1948 में जवाहर लाल नेहरू द्वारा कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना और जन मत संग्रह का प्रस्ताव रखना एक बड़ी भूल थी. अतीत में की गयी गलतियों का परिणाम भविष्य कैसे भुगतता है, यह इस घटना से सीखा जा सकता है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि अगर युद्ध विराम न हुआ होता तो शेष भूभाग भी वापस ले लिया गया होता. पर इस पर एक तर्क यह भी है. कि सेना इतनी लंबी लड़ाई के न तो साधनिक रूप से तैयार थी और न ही मानसिक रूप से. आज़ादी का मिलना, पाक का अचानक आक्रमण, महाराजा हरी सिंह का ढुलमुलपन भरा रवैये. एक नवजात राष्ट्र के समक्ष पहाड़ सी समस्याएं , पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों का रेला, हिन्दू मुस्लिम वैमनस्यता और आपसी विश्वास के लुप्त हो जाने के कारण हो रहे देश व्यापी दंगे, यह सब इतने जटिल और गड्डमड्ड हो गए थे कि इस नयी समस्या का विवाद रहित समाधान नेहरू नहीं ढूंढ पाये. पर आज जो भी तर्क उनके इस कदम के पक्ष में लोग देना चाहें दें या उनकी निंदा करें, पर उस लम्हे की खता, हम अब तक भुगत रहे हैं। संभवतः ऐसे ही अनुत्तरित और असहज के लिए नियति की खोज हुयी होगी।
संयुक्त राष्ट्र में संदर्भित होते ही यह प्रकरण , द्विपक्षीय नहीं रह गया. यह अंतर्राष्ट्रीय हो गया. पर बाद में भारत सरकार ने अपनी कूटनीतिक कुशलता और सदाशयता से इस प्रकरण को अंतर्राष्ट्रीय नहीं बनने दिया. यह द्विपक्षीय ही कहा जाता रहा , और आज भी द्विपक्षीय ही है. 1973 में इंदिरा - भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते में यह मान लिया गया कि यह मामला द्विपक्षीय ही रूप से बिना किसी तीसरे राष्ट्र के हस्तक्षेप के ही हल किया जाएगा. इस समझौते की पाकिस्तान में तक निंदा भी होती है. महाराजा हरी सिंह द्वारा हस्ताक्षर किये जाते ही, कश्मीर इंडीयन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के प्राविधानों के अनुसार भारत का अभिन्न अंग बन गया. यह एक्ट दोनों ही राष्ट्र , भारत और पाकिस्तान द्वारा स्वीकार किया गया था. जैसे ही यह अधिनियम लागू हुआ और 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान तथा 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ , वैसे ही सारी देसी रियासतें स्वतंत्र और सम्प्रभु हो गयीं. कश्मीर भी इसी प्राविधान के अनुसार स्वतंत्र और सम्प्रभु राज्य हो गया. महाराजा हरी सिंह इसके राजा थे ही. अब इन रियासतों को तय करना था कि वे भारत में मिलती हैं या पाकिस्तान में या स्वतंत्र और स्वयंभू रहती है. 15 अगस्त 1947 से हरी सिंह के विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने तक कश्मीर एक स्वतंत्र और सम्प्रभु राज्य बना रहा, पर विलय पत्र पर हस्ताक्षर होते ही, यह भारत का अभिन्न अंग बन गया. नेहरू ने जन मत संग्रह का जो प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में दिया था, वह इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के प्राविधानों के अनुसार भी गलत था. इस अधिनियम के अनुसार उस रियासत के राजा को ही इस बात का निर्णय करना है कि वह भारत में सम्मिलित होगा या पाकिस्तान में या सम्प्रभु रहेगा.वहाँ की जनता की इच्छा जानने का न तो कोई औचित्य था, और न ही कोई प्राविधान. सुरक्षा परिषद् में, 4 फरवरी 1948 को, संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि वारेन ऑस्टिन् ने इस विषय पर कहा कि,--
" जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय होते ही, जम्मू कश्मीर का पूरा राज्य जो महाराजा के राज्य क्षेत्र में था, भारत में स्वतः सम्मिलित हो गया. "इसके अतिरिक्त 15 सितम्बर 1950 को सुरक्षा परिषद द्वारा गठित आयोग के जस्टिस ओवेन डिक्सन जो आस्ट्रेलिया के थे ने सुरक्षा परिषद को जो अपनी रपट दी थी, उसमें उन्होंने साफ़ साफ़ लिखा था कि --
" पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर पर हमला कर के अंतर्राष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किया है. नेहरू का यह सुझाव कि वहाँ की जनता की भी राय ले ली जाय , न केवल अवैधानिक है बल्कि अनुचित भी. यह पूरा क्षेत्र भारत का विधि सम्मत क्षेत्र है. फिर भी अगर जन मत संग्रह कराया ही जाना है तो, सबसे पहले पाक से घुसपैठ किये हुए एक एक व्यक्ति को राज्य के बाहर निकाल कर ही कराया जाना चाहिए. "लेकिन इसका क्रियान्वयन कदापि संभव नहीं था. घुसपैठिये इतनी अधिक संख्या में थे कि संयुक्त राष्ट्र का यह निर्देश माना जाना संभव भी नहीं था. इस कारण जन मत संग्रह के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त पूरी ही नहीं की जा सकी. जन मत संग्रह के प्रस्ताव का इस प्रकार अंत हुआ. नेहरू को संभवतः यह विश्वास था कि कश्मीर की जनता भारत के पक्ष में ही वोट देगी।
इस समय जम्मू और कश्मीर मूल रियासत के कुल तीन भूभाग है. भारत के नियंत्रण में 45 प्रतिशत , पाकिस्तान के नियंत्रण में 35 प्रतिशत और 20 प्रतिशत चीन के पास है. चीन के नियंत्रण में अक्साई चिन का 35,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है जो 1962 में उसने हमला कर के हथियाया है. 5,000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र उसे पाकिस्तान ने बाल्टिस्तान के क्षेत्र में से दिया है, जो चीन और पाकिस्तान के बीच मार्च 1963 में हुयी संधि के दौरान चीन को सौंपा गया था. भारतीय कश्मीर के मुख्य रूप से तीन क्षेत्र हैं. कश्मीर घाटी, लदाख, और जम्मू. धार्मिक जन संख्या के अनुसार कश्मीर में मुस्लिम, लदाख में बौद्ध और जम्मू में हिन्दू आबादी बहुलता से है. कश्मीर के पूरे राज्य में 170 किलोमीटर लंबी घाटी सबसे सुन्दर और सरसब्ज़ भू भाग है। श्रीनगर इसी भू भाग में है। पाकिस्तान की नज़र इसी पर है. यह जम्मू कश्मीर के पूरे क्षेत्रफल का मात्र 9 प्रतिशत है. इसी के सौंदर्य पर रीझ कर कभी जहांगीर ने कहा था. कि
गर फ़िरदौस बर रू ए ज़मीं अस्त
हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त !
( धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है , यहीं है ! )
इसी फ़िरदौस के लालच में पाकिस्तान के साथ भारत के तीन युद्ध हुये. चौथा युद्ध कारगिल कोई घोषित युद्ध नहीं था, पर किसी युद्ध से कम जन धन की हानि इसमें भी नहीं हुयी थी. पहला युद्ध जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है, 1947 - 48 में, दूसरा युद्ध 1965 में और तीसरा और सबसे अधिक प्रभावी युद्ध 1971 में हुआ था. 1999 में कारगिल में घुसपैठ हुयी थी. यह घुसपैठ अगर सफल हो गयी होती तो हम लदाख को भी खो सकते थे. क्यों कि श्रीनगर लेह राजमार्ग के कब्ज़े में आते ही लदाख का कश्मीर के मुख्य भाग से संपर्क बाधित हो जाता. इस युद्ध में भारतीय सेना के अदम्य शौर्य से कब्ज़ा किया गया इलाक़ा पुनः खाली करा लिया गया. 1965 के युद्ध के समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान थे और भारत के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे. दो सप्ताह चले इस युद्ध ने पाकिस्तान को बहुत कडा सबक सिखा दिया. इस युद्ध के बारे में एक रोचक किस्सा बहुत ही चर्चित रहा. जनरल अयूब ने 1965 के युद्ध के शुरुआती दौर में मज़ाक में कहा कि
"वह सुबह लाहौर से चल कर नाश्ता अमृतसर में और डिनर दिल्ली में करेंगे. "इस पर शास्त्री जी ने अत्यंत कुशल हाज़िर जवाबी का परिचय देते हुए मज़ाक का उत्तर युद्ध जीत लेने पर मज़ाक में ही यह दिया,
" अयूब साहब के अमृतसर में नाश्ता करने और दिल्ली में डिनर करने की इच्छा को देखते हुए, हम ने सोचा कि उन्हें लाहौर से ही क्यों न साथ ले लिया जाय."यह मज़ाक था, पर सच भी यही था कि भारतीय सेना लाहौर से कुछ ही दूर थी. जब कि युद्ध विराम हो गया था.
"वह सुबह लाहौर से चल कर नाश्ता अमृतसर में और डिनर दिल्ली में करेंगे. "इस पर शास्त्री जी ने अत्यंत कुशल हाज़िर जवाबी का परिचय देते हुए मज़ाक का उत्तर युद्ध जीत लेने पर मज़ाक में ही यह दिया,
" अयूब साहब के अमृतसर में नाश्ता करने और दिल्ली में डिनर करने की इच्छा को देखते हुए, हम ने सोचा कि उन्हें लाहौर से ही क्यों न साथ ले लिया जाय."यह मज़ाक था, पर सच भी यही था कि भारतीय सेना लाहौर से कुछ ही दूर थी. जब कि युद्ध विराम हो गया था.
1962 में हुए चीन के हमले में भारत पराजित हुआ था. चीन जैसे आया था वैसे ही चला भी गया था, पर छोड़ गया था, भारत के लिए एक सबक. वह सबक था, शान्ति और अहिंसा कहने सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं. पर राज्य पाने और बनाये रखने के लिए युद्ध अनिवार्य है. चीन के साथ भारत की कोई रार भी नहीं था. जो खटास आयी उसका मूल कारण तिब्बत और दलाई लामा को राजनीतिक शरण थी। पर वह युद्ध एक वेकिंग बेल थी. उस युद्ध में कब्ज़ा की गयी बहुत सी ज़मीन अभी भी चीन के कब्ज़े में है.जो कश्मीर और पूर्वोत्तर भाग में आज भी है . 1962 से 1965 के बीच बहुत अधिक काल नहीं बीता था, सिर्फ तीन साल ही तो बीते थे। इन्ही तीन सालों की अवधि में सेना ने अपने मनोबल और सामर्थ्य से 1965 का पाक युद्ध जीत कर विश्व के सामरिक विशेषज्ञों को चमत्कृत कर दिया. अकेले एक हवलदार अब्दुल हमीद ने तीन पैंटन टैंकों को नष्ट कर दिया था और चौथे टैंक को नष्ट करने के प्रयास में वह शहीद हो गए. उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था. यह वीरता की एक लोमहर्षक गाथा है. पाक इन युद्धों में हुयी अपनी हार को पचा नहीं पाया. वह इस पराजय से घायल सांप की तरह बदला लेने की फ़िराक में था, कि इसी बीच 1971 के युद्ध में उसका अंग भंग ही हो गया.
उधर पाकिस्तान में भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं था. पाकिस्तान के जन्म का एक ही आधार था, इस्लाम. इस आधार पर एक सम्प्रभु राष्ट्र की मांग करने वाले लोगों ने यह तथ्य जान बूझ कर भुला दिया कि धार्मिक आधार पर एक राष्ट्र का गठन हो ही नहीं सकता. पूरा यूरोप ईसाई है, पर यूरोप का इतिहास यूरोपीय राष्ट्रों के युद्धों से भरा पड़ा है. चीन और जापान बौद्ध मतावलंबी हैं पर दोनों में कभी नहीं पटी. यहां तक कि दोनों में युद्ध भी हुए हैं. इराक़ और ईरान , खुद पाकिस्तान और अफगानिस्तान, सभी इस्लामिक राष्ट्र हैं पर लंबे समय तक युद्ध में एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहे हैं. ऐसा नहीं कि जिन्ना इसे जानते नहीं थे या वह परम धार्मिक व्यक्ति थे. जिन्ना भारतीय नेताओं में सर्वाधिक कुशाग्र बुद्धि और तर्क सम्पन्न नेता थे. प्रखर और प्रतिभावान वकील तो वह थे ही. वह और आंबेडकर संभवतः ऐसे नेता थे जिन्होंने एक दिन भी अपने लक्ष्यों के लिए कभी भी संघर्ष का मार्ग नहीं पकड़ा. आम्बेडकर दलितों और वंचितों के सबसे बड़े पैरोकार थे. आज़ादी के आंदोलन में आज़ाद होने से अधिक आम्बेडकर की रूचि सदियों से दलित और उत्पीड़ित तबके को उसका अधिकार दिलाना था. आंबेडकर भी प्रखर मति संपन्न और प्रतिभावान थे. बाद में भारत के संविधान की रूपरेखा उन्ही के अध्यक्षता में तैयार की गयी. जिन्ना ने मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की मांग मुस्लिम लीग के बैनर तले तो उठाई , पर वह कट्टर धर्मावलम्बी बिलकुल नहीं थे. वह न तो पांच वक़्त नमाज़ के पाबन्द थे और न ही, वह रोज़ा रखते थे. वह एक अभिजात्य सोच और प्रगतिशील विचारों के परिवेश में पीला बढे थे. वह अरबी में क़ुरआन तक नहीं पढ़ सकते थे. कहा जाता है कि प्रीवी कॉउंसिल में एक मुक़दमा मोहम्मडन लॉ पर चल रहा था. सर तेज़ बहादुर सप्रू , उसी मुक़दमे में जिन्ना साहब के विरोध में थे. कुरआन का एक सन्दर्भ पेश हुआ. अरबी में लिखी उस आयत को न तो जिन्ना पढ़ पाये और न ही वह उसका तर्जुमा कर सके. सर सप्रू आगे आये, और उन्होंने उस आयत को अरबी में पढ़ा और उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कर के जिन्ना को समझाया. अखबारों ने इस खबर को " मुल्ला सप्रू एक्सप्लेण्ड कुरआन टू पंडित जिन्ना. " के सुर्ख़ियों से अखबारों में छापा था !
यही नहीं, सन् 1919 में जब तुर्की के खलीफा के अपदस्थ किये जाने के विरोध पर कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया था तो जिन्ना इस आंदोलन के खिलाफ थे. जिन्ना का दृढ मत था कि राजनीति में धर्म को मिलाया जाना उचित नहीं है. गांधी से उनका यह पहला मतभेद था. पर नियति देखिये, वही जिन्ना धर्म के आधार पर देश के बंटवारे के सबसे बड़े पैरोकार बने. जिन्ना ने पाकिस्तान के लिए न तो धरना दिया, न रैलियां निकाली और न ही जेल यात्रा की. वह याचिका, शिष्टमंडलों की राजनीति करते रहे और उन्होंने पाकिस्तान बनाने का अपना लक्ष्य भी प्राप्त किया. उन्होंने कहा भी था, कि -
"सिर्फ एक स्टेनो और एक टाइप राइटर के सहारे उन्होंने पाकिस्तान का लक्ष्य प्राप्त किया." जिन्ना एक अत्यंत प्रतिभासम्पन्न वकील थे. उन्होंने एक दक्ष वकील की तरह अपना पक्ष रखा और अपना लक्ष्य प्राप्त किया. पाकिस्तान इस प्रकार धार्मिक उन्माद, घृणा, तथा साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा के आधार पर ही अस्तित्व में आया. और यही तनाव, धार्मिक उन्माद, और घृणा आज ही पाकिस्तान का स्थायी भाव है.
- vss.
( अभी आगे और है..... )
"सिर्फ एक स्टेनो और एक टाइप राइटर के सहारे उन्होंने पाकिस्तान का लक्ष्य प्राप्त किया." जिन्ना एक अत्यंत प्रतिभासम्पन्न वकील थे. उन्होंने एक दक्ष वकील की तरह अपना पक्ष रखा और अपना लक्ष्य प्राप्त किया. पाकिस्तान इस प्रकार धार्मिक उन्माद, घृणा, तथा साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा के आधार पर ही अस्तित्व में आया. और यही तनाव, धार्मिक उन्माद, और घृणा आज ही पाकिस्तान का स्थायी भाव है.
- vss.
( अभी आगे और है..... )
Nice
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