Monday, 31 August 2015

एक कविता - धीरे धीरे शाम ढलेगी / विजय शंकर सिंह



धीरे धीरे शाम ढलेगी
धीरे धीरे चाँद खिलेगा
धीरे धीरे अब्र घिरेंगे ,
धीरे धीरे उमस बढ़ेगी
धीरे धीरे आँखे छलकेंगी
धीरे धीरे फिर नीर बहेगा .
धीरे धीरे तेरी याद आयेगी .

रात घिरेगी धीरे धीरे ,
चाँद चलेगा धीरे धीरे ,
वक़्त कटेगा धीरे धीरे ,
एक आग है मन में, धीरे धीरे ,
धुंआ उठेगा,  धीरे धीरे
तेरी याद आयी, प धीरे धीरे ,
कसक बढी फिर धीरे धीरे 

धीरे धीरे हुआ सवेरा ,
धीरे धीरे छंटा  अन्धेरा
धीरे धीरे आस मिटी अब ,
धीरे धीरे  बढी  थकन अब
धीरे धीरे मायूस हुआ दिल ,
धीरे धीरे रहा मैं रीता
धीरे धीरे तेरी याद बढी  फिर

शब् बीती, प्यारे,  धीरे धीरे
दिन गुज़रेगा,  धीरे धीरे ,
खो रहा हूँ , धीरज धीरे धीरे
कट  रही  उम्र  भी,  धीरे धीरे
यादें बढ़ती, धीरे धीरे
तुझे खोजता, धीरे धीरे
सब कुछ टूटा, धीरे धीरे

धीरज कितना धरूँ प्रिये, मैं ,
मन को  कितना थामूं , अब
जब भी तुझ को सोचा, मैंने
एक खामोश, सदा सी आयी
दिन बीता और रात भी बीती
शीत , ग्रीष्म , बरसात भी बीती
बीता सब कुछ , तेरी याद बीती !

एक अजब आस है दिल में
जिस का दिया जला रखा है .
संजो रहा हूँ दीप शिखा मैं ,
आलोकित है जो इस  तम में
छीज रहा है धीरज अब तो .
धीरे धीरे ही सही ,आओ तो प्रिये .
अब मान भी जाओ धीरे धीरे
-vss
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Dheere dheere shaam dhalegee,
dheere dheere chaand khilegaa,
dheere dheere baadal gherenge,
dheere dheere umas badhegee,
dheere dheere aankhen chhalkengee,
dheere dheere fir neer bahegaa,
dheere dheere teree yaad aayegee.

Raat ghiregee dheere dheere,
chaand chalegaa dheere dheere,
waqt kategaa dheere dheere,
ek aag hai man mein dheere dheere,
dhuaa uthegaa dheere dheere,
dhundh badhegee dheere dheere,
teree yaad aayee fir dheere dheere.

Dheere dheere huaa saweraa,
dheere dheere chhantaa andheraa,
dheere dheere aas miti ab,
dheere dheere thakan badhee ab.
Dhhere dheere maayoos huaa dil,
dheere dheere rahaa main reetaa.,
dheere dheere teree yaad aayee fir.

Shab beetee pyaare dheere dheere,
din beetegaa dheere dheere,
kho rahaa hoon dheeraj dheere dheere,
kat rahee umra bhee dheere dheere,
yaaden badhatee dheere dheere,
tujhe khojataa dheere dheere,
sab kuchh tootaa dheere dheere.


dheeraj kitnaa dharoon priye main,
man ko kitnaa thaamoo ab,
jab bhi tujh ko sochaa maine,
ek khaamosh sadaa see aayee.
Din bhee beete, raat bhee beetee,
sheet, greeshm, barasaat bhee beetee,
beetaa sab kuchh, teree yaad na beetee.

Ek ajab hai aashaa dil mein,
diyaa ek jalaa rakhaa hai,
sanjo rahaa hoon deep Shikhaa main,
aabhaasit hai jo andhakaar mein.
Dheere dheere hee sahee, aao to priye,
thaan liyaa maine ab ur mein.

Ab maan bhee jaao dheere dheere.
Ab maan bhee jaao dheere dheere..

Monday, 24 August 2015

एक कविता ,...... कुछ तुम पर मैंने गीत लिखे हैं ! / विजय शंकर सिंह




कुछ तुम पर , मैंने गीत लिखे हैं ,
कहो आज तो , पढ़ दूँ सब !

कुछ शेर तुम्हारी ज़ुल्फ़ों पर ,
कुछ नग्मे हैं , तेरी आँखों पर !

अधरों पर खोये , कुछ भाव प्रिये ,
कुछ लिख सका तेरे आरिज  पर ,

फिर भी कुछ तुक ले आया हूँ ,
कहो आज तो , पढ़ दूँ सब !
जो तुम पर , मैंने गीत लिखे हैं !!

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 22 August 2015

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी - एक दृष्टि तुलसी और उनके ' मानस ' पर / विजय शंकर सिंह



ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , सुन्दर काण्ड की इस चौपाई को ले कर तुलसी दास की आलोचना बहुत बार होती रही है। विडंबना यह है कि मानस  के बहुत से ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक प्रसंगों के बावजूद भी हमें उनकी यही चौपाई सब से अधिक दिखती है। इस एक चौपाई की व्याख्या करते समय हम , मानस का काल , समयस्थान और  सन्दर्भ सब भुला बैठते हैं। आज कल की पीढ़ी जो फेसबुक से ज्ञान धारोष्ण दुग्ध की तरह पान करती है , शायद ही तुलसी के इस  अमर ग्रन्थ को आद्योपांत पढ़ा हो। हाँ  चौपाई  को वे ज़रूर याद रखते हैं और उसी आधार पर  तुलसी का मूल्यांकन भी  करते हैं।

मानस एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है। यह एक क्लासिक साहित्यिक रचना है। अपनी पत्नी रत्नावली  द्वारा  बोले गए कटु वचनों ने  उनकी दिशा ही बदल दी। वह अध्ययन रत हुए और संस्कृत का विशद  ज्ञान  अर्जित किया। जगह जगह घूमते फिरते हुए वह, वाराणसी पहुंचे। वहीं उन्हें राम कथा पर लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुयी। उन्होंने संस्कृत में कुछ लिखा भी। जो लिखा वह स्तरीय भी था। लेकिन संस्कृत के उद्भट विद्वान आचार्य मधुसूदन सरस्वती ने तुलसी दास को संस्कृत के बजाय , लोकभाषा में लिखने की सलाह दी। उनका तर्क था कि , संस्कृत में वाल्मीकि तो लिख ही गए हैं। तुलसी कितना भी अच्छा  और प्रभावपूर्ण लिखेंगे  वह वाल्मीकि के रामायण  से श्रेष्ठ  नहीं माना जाएगा। लोकभाषा में राम  कथा पर कुछ भी उल्लेखनीय लेखन नहीं हुआ है , अतः तुलसी को राम  कथा पर लोक भाषा  में ही लिखना चाहिए। इस प्रकार यह ग्रन्थ , मधुसूदन सरस्वती की प्रेरणा से लोकभाषा, अवधी में ही लिखा गया।

आज जो हिंदी, हम बोलते और पढ़ते हैं यह दो सौ साल पुरानी ही है। यह खड़ी बोली का ही परिमार्जन है , जो  हिंदी के रूप में अब  जगत विख्यात है। यह बोली , मूलतः पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मुज़फ्फर नगर जिले की  बोली  थी। पहले  हिंदी या हिन्दवी का मतलब व्रज भाषा थी , जो  मूलतः व्रज क्षेत्र की बोली थी और बहुत ही लोकप्रिय तथा समृद्ध थी। भक्ति काल  और रीति काल की यह  सबसे लोकप्रिय लोकभाषा रही है। लेकिन पूर्वी या मध्य उत्तरप्रदेश में अवधी का बोलबाला रहा है। अगर राम चरित मानस  को  अवधी से हटा कर देखें तो सिवाय जायसी के पद्मावत के कोई अन्य महत्वपूर्ण महाकाव्य इस  भाषा में नहीं  है। लेकिन ' मानस ' की रचना ने इस लोकभाषा की अद्भुत संप्रेषण क्षमता का भी लोगों को बोध कराया। 



तुलसी ने  राम कथा के रूप में प्लॉट , वाल्मीकि के रामायण से ही लिया है। पर वाल्मीकि जहां राम को एक महापुरुष,  महानायक के रूप में देखते और दिखाते हैं , वहीं  तुलसी का भक्ति भाव राम कथा के वर्णन में बार बार उभर आता है। तुलसी का संस्कृत ज्ञान भी श्रेष्ठ  था। हर  काण्ड के पूर्व संस्कृत के  श्लोक से जो  प्रारम्भ इन्होने किया है और ' नमामि शमीशान निर्वाण रूपम ' , जैसी गेय संस्कृत रचना इन्होने की है वह इनके संस्कृत भाषा पर  पकड़ को प्रमाणित करती है।

अक्सर इस चौपाई की चर्चा की जाती है कि तुलसी ने ढोल गंवार शूद्र पशु नारी को ताडन या पीटे जाने  का अधिकारी बताया है। यह चौपाई, मानस  के सुन्दर काण्ड में है। यह काण्ड सीता की खोज में गए हनुमान के बल बुद्धि और कौशल को प्रदर्शित करता है तथा राम द्वारा सागर तट तक पहुँचने और सेतु बंधन के उपाय को भी बताता है।  अपनी वानरी  सेना के साथ सागर तट पर राम  चुके हैं। सीता का पता लग चुका है वह लंका में रावण की बंदिनी हैं बिना सेतु बांधे  उस पार जाना सम्भव भी नहीं  है। सागर या समुद्र से सेतु बंधन हेतु राम अनुरोध करते है।  पर उनका हर अनुरोध निष्फल रहता है। तब राम को क्रोध जाता है और वह कह बैठते हैं ,
विनय मानत जलधि जड़ , गए तीन दिन बीत ,
बोले राम सकोप तब , भय बिनु होहिं प्रीत।।
समुद्र इस क्रोध से डर कर सामने आ जाता है , और क्षमा प्रार्थना करते हुए , अपने संवाद में यह चौपाई भी कहता है ,
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , सकल ताड़ना के अधिकारी।
और कुछ लोगों ने , निषाद राज , शबरी , आदि अनेक उदात्त उदाहरणों और प्रकरणों छोड़ कर इसी  एक चौपाई के आधार पर , तुलसी दास को  शूद्र विरोधी घोषित  दिया।

जब भी  कोई रचना कार कोई उपन्यास , कहानी या महाकाव्य रचता है तो वह उनके पात्रों का सृजन करता है। निश्चित रूप से साहित्यकार  के  विचारों का वहन ,  उस साहियताकार की कृति करती है पर यह बिलकुल आवश्यक नहीं  है कि, हर पात्र का बोला हुआ संवाद ही  साहित्यकार का विचार हो। महाकाव्यों का  नायक ही मूलतः साहित्यकार के  विचारों का प्रेषण करता है। अगर साहित्यकार अपने हर पात्र , नायक या खलनायक के मुंह से निकले हर संवाद  में अपना विचार सम्प्रेषित करने लगेगा तो कोई भी कृति कभी भी  रची नहीं जा सकेगी। यहाँ भी यह समुद्र का कथन है , राम , लक्षमण , या हनुमान का नहीं जिसे साहित्यकार का अपना विचार मान लिया जाय।  समुद्र , भय वश सामने आता है,  गिड़गिड़ाता है , खुद को  चौपाई  अनुसार , गंवार यानी मूर्ख , या शूद्र कहते हुए  पीटे जाने योग्य ही बताता है। अतः मेरे अनुसार यह विचार तुलसी की आत्म धारणा नहीं कही  जा सकती  है।



इस चौपाई के  शब्द , ताडन पर कई विद्वानों की राय अलग अलग भी है। इसका शब्दार्थ कुछ लोग पीटने से मान कर कर समझाने से समन्धित मानते  हैं।  पर शूद्र , नारी  और  गंवार  के सन्दर्भ में तो ताड़ने अर्थ समझाने से कैसे हो सकता  है ?  ढोल और पशु को कैसे समझाया जा सकेगा यह मेरी समझ में नहीं रहा है। तुलसी दास और उनकी कृति मानस का मूल्यांकन आप 2015 में , 2015 के नज़रिये से नहीं  सकते हैं।  आज लोकशाही के विश्वव्यापी रूप के समक्ष समस्त महान राजवंश शोषक ही दृष्टिगोचर होंगे। तुलसी और उनके ' मानस '  का मूल्यांकन आज से 450 साल पहले की परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए। मानस में निषाद और शबरी का भी वर्णन है और पूरा मानस वानरों की अतुलित विजय गाथा से  भरा पड़ा है। यह वानर एक आटविक जाति थी। जिन्होंने राम के दुर्दिन में उनकी सहायता की थी। शबरी के जूठे बेर  ज़िक्र तुलसी के ही इसी ' मानस  ' है।  मानस का उत्तर काण्ड , तुलसी के दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित करता है। लेखक के मूल विचारों का प्रतिनिधित्व यही काण्ड करता है। इस काण्ड में कोई भी ऐसी चौपाई या दोहा नहीं  मिलता है , जिस से तुलसी दास के नारी या शूद्र विरोधी होने का कोई प्रमाण मिले।

तुलसी समाज सुधारक नहीं थे। वह मूलतः एक साहित्यकार थे। वह  भक्त थे। राम उनके आराध्य थे। राम उनके प्रेरणा श्रोत थे। संस्कृत नायक नायिका भेद के लक्षणों के आधार पर उन्होंने राम को धीरोदात्त नायक के रूप में अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि ऐसा कहीं कहीं करने से चूक गए हैं।  राम कथा साहित्य पर एक अत्यंत स्तरीय शोध फादर कामिल बुल्के ने किया है। उनके अनुसार राम कथा के अन्य रूप जो तमिल के कम्बन रामायण , बांग्ला के कृत्तिवास रामायण , और गुजराती रामायण में मिलते हैं में , राम के प्रति लेखकों का उतना प्रगाढ़ भक्ति  भाव नहीं मिलता है। कथा वस्तु में भी कहीं कहीं सभी  कथाओं में अंतर  गया है। कम्बन के तमिल  कथा में , सीता को रावण की पुत्री बताया गया है। मैं इसे सही कह रहा हूँ और ही गलत , बल्कि मै इसे , ' जाकी रही भावना जैसी ' के अनुसार ही देखता हूँ।

तुलसी, अकबर के समकालीन थे।  अकबर के नवरत्नों में से एक , अब्दुर्रहीम खानखाना , उनके मित्र थे। उन्होंने तुलसी से एक बार कहा कि बादशाह उनसे मिलना चाहते हैं। अकबर की रूचि , ऐसे विद्वानों के साथ सत्संग करने की थी। अकबर अपनी यात्रा में इलाहाबाद आया भी था। पर तुलसी ने , रहीम से यह कह दिया कि , अब का तुलसी होहीँहे ,नर कै मनसबदार ! वह खुद को राम का मनसबदार घोषित कर चुके थे और अब वह किसी भी सम्राट का मनसबदार होने के लिए इच्छुक नहीं थे।

मानस , उनकी एक स्वान्तः सुखाय रचना है। ऐसा उन्होंने कहा भी है। 1974 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के तत्वावधान में मानस की चार सौवीं जयन्ती मनाई गयी थी। दुनिया भर के मानस के विद्वान जुटे थे। मैं एम फाइनल में था।  उस चार दिवसीय गोष्ठी में बहैसियत छात्र आयोजक मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला। मानस की प्रासंगिकता और उपरोक्त चौपाई पर , बहुत से विद्वानों ने अपनी राय रखी। बात प्रगतिशीलता पर भी हुयी। और तुलसी के विरोध में भी कुछ कुछ कहा भी गया।  मुख्य वक्ता प्रोफ़ेसर नुरूल हसन थे। वह अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफ़ेसर भी रह चुके थे और उस समय भारत के शिक्षा मंत्री भी थे। तुलसी पर  अच्छा बोलते हुए , मानस की प्रासंगिकता के बारे  सिर्फ एक वाक्य कहा कि ,
" इसकी प्रासांगिकता का सबसे बड़ा प्रमाण , गाँव गाँव होने वाली रामलीलाएं और  मानस आधारित कथाएं हैं। यह गोष्ठी भी इस बात का प्रमाण है कि मानस प्रासांगिक है  रहेगा।  जब तक मानस रहेगा और  राम रहेंगे , तब तक तुलसी भी प्रासंगिक रहेंगे। "
  - vss