Monday, 15 April 2013

A Poem......जुगनू भी अब पूछते सूरज से औकात






जुगनू भी अब पूछते सूरज से औकात

धन की खाति बेचता, आए दिन ईमान
गिरने की सीमा सभी, लाँघ गया इनसान

दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज

भ्रष्ट व्यवस्था ने किये, पैदा वो हालात
जुगनू अब भी पूछते, सूरज से औकात

हर कोई आजाद है, कैसा शिष्टाचार
पत्थर को ललकारते, शीशे के औजार

मंदिर में पूजा करें, घर में करें कलेश
बापू तो बोझा लगे, पत्थर लगें गणेश

कैसे होगी धर्म की, रामलला अब जीत
रावण के दरबार में, बजरंगी भयभीत

पाप और अन्याय पर, मौन रहे जो साध
वक्त लिखेगा एक दिन, उनका भी अपराध

झूठों के दरबार हैं, सच पर हैं इल्जाम
कैसे होगा न्याय अब बोलो मेरे राम

भीड़तंत्र को दे दिया लोकतंत्र का नाम
राज खड़ाऊँ कर रही, बदला कहाँ निजाम

जब से फैला देश में रिश्वत वाला रोग
अरबों में बिकने लगे, दो कौड़ी के लोग....


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