निःशब्द संवाद ....
देर तक
खामोश बने रहे तुम
जुबां मेरी भी नहीं खुली ,
आँखें भी तो
घूमती रहीं इधर उधर .
कतरा रहीं थी मिलने से .
बस एक मुस्कान अधरों पर पसर जाती थी .
निगाह ढूढने लग जाती थी कभी ,
दूर ,
जहां आसमान छू रहा था ज़मीन को .
शब्द बन रहे थे ,बिगड़ रहे थे ,
आसमान में फैले आवारों बादलों की तरह ,
पानी से भरे ,
पर इंतज़ार में मौसम के .
अद्भुत संवाद था वह ,
खुद में खोये , आत्मलीन ,
कहीं ऊबन नहीं थी .
शब्द तैरते हुए ,
जज्बातों के समंदर में ,
खामोशी से वह सब कह गए ,
जो हम कहना चाहते थे ,
पर निःशब्द होकर .....
-vss
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