Friday, 26 April 2013

झील में कितनी खामोशी है ,.... A poem....




झील में कितनी खामोशी है ,

शब्दों के कुछ कंकड़ फेंको ,
झील में कितनी खामोशी है ,
रात भी गहरी होती जाती ,
सफ़र चाँद का जारी है .

भेजा था सन्देश तुम्हे ,
शब्द नहीं , मृदु भावों का ,
ढूंढ रहा , अब नामाबर को ,
शायद लाया हो खबर , तुम्हारी .

दूर क्षितिज पर  दिखा वह आता ,
अधरों पर मुस्कान खिली अब ,
आया , पूछा,  मैंने उस से ,
पत्र दिया , उत्तर क्या पाया ?

गर्दन की हलकी जुम्बिश से ,
डोर आस की , टूट गयी ,
टूटा कुछ भीतर , फूटा बाहर ,
झर झर , निर्झर बह निकला ,

कितनी रातें , दिन कितने बीते ,
खुद ही खुद को ढाढस देता ,
अब भी बैठा , वहीं , उसी झील में ,
कंकड़ शब्दों के फ़ेंक रहा हूँ .

मन में झंझावत भरा है ,
पर झील में कितनी खामोशी है !!
-vss 

No comments:

Post a Comment