राज्य हो गयामहाराजा हरी सिंह इसके राजा थे हीअब इन रियासतों को तय करना था कि वे भारत में मिलती हैं या पाकिस्तान में या स्वतंत्र और स्वयंभू रहती है. 15 अगस्त 1947 से हरी सिंह के विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने तक कश्मीर एक स्वतंत्र और सम्प्रभु राज्य बना रहापर विलय पत्र पर हस्ताक्षर होते हीयह भारत का अभिन्न अंग बन गया.  नेहरू ने जन मत संग्रह का जो प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में दिया थावह इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के प्राविधानों के अनुसार भी गलत था.  इस अधिनियम के अनुसार उस रियासत के राजा को ही इस बात का निर्णय करना है कि वह भारत में सम्मिलित होगा या पाकिस्तान में या सम्प्रभु रहेगा.वहाँ की जनता की इच्छा जानने का  तो कोई औचित्य थाऔर  ही कोई प्राविधान.  सुरक्षा परिषद् में, 4 फरवरी 1948 कोसंयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि वारेन ऑस्टिन् ने इस विषय पर कहा कि,--
जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय होते हीजम्मू कश्मीर का पूरा राज्य जो महाराजा के राज्य क्षेत्र में थाभारत में स्वतः सम्मिलित हो गया. "इसके अतिरिक्त 15 सितम्बर 1950 को सुरक्षा परिषद द्वारा गठित आयोग के जस्टिस ओवेन डिक्सन जो आस्ट्रेलिया के थे ने सुरक्षा परिषद को जो अपनी रपट दी थीउसमें उन्होंने साफ़ साफ़ लिखा था कि --
पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर पर हमला कर के अंतर्राष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किया हैनेहरू का यह सुझाव कि वहाँ की जनता की भी राय ले ली जाय ,  केवल अवैधानिक है बल्कि अनुचित भीयह पूरा क्षेत्र भारत का विधि सम्मत क्षेत्र हैफिर भी अगर जन मत संग्रह कराया ही जाना है तोसबसे पहले पाक से घुसपैठ किये हुए एक एक व्यक्ति को राज्य के बाहर निकाल कर ही कराया जाना चाहिए. "लेकिन इसका क्रियान्वयन  कदापि संभव नहीं था.  घुसपैठिये इतनी अधिक संख्या में थे कि संयुक्त राष्ट्र का यह निर्देश माना जाना संभव भी नहीं था.  इस कारण जन मत संग्रह के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त पूरी ही नहीं की जा सकीजन मत संग्रह के प्रस्ताव का इस प्रकार अंत हुआ. नेहरू को संभवतः यह विश्वास था कि कश्मीर की जनता भारत के पक्ष में ही वोट देगी। 

इस समय जम्मू और कश्मीर मूल रियासत  के कुल तीन भूभाग हैभारत के नियंत्रण में 45 प्रतिशत , पाकिस्तान के नियंत्रण में 35 प्रतिशत और 20 प्रतिशत चीन के पास हैचीन के नियंत्रण में अक्साई चिन का 35,000 वर्ग किलोमीटर  क्षेत्र है जो 1962 में उसने हमला कर के हथियाया है. 5,000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र उसे पाकिस्तान ने बाल्टिस्तान के क्षेत्र में से दिया हैजो चीन और पाकिस्तान के बीच मार्च 1963 में हुयी संधि के दौरान चीन को सौंपा गया थाभारतीय कश्मीर के मुख्य रूप से तीन क्षेत्र हैंकश्मीर घाटी,  लदाखऔर जम्मूधार्मिक जन संख्या के अनुसार कश्मीर में मुस्लिमलदाख में बौद्ध और जम्मू में हिन्दू आबादी बहुलता से है.  कश्मीर के पूरे राज्य में  170 किलोमीटर लंबी घाटी सबसे सुन्दर और सरसब्ज़ भू भाग है। श्रीनगर इसी भू भाग में है। पाकिस्तान की नज़र इसी पर हैयह जम्मू कश्मीर के पूरे क्षेत्रफल का मात्र 9 प्रतिशत हैइसी के सौंदर्य पर रीझ कर कभी जहांगीर ने कहा थाकि
गर फ़िरदौस बर रू  ज़मीं अस्त
हमीं अस्तहमीं अस्तहमीं अस्त !
धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है  यहीं है , यहीं है ! )
इसी फ़िरदौस के लालच में पाकिस्तान के साथ भारत के तीन युद्ध हुये. चौथा युद्ध कारगिल कोई घोषित युद्ध नहीं था,  पर किसी युद्ध से कम जन धन की हानि इसमें भी नहीं हुयी थीपहला युद्ध जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है 1947 - 48 में,  दूसरा युद्ध 1965 में और तीसरा और सबसे अधिक प्रभावी युद्ध 1971 में हुआ था. 1999 में कारगिल में घुसपैठ हुयी थीयह घुसपैठ अगर सफल हो गयी होती तो हम लदाख को भी खो सकते थेक्यों कि श्रीनगर लेह राजमार्ग के कब्ज़े में आते ही लदाख का कश्मीर के मुख्य भाग से संपर्क बाधित हो जाताइस युद्ध में  भारतीय सेना के अदम्य शौर्य से कब्ज़ा किया गया इलाक़ा पुनः खाली करा लिया गया. 1965 के युद्ध के समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान थे और भारत के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री थेदो सप्ताह चले इस युद्ध ने पाकिस्तान को बहुत कडा सबक सिखा दियाइस युद्ध के बारे में एक रोचक   किस्सा बहुत ही चर्चित रहाजनरल अयूब ने 1965 के युद्ध के शुरुआती दौर में  मज़ाक में कहा कि
"
वह सुबह लाहौर से चल कर नाश्ता अमृतसर में और डिनर दिल्ली में करेंगे. "इस पर शास्त्री जी ने अत्यंत कुशल हाज़िर जवाबी का परिचय देते हुए मज़ाक का उत्तर युद्ध जीत लेने पर मज़ाक में ही यह दिया,
अयूब साहब के अमृतसर में नाश्ता करने और दिल्ली में डिनर करने की इच्छा को देखते हुएहम ने सोचा कि उन्हें लाहौर से ही क्यों  साथ ले लिया जाय."यह मज़ाक थापर सच भी यही था कि भारतीय सेना लाहौर से कुछ ही दूर थीजब कि युद्ध विराम हो गया था.
1962 में हुए चीन के हमले में भारत पराजित हुआ थाचीन जैसे आया था वैसे ही चला भी गया थापर छोड़ गया थाभारत के लिए एक सबक.  वह सबक थाशान्ति और अहिंसा कहने सुनने में बहुत अच्छे लगते हैंपर राज्य पाने और बनाये रखने के लिए युद्ध अनिवार्य है.  चीन के साथ भारत की कोई रार भी नहीं था. जो खटास आयी उसका मूल कारण तिब्बत और दलाई लामा को राजनीतिक शरण थी।  पर वह युद्ध एक वेकिंग बेल थीउस युद्ध में कब्ज़ा की गयी बहुत सी ज़मीन अभी भी चीन के कब्ज़े में है.जो कश्मीर और पूर्वोत्तर भाग में आज भी है . 1962 से 1965 के बीच बहुत अधिक काल नहीं बीता थासिर्फ तीन साल ही तो बीते थे।   इन्ही तीन सालों की अवधि में सेना ने अपने मनोबल और सामर्थ्य से 1965 का पाक युद्ध जीत कर विश्व के सामरिक विशेषज्ञों को चमत्कृत कर दिया.  अकेले एक हवलदार अब्दुल हमीद ने तीन पैंटन टैंकों को नष्ट कर दिया था और चौथे टैंक को नष्ट करने के प्रयास में वह शहीद हो गएउन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया थायह वीरता की एक लोमहर्षक गाथा है.  पाक इन युद्धों में हुयी अपनी हार को  पचा नहीं पायावह इस पराजय से घायल सांप की तरह बदला लेने की फ़िराक में थाकि इसी बीच 1971 के युद्ध में उसका अंग भंग ही हो गया.

उधर पाकिस्तान में भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं थापाकिस्तान के जन्म का एक ही आधार थाइस्लाम.  इस आधार पर एक सम्प्रभु राष्ट्र की मांग करने वाले लोगों ने यह तथ्य जान बूझ कर भुला दिया कि धार्मिक आधार पर एक राष्ट्र का गठन हो ही नहीं सकतापूरा यूरोप ईसाई हैपर यूरोप का इतिहास यूरोपीय राष्ट्रों के युद्धों से भरा पड़ा हैचीन और जापान बौद्ध मतावलंबी हैं पर दोनों में कभी नहीं पटीयहां तक कि दोनों में युद्ध भी हुए हैंइराक़ और ईरान , खुद पाकिस्तान और अफगानिस्तानसभी इस्लामिक राष्ट्र हैं पर लंबे समय तक युद्ध में एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहे हैंऐसा नहीं कि जिन्ना इसे जानते नहीं थे या वह परम धार्मिक व्यक्ति थेजिन्ना भारतीय नेताओं में सर्वाधिक कुशाग्र बुद्धि और तर्क सम्पन्न नेता थेप्रखर और प्रतिभावान वकील तो वह थे हीवह और आंबेडकर संभवतः ऐसे नेता थे जिन्होंने एक दिन भी अपने लक्ष्यों के लिए कभी भी संघर्ष का मार्ग नहीं पकड़ाआम्बेडकर दलितों और वंचितों के सबसे बड़े पैरोकार थेआज़ादी के आंदोलन में आज़ाद होने से अधिक आम्बेडकर की रूचि सदियों से दलित और उत्पीड़ित तबके को उसका अधिकार दिलाना थाआंबेडकर भी प्रखर मति संपन्न और प्रतिभावान थेबाद में भारत के संविधान की रूपरेखा उन्ही के अध्यक्षता में तैयार की गयीजिन्ना ने मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की मांग मुस्लिम लीग के बैनर तले तो उठाई पर वह कट्टर धर्मावलम्बी बिलकुल नहीं थेवह  तो पांच वक़्त नमाज़ के पाबन्द थे और  हीवह रोज़ा रखते थेवह एक अभिजात्य सोच और प्रगतिशील विचारों के परिवेश में पीला बढे थे.  वह अरबी में क़ुरआन तक नहीं पढ़  सकते थेकहा जाता है कि प्रीवी कॉउंसिल में एक मुक़दमा मोहम्मडन लॉ पर चल रहा थासर तेज़ बहादुर सप्रू , उसी मुक़दमे में जिन्ना साहब के विरोध में थेकुरआन का एक सन्दर्भ पेश हुआअरबी में लिखी उस आयत को  तो जिन्ना पढ़ पाये और  ही वह उसका तर्जुमा कर सकेसर सप्रू आगे आयेऔर उन्होंने उस आयत को अरबी में पढ़ा और उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर के जिन्ना को समझायाअखबारों ने इस खबर को " मुल्ला सप्रू एक्सप्लेण्ड कुरआन टू पंडित जिन्ना. " के सुर्ख़ियों से अखबारों में छापा था !

यही नहींसन् 1919 में जब तुर्की के खलीफा के अपदस्थ किये जाने के विरोध पर कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया था तो जिन्ना इस आंदोलन के खिलाफ थेजिन्ना का दृढ मत था कि राजनीति में धर्म को मिलाया जाना उचित नहीं हैगांधी से उनका यह पहला मतभेद थापर नियति देखियेवही जिन्ना धर्म के आधार पर देश के बंटवारे के सबसे बड़े पैरोकार बनेजिन्ना ने पाकिस्तान के लिए  तो धरना दिया रैलियां निकाली और  ही जेल यात्रा कीवह याचिकाशिष्टमंडलों की राजनीति करते रहे और उन्होंने पाकिस्तान बनाने का अपना लक्ष्य भी प्राप्त कियाउन्होंने कहा भी थाकि -
"
सिर्फ एक स्टेनो और एक टाइप राइटर के सहारे उन्होंने पाकिस्तान का लक्ष्य प्राप्त किया." जिन्ना एक अत्यंत प्रतिभासम्पन्न वकील थेउन्होंने एक दक्ष वकील की तरह अपना पक्ष रखा और अपना लक्ष्य प्राप्त कियापाकिस्तान इस प्रकार धार्मिक उन्मादघृणातथा साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा के आधार पर ही अस्तित्व में आया. और यही तनावधार्मिक उन्मादऔर घृणा आज ही पाकिस्तान का स्थायी भाव है. 
- vss. 
अभी आगे और है..... )

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