Wednesday, 6 February 2013

भाजपा के राम


भाजपा के राम

अयोध्या का विवाद ज़ोर पकड़ रहा है . जब जब चुनाव नज़दीक आता है , बी.जे.पी को राम याद आने लगते हैं . और उस के साथ विश्व हिंदू परिषद , और संघ परिवार को भी , अचानक राजनैतिक गतिविधिया , मंदिर मस्ज़िद विवाद की ओर मुड़ जाती हैं , गोया कोई और समस्या देश में समाधान के लिए शेष नहीं है.

अब . थोडा पीछे जाइए . राजीव गाँधी की सरकार चुनाव हार चुकी थी . राजनीति में सब संभव है के मंत्र को सच साबित करते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री बने थे और उन्हे समर्थन दिया था , एक तरफ वाम दलों ने और दूसरी तरफ भाजपा ने . सरकार जैसे चलनी चाहिए थी चली . देवीलाल ने सरकार को अपनी समझना शुरू कर दिया था, और उनका दबाव ईमानदार राजा झेल नहीं पा रहे थे . उसी में बरसो पुरानी धूल खा रही मंडल आयोग की रिपोर्ट आनन फानन में लागू कर दी गयी . नतीजा हुआ पुर देश में जाति युद्ध . अब इस जिन्न को तो जिन्न से ही लड़ाया जा सकता था .

आडवाणी उस समय भाजपा के अध्यक्ष थे , उन्होने सोमनाथ से रथयात्रा शुरू कर दी और धर्म के आधार पर ज़बरदस्त ध्रुवीकरण हुआ . उसी दौरान आडवाणी जी की गिरफ्तारी हो गयी , और भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी . एक अराजकता का माहौल देश मैं हो गया था .
१९९१ में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव हुए और भाजपा बहुमत में आयी और कल्याण सिंह मुख्य मंत्री बने . पूरी कॅबिनेट अयोध्या आयी और मंदिर बनाने की शपथ खायी गोया उन की सरकार मंदिर बनाने के लिए ही गठित की गयी थी . आंदोलन ज़ोर पकड़ा और ६ दिसंबर १९९२ का दिन कारसेवा के लिए मुक़र्रर हुआ . अदालतों में याचिकाएँ दायर हुयी . और सरकार ने विवादित ढाँचा बनाए रखने का वादा मा. सर्वोच्च न्यायालय से किया . पुलिस को किसी भी दशा में गोली चलाने से मना किया गया . दुनिया भर का मीडीया अयोध्या में एकत्र था . जो दिन यानी ६ दिसंबर चुना गया था उस दिन संविधान निर्माता अंबेडकर की पुण्य तिथि थी . तिथि क्यूँ ६ दिसंबर ही सोच कर रखी गयी थी , यह तो वही लोग जानें . जैसा सब को पता था , एक निर्जीव इमारत गिरी और उस के साथ ही संविधान की सारी धाराएँ उप धाराएँ फड़फड़ाती रहीं . और उसे नाम दिया गया शौर्य दिवस , ज़बरदस्त प्रतिक्रिया संभावित थी और हुयी

फिर १९९६ में विधान सभा का चुनाव हुआ . किसी दल को बहुमत नहीं मिला सोशल इंजयरिंग की एक नयी विधा ने जन्म लिया और भाजपा तथा बसपा की संयुक्त सरकार बनी . ६ महीने मायावती मुख्य मंत्री रहीं फिर जब भाजपा की बारी आयी तो बसपा ने सरकार गिरा दिया . केन्द्र में भाजपा की सरकार २००४ तक भाजपा की सरकार रही . उस चुनाव में भाजपा का मंदिर मुद्दा पीछे चला गया और इंडिया शाइनिंग मुद्दा बना पर वह सरकार से बाहर हो गयी और तब से कांग्रेस सरकार चला रही है .

अब जब कि इतने मुद्दे और समस्याएँ देश के सामने हैं तो राम मंदिर का मुद्दा सामने रखना थोड़ा हैरान करता है . आप खुद ही देखेंगे कि चुनाव जब जब नज़दीक आता है राम याद आते हो या नहीं राम मंदिर ज़रूर याद आता है . फिर जब अवसर कुंभ का हो तो यह आध्यात्मिक समागम राजनीतिक और राम मंदिर समागम में बदल जाता है . भाजपा ने कोई भी शपथ पूरी तरह से नहीं निभाई . न तो संविधान के रक्षा की शपथ और न ही राम लला के सामने ली हुई शपथ . न दीन के रहे न दुनिया के .

पिछ्ले साल ३ बड़े जन आंदोलन हुए . अन्ना हज़ारे, बाबा रामदेव और दिल्ली बलात्कार कांड के आक्रोश में . लोकपाल के मुद्दे पर भाजपा सड़क पर सक्रिय और संसद में कॉंग्रेस से बहुत अलग नहीं दिखी . भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपने पूर्व अध्यक्ष के कथित रूप से लिप्त होने के कारण एक धर्म संकट में फँसी दिखी . लेकिन इन सारे आंदोलनो में यह विपक्ष के आक्रामक मुद्रा में सड़क पर नहीं दिखी और संसद का तो इस ने बहिष्कार ही कर लिया था . अभी भी जो तेवर आप देख रहे हैं वह गृह मंत्री के भगवा आतंकवाद के बयान के बाद आया है . जैसे सक्रिय होने के लिए ऐसे ही किसी बयान की उसे ज़रूरत थी . आनन फानन मैं जंतर मंतर पर सभा की गयी और यह भी कह दिया गया कि संसद नहीं चलने दी जाएगी . लेकिन जनता से जुड़े मुद्दों पर इतनी तेज़ी नहीं दिखाई गयी .

मेरा कहने का मतलब यह है कि अब भटकाना और बहकाना राजनीतिक दल छोड़ें . जिन मुद्दों को लेकर पूरा देश आंदोलित था, उन मुद्दों को भाजपा ने विपक्ष के रूप में क्यों नहीं लपका और अब एक ऐसे मुद्दे को उठा रही है जो पूरी तरह न्यायालय के विचाराधीन है . और भाजपा के सारे बड़े नेता उस विवादित ढाँचे के गिराए जाने का मुक़दमा झेल रहे हैं .इस से यह निष्कर्ष निकलता है कि वास्तविक समस्याओं का समाधान या तो इन दलों के पास नहीं है , या यह समाधान करने में रूचि नहीं दिखा रहे हैं. दोनो ही स्थितियाँ देश और हमारे लिए घातक है

धर्म और आस्था एक व्यक्तिगत विश्वास की चीज़ है .राम भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं लेकिन उनका राजनीतिक मुद्दा बनाना ,और वोट के लिए इस्तेमाल करना मुझे समझ में आज तक नहीं आया .जो समस्याएँ देश के समक्ष हैं उनकी तुलना में राम मंदिर का निर्माण अधिक महत्वपूर्ण है ऐसा मुझे नहीं लगता है . कहा जा रहा है मंदिर निर्माण हमारी आस्था और अस्मिता का प्रश्न है . राम और उनका आदर्श हमारी अस्मिता का प्रश्न हो सकता है और है भी पर मंदिर अस्मिता का प्रश्न नही हो सकता है . मंदिर लोगों की भावनाएँ उभार कर उन्हे मतदान केंद्र तक लाने का माध्यम तो हो सकता है पर वह अस्मिता का नहीं . यह शुद्ध रूप से राजनीतिक चाल है , और जनता से जुड़ी समस्याओं से भागने और बहकाने की साजिश है .हमें इसे समझना चाहिए और लोग उसे समझ भी रहे हैं .

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