Saturday, 6 April 2013

कृपया ,मेरी इस कविता को पढ़ें ... मुखौटा .....




मुखौटा .....

उन  की कमीजें उतर चुकी है ,
चेहरे बेनकाब हैं ,
टंगी है होंठों पर खोखली मुस्कराहट ,
हकीकत अयां हो रही है सब के सामने .

सोच , उनकी नहीं बदली ,
मिजाज़ भी वही है ,
आह !
क्या खूबसूरत अदाकारी है ,

मैंने अब उस के इरादे जान लिए ,
सरकते हुए ,
आस्तीन में अपने देख लिया उसे ,
मौसम के साथ , रंग बदलते हुए ,
भांप लिया है उसे . .

जब भी बात छेड़ी मैंने, खेत खलिहानों की ,
वादे किये, उस ने, आसमान सेचाँद उतारने की ,
जब दिखाई उसे, मैंने , सूखी अंतडिया, भूख से ,
तो, थमा दी, चन्द  किताबें उस ने ,
ढंग से जिन्हें , पढी भी नहीं थी उस ने !

उम्र गुज़र गयी ,
उस के चश्मे से देखते हुए दुनिया
करते हुए भरोसा
गुड़ जैसी उस की बातों पर ,

मौसम बदलता रहा ,
' बदलता वह भी रहा ,
उस की बातें और घातें 
मीठी और खूबसूरत बनी रहीं .
और  हम,
वहीं के वहीं ठगे से खड़े ,
फूटता हुआ गुब्बारा , उम्मीदों का देखते रहे .

लक दक कपड़ों में ,
मुस्कुराते मुखौटे में उस के लोग ,
अब नहीं छल पायेंगे मुझे .
शैतान , जो छुपा है अन्दर कहीं ,
दिखने लगा है अब .

क्षितिज पर देख ,
अन्धेरा ,अब छंट रहा है .
दूर कहीं कुछ रोशन हो रहा है .
उस का मुखौटा उतर रहा है ....
-vss  

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