Monday, 4 February 2013

A poem... मेरी बातों का सिरा गुम है ,



A poem...
मेरी बातों का सिरा गुम है ,

मेरी बातों का सिरा गुम है ,
तेरे और मेरे बीच, पसरी खामोशी ,
यही कह रही है , शायद !
बात करने के लिए तुझ से ,
ढूँढना पड़ता है मुझे , बातों का सिरा .

बातें भी अक्सर दुनिया जैसी ही होती हैं ,
कभी सीधी , बिना लाग लपेट ,
कभी कितने अर्थ और अन्वय लिए ,
और कभी अभिधा में तीर की तरह ,
कभी संपुटित हैं , लक्षणा और व्यंजना से ,

कभी इतनी अर्थहीन कि ,
कोई समझ न पाए ,
तो कभी इतनी लाक्षणिक कि ,
सागर समेटे हुए गागर में .

पर तेरी बातें
दुनिया से अलग हो कर भी ,
दुनिया जैसी ही हैं .
जहाँ से शुरू होती हैं ,
वहीं पर ख़त्म !

ज़िंदगी और बातें
सच में अबूझ पहेली है
जितनी भी ज़िंदगी को सुलझाओ,
और उलझती जाती है ,
और अगर , अर्थ ढूँढने लग जाओ ,
तो बातें ,
कहाँ कहाँ की सैर कर आती हैं ,
और उलझ जाती हैं,
धागों की तरह ,

पर, यह सच है, दोस्त ,
ज़िंदगी है तो बातें हैं ,
बातें हैं तो ज़िंदगी हैं...
-vss

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