Wednesday, 3 April 2013

स्वामी विवेकानंद की एक कविता



स्वामी विवेकानंद की एक कविता ...

श्री नरेन्द्र कोहली , हिंदी के अग्रणी लेखक हैं .उन्होंने राम कथा , और महाभारत पर अभ्युदय एवं महासमर के नाम से कई  खण्डों में कालजयी उपन्यास लिखे हैं .. स्वामी विवेकानंद पर उन्होंने एक बहु खंडीय औपन्यासिक जीवनी ''तोड़ो कारा तोड़ो '' लिखी है . आज कल मैं इसी उपन्यास को पढ़ रहा हूँ . इस उपन्यास के चौथे खंड में विवेकानंद की एक कविता है , जिस ने मुझे बहुत प्रभावित किया , उस कविता को मैं आप सब से शेयर कर रहा हूँ . यह कविता स्वामी जी ने अपने अमेरिका प्रवास के दौरान लिखा था .

पहाडी , घाटी , पर्वत श्रेणियों में ,
मंदिर , गिरजा , मस्जिद ,
वेड , बाइबिल , कुरान ,
तुझे खोजा इन सब में -- व्यर्थ .
सघन वनों में भूले शिशु सा ,
रोया --- एकाकी रोया ,
तुम कहाँ गए प्रभु ....प्रिय ?
'चले गए ' कहा ध्वनि ने .

दिन बीते ,निशि बीती ,वर्ष गए ,
मन में ज्वाला ,
कब दिवस निशा में बदला ,   नहीं ज्ञात .
दो टूक ह्रदय हुए ,
गंगा तट पर लेटा ,
वर्षा और ताप झेला ,

तप्त अश्रुओं से धरती सींची ,
जल का गर्जन ले कर रोया ,
पावन नाम तुम्हारे सब के .
सब देशों के सब धर्मों के ,
अरे ! कृपाकर पथ दिखलाओ 
महामहिमजन .

बीते वर्ष करुण क्रंदन में ,
प्रति क्षण युग सा बीता .
उस क्रंदन में , आहों में ,
कोई पुकारता सा लगा .
एक सौम्य मनभावन ध्वनि ,
जो मेरी आत्मा के सब तारों से ,
सम सुर होने से हर्षित सी लगी ,
बोली -- तनय ,मेरे , तनय मेरे ,
मैंने उठ कर उस के उद्गम को  खोजा ,
खोजा , फिर फिर खोजा , मुड कर  देखा ,
चारों दिशि ,आगे पीछे ,
बार बार वह स्वर्गिक स्वर ,
मानो कहता कुछ 
स्तब्ध हुयी आत्मा आनंदित 
परमानंद विमोहित समाधि .

एक चमक ने आलोकित कर दी मेरी आत्मा ,
अंतरतम के द्वार हो गए मुक्त .
कितना हर्ष ,कितना आनंद -- क्या मिला मुझे .
मेरे प्रिय , मेरे प्राण यहाँ !
तुम हो यहाँ , प्रिय मेरे सब कुछ !
मैं खोज रहा था तुम को ,
और तुम युग युग से यहीं ,
महिमा के सिंहासन पर थे , आसीन .

उस दिन से अब जहाँ जहाँ मैं जाता हूँ ,
वे पास खड़े रहते हैं ,
घाटी , पर्वत , उच्च पहाडी ,
अति सुदूर ,अति उच्च -- सभी जगह ,
शशि का औम्य प्रकाश ,चमकते तारे ,
तेजस्वी दिनमणि में .
वही चमकता -- वे उस की सुन्दरता और शक्ति ,
के केवल प्रतिबिबित प्रकाश .
तेजस्वी ऊष्मा, ढलती संध्या ,
तरंगित सीमाहीन समुद्र ,
गीत विहग के ' निसर्ग की शोभा ,
उन सब में वह है .
विपदाएं अब मुझे जकड़ती ,
उए अशक्त मूर्छित सा 
प्रकृत कुचलती निज पदतल से ,
कभी झुकने वाले विन्ध्याचल से ,
तब लगता है सुनता हूँ  ,
मीठे सुर में तुमको कहते चुपके चुपके ,
'मैं हूँ समीप ' 'मैं हूँ समीप '
ह्रदय को मिल जाती शक्ति साथ तुम्हारे 
मरण सहस्रों , फिर भी निर्भय ,
दे दें .
तुम्ही ध्वनित माँ की लोरी में , जो शिशु की पलकें अलसा देती ,
निर्मल बच्चों की क्रीडा और हंसी में ,
तुम्हे देखता खड़े निकट .
पावन मैत्री के स्नेह मिलन में ,
खड़े बीच में साक्षी ,
माँ के चुम्बन में , शिशु के मृदु 'अम्मा' ध्वनि में 
तुम अमृत उड़ेलते 
साथ पुरातन गुरुओं के थे तुम 
सभी धर्म  के तुम श्रोत ,
वेड ,कुरान ,बाइबिल ,
एक राग में गेट ,
तेरी ही गाथा .

जीवन के इस प्रवाहमान धारा में ,
तू आत्माओं की आत्मा ,
ऊं तत सत ऊं , तू है मेरा प्रभु ,
मेरे प्रिय ,मौन तेरा ,मैं तेरा .
-स्वामी विवेकानंद .

2 comments:

  1. बहुत सुंदर कविता है...शेयर करने के लिए शुक्रिया

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  2. शेयर करने के लिये धन्यवाद

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